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ऋषि मृकंदुजी जी भगवान शिव के उपासक थे। उन्होंने घर में संतान होने के कारण भगवान शिव को कठोर तपस्या की। भगवान शिव ने उन्हें दर्शन देकर वरदान मांगने को कहा। ऋषि मृकंदुजी ने संतान देने की प्रार्थना की। भगवान शिव ने कहा, तुम्हारे भाग्य में संतान नहीं है। तुमने हमारी कठिन भक्ति की है इसलिए हम तुम्हें एक पुत्र देते हैं।
लेकिन उसकी आयु केवल सोलह वर्ष की होगी। कुछ समय के बाद उनके घर में एक पुत्र ने जन्म लिया। उसका नाम मार्कंडय रखा। पिता ने मार्कंडय को शिक्षा के लिए ऋषि मुनियों के आश्रम में भेज दिया। पंद्रह वर्ष व्यतीत हो गए। मार्कंडय शिक्षा लेकर घर लौटे। उनके माता- पिता उदास थे।
जब मार्कंडय ने उनसे उदासी का कारण पूछा तो पिता ने मार्कंडय को सारा हाल बता दिया। मार्कंडय ने दृढ़ता से अपने पिता से कहा कि उसे कुछ नहीं होगा और भगवान शिव ही मुझे दीर्घ आयु का वरदान देंगे। माता-पिता से आज्ञा लेकर मार्कंडय भगवान शिव की तपस्या करने चले गए। उन्होंने महामृत्युंजय मंत्र लिखा।
जब सोलह वर्ष पूर्ण हो गए, तो उन्हें लेने के लिए यमराज आए। वे शिव भक्ति में लीन थे। जैसे ही यमराज उनके प्राण लेने आगे बढे तो मार्कंडय शिवलिंग से लिपट गए। उसी समय भगवान शिव वहां प्रकट हुए और यमराज से कहा, तुम, इस बालक के प्राण नहीं ले सकते।
हमने इस बालक को दीघार्यु प्रदान की है। यमराज ने भगवान शिव को नमन किया और वहां से चले गए। तब भगवान शिव ने मार्कंडय को कहा, तुम्हारे द्वारा लिखा गया यह मंत्र हमें अत्यंत प्रिय है। भविष्य में जो कोई इसका स्मरण और जाप करेगा, हमारा आशीर्वाद उस पर सदैव बना रहेगा।
इस तरह महामृत्युंजय मंत्र की रचना हुई जिसने बालक मार्कंडय को प्राण दान ही नहीं दिया, बल्कि विश्व को महामृत्युंजय मंत्र जैसा जीवन रक्षक मंत्र भी प्रदान किया।
प्रस्तुति: राजेंद्र कुमार शर्मा
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