ओंकार सिंह |
एक और तरह का भय भी बच्चों को परेशान करता है, वह है अकेलेपन का भय। यह भय असुरक्षा की भावना की प्रतिक्रि या स्वरूप उपजता है और जैसे ही मां या कोई भी दूसरा व्यत्नि जिसे बच्चा पहचानता है, आ जाता है तो भय खत्म हो जाता है। वैसे कई स्थितियों में बड़ी उम्र में भी एकाकीपन का भय लोगों को डराता है।
सभी माता-पिता अपने बच्चों के मन में भय उत्पन्न करने वाले भावों को लेकर चिंतित होते हैं पर कई बार अनजाने में ही वे अनुचित प्रतिक्रि या व्यत्न करके बच्चों के भय को दूर करने की बजाय उनके डर को कहीं ज्यादा बढ़ा देते हैं। यह ठीक है कि कोई भी माता-पिता बच्चों के प्रति जान-बूझकर निर्दयी या संवेदनहीनता का व्यवहार नहीं करते लेकिन मौके पर वे समझ ही नहीं पाते कि अपने बच्चों से कैसा व्यवहार करें ताकि बच्चे आश्वस्त हो सकें व भय के निर्मूल भाव से उबर सकें।
बच्चे प्राय: तेज आवाज, छाया, अंधेरे से घबरा जाते हैं। बच्चे का घबरा जाना, उसका भयभीत हो कर रोना व मां बाप के पास ही बने रहने की जिद करना स्वाभाविक-सी बात है। बच्चे के लिए उसका हर भय वास्तविक ही होता है भले ही वह छोटा ही हो व बड़ों के लिए उसका कोई भी अर्थ न हो।
बचपन में अधिकांश भय बच्चों के लिए न केवल वास्तविक होते हैं, उनके विकास के स्वाभाविक अंग भी होते हैं। जैसे-जैसे बच्चे बड़े होते जाते हैं, उनके भय भी सच्चाई जान लेने पर या फिर बड़ों के समझाने पर जाते रहते हैं।
वयस्क होने पर बच्चे खुद ही समझ लेते हैं कि इन आशंकाओं से कैसे निबटा जाए पर जब तक वे नासमझ बालक हैं, उनका डर जाना या किसी खास आवाज को सुनकर डरकर बेचैन होना स्वाभाविक है। यदि बच्चों को शुरू से ही इस तथ्य का ज्ञान करा दिया जाए कि उनका डर जाना संगत है पर भय पर विजय पाना भी संभव है तो बच्चे किसी भी स्थिति से निबटने के लिए खुद को तैयार कर पायेंगे।
नैसर्गिक भय दो प्रकार के होते हैं- गिरने का भय और किसी भी तेज व अचानक हुई आवाज का भय। ये दोनों प्रकार के भय तब पैदा होते हैं जब बच्चे को अपनी सुरक्षा के लिए संभावित खतरा महसूस होता है।
एक और तरह का भय भी बच्चों को परेशान करता है, वह है अकेलेपन का भय। यह भय असुरक्षा की भावना की प्रतिक्रि या स्वरूप उपजता है और जैसे ही मां या कोई भी दूसरा व्यत्नि जिसे बच्चा पहचानता है, आ जाता है तो भय खत्म हो जाता है। वैसे कई स्थितियों में बड़ी उम्र में भी एकाकीपन का भय लोगों को डराता है।
बच्चे के भयभीत हो जाने पर चिढ़ाना, खिल्ली उड़ाना या सजा देना उसके दिल दिमाग को कुंठित कर देगा। प्राय: जब बच्चा डर जाता है व रोता है तो मां-बाप उसे डरपोक साबित करते हैं। ऐसा व्यवहार बच्चे पर नकारात्मक प्रभाव डालता है। बच्चे को इसमें या तो अपना अपमान प्रतीत होता है या माता-पिता के प्रति अविश्वास गहराता है कि वे उसकी बात को गंभीरता से नहीं लेते।
यदि मां बाप समझदारी से काम लें व उसके भय को दूर करने का प्रयास करें तो बच्चा बड़ों के आश्वासन पर विश्वास करना सीख जाता है। बच्चा बिना शरमाए व खीझे अपने भय पर काबू पा सके, इसके लिए उसे बताया जा सकता है कि सभी बच्चे इस उम्र में इस तरह डरते हैं। यह नई बात नहीं है, पर यह सच है कि इस तरह डरने की कोई जरूरत नहीं है इसके लिए बच्चों की पूरी बात सुनना, उनके मन की छोटी-छोटी आशंकाएं बच्चा जिस नजरिए से देख या सोच रहा है, उसके भय को उसी के स्तर तक देखना जरूरी होगा, तभी वह बात समझेगा व आश्वस्त भी हो पाएगा।
यह जरूरी है कि बच्चों के सामने अपने अनुभवों की बात करके बच्चों में आत्मविश्वास भरना ही सकारात्मक सोच है। बादलों की गड़गड़ाहट व बिजली की तेज कौंध से जब छह-सात वर्षीय पिंकी ने घबराकर मां के पल्लू में खुद को छिपा लिया तो मां ने उसे अपने से और चिपकाकर कहा-‘घबरा मत, मैं हूं न तेरे पास। मैं भी जब छोटी थी न तो तेरी तरह घबराकर तेरी नानी के पास दुबक जाती थी।झ् पिंकी पूरी तरह आश्वस्त हो चुकी थी।
उसे पता चल गया था कि मम्मी भी उसी की तरह घबराती थीं यानी वह जो कर रही है वह स्वाभाविक है। बाद में जब मां ने समझाया कि बिजली क्यों चमकती है व बादल पानी भरे होने के कारण आपस में टकराने पर आवाज करते हैं तो पिंकी ने भय खाना छोड़ दिया। माता-पिता जब बच्चों के सामने अपने भय स्वीकार करते हैं तो बच्चे दो महत्त्वपूर्ण पाठ सीखते हैं, पहला यह कि वह अकेला ही नहीं डरता है। दूसरा यह कि चूंकि मां-बाप अब नहीं डरते हैं, अत: वह भी भय को नियंत्रित कर सकता है।
बच्चा स्कूल जाने से कतराता है, तो उसमें नए नए साथियों का संग व नई किताबों का आकर्षण जगाकर तैयार किया जा सकता है। बच्चों की बातें धैर्य से सुनकर उनमें आत्म प्रतिष्ठा की भावना पैदा की जा सकती है। बच्चों को मां बाप का सकारात्मक रवैया जब मिलता है तो वे समझ जाते हैं कि जीवन में चुनौतियां तो आती ही रहती हैं पर उन पर काबू भी पाया जा सकता है।