देश की राजनीति में जातिवाद का जहर किसी से छिपा नही है। लेकिन जब यही जातिवाद का जहर खेलों और खिलाड़ियों के लिए भी शुरू हो जाए तो कई सवाल खड़े होते हैं। जब भी खिलाड़ी अपने बेहतर खेल प्रदर्शन से देश का मान बढ़ाते हैं। फिर लोग उनके खेल प्रदर्शन की चर्चा न करके उनकी जातियां जानने में दिलचस्पी लेते है। सोचिए यह कितने दुर्भाग्य की बात है। जब खिलाड़ी आर्थिक तंगी के दौर से गुजर रहे होते है तब कोई उनकी जाति नहीं पूछता। उनका मजहब नहीं जानना चाहता और न ही कोई दल उनकी सुध लेता है, लेकिन जैसे ही कोई खिलाड़ी पदक जीतता है। फिर खिलाड़ी को जाति-धर्म के सांचे में बंटाने की फितरत जन्म ले लेती है। अब जरा सोचिए कि क्या हमारा देश ऐसे ही विश्वगुरू बनेगा? क्या जातियों में बांटकर हम खेलों में शीर्ष पर पहुंच पाएंगे? आखिर यह जाति है कि जाती क्यों नहीं? वैसे तो हम नारा बुलंद करते हैं संप्रभु भारत का। फिर आखिर बीच में जाति-धर्म और राज्य कहां से आ जाता है? चक दे इंडिया एक फिल्म आई थी। जिसमें एक खूबसूरत डायलॉग है कि, ‘मुझे स्टेट के नाम न सुनाई देते हैं, न दिखाई देते हैं। सिर्फ एक मुल्क का नाम सुनाई देता है-इंडिया।’
खिलाड़ी हमारे राष्ट्र का गौरव है, पर दुर्भाग्य देखिए कि सियासत ने खेलों में भी जातियों की घुसपैठ करा दी है जो कि बेहद ही खतरनाक है। खेलों को जातियों के चश्मे से देखने की कोशिश देश में की जाने लगी है। जिन खिलाड़ियों को प्रोत्साहन मिलना चाहिए। उनके बेहतर प्रदर्शन के लिए। आर्थिक, मानसिक तौर पर सहायता की जाना चाहिए तब कोई सरकार या कोई जाति धर्म वर्ग विशेष के लोग आगे आकर सहायता भले न करे।
लेकिन जब वही खिलाड़ी कोई मेडल जीत ले तो लोगों को उन खिलाड़ियों में जाति धर्म नजर आने लगता है। बात चाहे हिमादास की हो या फिर दीपिका कुमारी या पीवी सिंधू की। इन सभी खिलाड़ियों ने अपने बेहतर खेल प्रदर्शन से देश का मान सम्मान बढ़ाया। लेकिन दुर्भाग्य देखिए हमारे अपने देश के लोगों को इनके खेल से ज्यादा इनकी जाति जानने में दिलचस्पी है। पीवी सिंधू ने हाल ही में ओलंपिक में कांस्य पदक जीत कर देश को गौरवांवित किया। लोगों को उनकी मेहनत, उनका समर्पण नहीं नजर आया, बल्कि लोग यह जानने में लगे हैं कि वह किस जाति से हैं।
हाल ही में गूगल द्वारा जारी किए गए डेटा से पता चला है कि लोग पीवी सिंधू के खेल से कही ज्यादा उनकी जाति सर्च करने में लगे हुए हैं। यह किसी एक खिलाड़ी के साथ नहीं हुआ है। जब दीपिका कुमारी ने तीरंदाजी में बेहतरीन प्रदर्शन किया और कई स्पधार्ओं में स्वर्ण पदक जीता। उनकी जीत के बाद दीपिका की जाति को लेकर भी सोशल मीडिया में जिस तरह के पोस्ट आए वह भी शर्मसार करने वाले थे।
देश में बहस छिड़ गई थी। हर किसी को उन्हें अपनी जाति का बताने की होड़ लगी थी। किसी ने उनके नाम के साथ ‘महतो’ जोड़ा तो किसी ने ‘मल्लाह’। बात भारतीय एथलीट हिमा दास की ही करें।अंडर-20 विश्व एथलेटिक्स चैंपियनशिप की 400 मीटर की दौड़ में स्वर्ण पदक जीतने के बाद हिमा दास चर्चा में थीं और चर्चा भी इस बात को लेकर कि वह किस जाति से आती हैं। कभी किसी ने यह जानने की कोशिश भले न कि हो कि वह किन अभावों में बड़ी हुर्इं। उन्होंने यह मुकाम कैसे हासिल किया। लेकिन उनकी जाति उनके खेल से भी ऊपर हो गई।
यह तो हम सभी को मालूम है कि भारतीय समाज जातियों में विभाजित है। हर समाज के व्यक्ति को उसका हिस्सा होने पर गर्व होना चाहिए। यदि किसी समाज विशेष का व्यक्ति कोई उपलब्धि हासिल करता है तो समाज को उस पर गर्व होना स्वभाविक है। लेकिन वह समाज तब कहा होता है, जब वह व्यक्ति संघर्ष के दौर से गुजर रहा होता है। वैसे इस बात में कोई दोराय नहीं हैं कि व्यक्ति के सफल होने पर लोगों की लंबी कतार लग जाती है।
लाखों हमदर्द बनकर आ जाते हैं, लेकिन जब वह व्यक्ति अपनी जिंदगी के खराब दौर से गुजर रहा होता है तो अपने भी आंख मूंद लेते हैं। लोगों का मानना है कि धर्म या जाति विशेष का होना गर्व की बात है तो इसमें क्या बुराई है कि लोग कामयाब लोगों को जाति के आधार पर विभाजित करें।
गौरतलब हो कि जब भी कोई खिलाड़ी पदक जीतता है तो वह सिर्फ एक मेडल भर नहीं होता है बल्कि उस मेडल के पीछे उस खिलाड़ी के संघर्ष और वर्षों की तपस्या होती है। कैसे एक खिलाड़ी अपने खेल के लिए कड़ा परिश्रम करता है। बात चाहे फिर मीरा दास चानू की ही क्यों न हो या फिर किसी अन्य की …!
इन खिलाड़ियों की कड़ी मेहनत बताती है कि कैसे इनके राह में लाख कठिनाइयों के बावजूद भी ये अपनी मंजिल को पाने के लिए जुनूनी थे। क्या इनके संघर्षों की कहानी से प्रेरित होकर देश के युवाओं को खेल के प्रति जागृति करने से जरूरी कुछ और हो सकता है भला?वैसे इससे बड़ा देश का दुर्भाग्य भला क्या हो सकता है कि जब तक कोई खिलाड़ी अपने बेहतर खेल प्रदर्शन से देश की झोली में मैडल न डाल दे तब तक देश उसे जानता तक नहीं है।
अब समझिए कि देश किस तरफ बढ़ रहा है और खेल भावना कहां पीछे छूटती जा रही है। आज शिक्षा, साहित्य, कला, संस्कृति राजनीति, खेल ऐसा कोई क्षेत्र नहीं बचा। जहां भेदभाव न होता हो। खेल हो या फिल्म जगत कहीं जातिवाद है तो कही परिवार वाद।
भारत में ये कह देना कि जातीय भेदभाव के लिए कोई जगह नहीं है, महज एक जुमला भर हो सकती है लेकिन ऐसा वास्तव में सम्भव हो पाए यह कहना बहुत दूर की कौड़ी है और जब तक यह विकसित नहीं होगा न देश के भीतर खेल संस्कृति पनपेगी और न ही राष्ट्र उत्थान कर सकता है।