सुप्रीम कोर्ट ने पिछले दिनों एक एतिहासिक फैसले में विवादास्पद चुनावी बॉन्ड को असंवैधानिक करार दे दिया। मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली पांच जजों की पीठ ने फैसला सुनाते हुए कहा कि किसी राजनीतिक दल को वित्तीय योगदान देने के बदले में उपकार करने की संभावना बन सकती है। बहरहाल, मालूम हो कि इलेक्टोरल बॉन्ड एक तरह का वचन पत्र होता है, जिसे बैंक नोट भी कहते हैं। दो हजार रुपये से अधिक का चंदा लेने के लिए इसका उपयोग किया जाता है। वर्ष 2017 में भारत सरकार ने पहली बार चुनावी चंदा लेने के लिए इसे प्रयोग में लाया था। भारत सरकार ने उस वक्त तर्क दिया था कि जो चंदे की नकद व्यवस्था है, उससे कालेधन को बढ़ावा मिलता है, इसलिए इलेक्टोरल बॉन्ड की सुविधा शुरू की गई है। हालांकि, कई दलों ने इसका विरोध किया था। राजनीतिक दलों को मिलने वाला दान, मंदिर की पेटी में दिया गया गुप्त दान के समतुल्य नहीं है। भले ही ये बांड स्टेट बैंक से खरीद कर दिए जाते रहे हैं, जिनमें दानदाता का रिकार्ड हो और इसे भारत का ही कोई नागरिक या समूह खरीदे। इस गुप्त दान से केंद्र तथा राज्य चलाने वाली पार्टियां सरकार में आती हैं, जिन पर वह आगे मेहरबान हो सकती हैं। लोकसभा चुनाव से पहले ही चुनावी बॉन्ड को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने ऐतिहासिक फैसला सुना दिया है।
उल्लेखनीय है कि राजनीतिक दलों को मिलने वाले अज्ञात चंदे की वैधानिकता और इसकी जानकारी नागरिकों से छिपाना सूचना के अधिकार का स्पष्ट उल्लंघन था, जो भ्रष्टाचार को बढ़ावा देता था। लेकिन अब चुनावी बांड को असंवैधानिक करार देने से चुनाव में बढ़ता धन-बल का प्रयोग सीमित हो जाएगा। गौरतलब है कि भारतीय स्टेट बैंक द्वारा अब तक 16,518.11 करोड़ रुपये के चुनावी बांड बेचे जा चुके हैं। एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (एडीआर) की एक रिपोर्ट से पता चला है कि भारतीय जनता पार्टी को वित्तीय वर्ष 2022-23 में सभी कॉपोर्रेट दान का लगभग 90 प्रतिशत प्राप्त हुआ है। एडीआर की रिपोर्ट में 2022-23 के लिए राष्ट्रीय दलों द्वारा घोषित कुल 850.438 करोड़ रुपये के दान पर भी प्रकाश डाला गया जिसमें से 719.858 करोड़ रुपये अकेले भाजपा को मिले थे। रिपोर्ट में कहा गया है कि भाजपा द्वारा घोषित कुल दान इसी अवधि के लिए कांग्रेस, आम आदमी पार्टी (आप), भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी या सीपीआई (एम) और नेशनल पीपुल्स पार्टी (एनपीपी) द्वारा घोषित कुल दान से पांच गुना अधिक है। लिहाजा एक पारदर्शी लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए पारदर्शी व्यवस्था को होना बड़ा आवश्यक होता है, जिसमें धन-बल का प्रयोग को सीमित करना पहला लक्ष्य होता है। निश्चित ही सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला लोकतांत्रिक व्यवस्था को सुदृढ़ करने में सहायक सिद्ध होगा।
देश में चुनाव की दृष्टि से वर्ष 2024 को चुनावी वर्ष कहा जा सकता है, जिसमें लोकसभा का चुनाव संपन्न होना है। इसी को ध्यान में रखते हुए चुनाव आयोग ने अपनी तैयारी शुरू कर दी है। पिछले दिनों चुनावों में फैलायी जाने वाली झूठी व भ्रामक जानकारियों पर रोकथाम के लिए चुनाव आयोग ने अब इंटरनेट मीडिया पर और सख्ती बढ़ाने का फैसला लिया है। इसके तहत प्रत्येक जिले अब इंटरनेट मीडिया पर नजर रखने के लिए एक प्रभावी टीम तैनात होगी जिसका मुखिया एसडीएम रैंक का कोई अधिकारी या फिर कम से कम दस सालों का आइटी क्षेत्र से जुड़ा अनुभव रखने वाला जिले का कोई अन्य अधिकारी होगा, जो चुनाव के दौरान प्रत्येक राजनीतिक हलचल के साथ प्रत्याशियों, उनके परिजनों और राजनीतिक दलों से जुड़े पदाधिकारियों के इंटरनेट मीडिया से जुड़े सभी प्लेटफार्मों पर उनके खातों पर नजर रखेगा। गौरतलब है कि चुनाव के दौरान झूठी और भ्रामक जानकारियों को फैलने से रोकने के लिए आयोग ने चुनावी प्रक्रिया को पहले से ही काफी पारदर्शी बनाया है। इसमें रैली से लेकर प्रचार से जुड़ी अनुमति देने की आनलाइन व्यवस्था तैयार की गई है। आयोग ने सख्ती करते हुए सभी चुनाव अधिकारियों और मशीनरी को निर्देश भी दिया है कि वे चुनाव से जुड़ें किसी भी काम या गतिविधियों के दौरान बच्चों को शामिल करने से बचें। इसके लिए चाइल्ड लेबर से जुड़े सभी कानूनों का सख्ती से पालन किया जाए। अगर ऐसा नहीं होता है तो इसके लिए जिला निर्वाचन अधिकारी और रिटर्निंग अधिकारी व्यक्तिगत रूप से जिम्मेदार होंगे। जाहिर है निर्वाचन आयोग लोकसभा चुनाव को लेकर पूरी तरह से पारदर्शी, निष्पक्ष और शांतिपूर्ण चुनाव कराने में कोई खामी नहीं छोड़ना चाहता।
गौरतलब है पेड न्यूज भी चुनावी सुचिता पर सवाल खड़े करते दिखते हैं। चुनाव आयोग के मुताबिक किसी उम्मीदवार के पक्ष में इस प्रकार चुनाव प्रचार करना जिससे कि वह प्रचार भी समाचार अथवा आलेख जैसा प्रतीत हो, पेड न्यूज कहलाता है। प्रेस कौंसिल आॅफ इंडिया का मानना है कि ऐसी खबरें जो प्रिंट या इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में नकद या किसी दूसरे फायदे के बदले में प्रसारित की जा रही हों, पेड न्यूज कहलाती हैं। दरअसल, किसी भी पेड न्यूज का मकसद वोटर्स को गुमराह करना होता है। इससे पाठक को गलत सूचनाएँ प्राप्त होती हैं जिससे वह भ्रमित होता है। लिहाजा किसी विशेष राजनीतिक दल या उम्मीदवार के पक्ष में माहौल बनता है और चुनाव परिणाम खासा प्रभावित होता है। जाहिर है इससे पारदर्शी चुनाव प्रक्रिया की उम्मीदों को झटका लगता है और लोकतांत्रिक मूल्यों में गिरावट आती है। यह कहना गलत नहीं होगा कि जब मीडिया पूंजी की ताकत से संचालित होता है तब सिस्टम के पक्ष में ही जनमत तैयार करने की कोशिश होती है। यह भी एक सच्चाई है कि मौजूदा मीडिया सिस्टम के पक्ष में जनमत तैयार करने के साथ-साथ एक उद्योग के रूप में मुनाफा कमाने की होड़ में भी शामिल हो गया है और इस होड़ के कारण ही हमारा लोकतंत्र एक अपराधी को भी अपना प्रतिनिधि मानने को बेबस है। अगर राजनीतिक दल और उनके उम्मीदवार आचार संहिता की धज्जियां उड़ाना शुरू कर दें, मीडिया लोकतांत्रिक मूल्यों को भूलकर पूंजीपतियों का हिमायती बन जाए, वोटर्स ईमानदार के बजाय एक अपराधी को वोट देना शुरू कर दें तो इस व्यवस्था का क्या होगा? यकीनन हर तरफ अराजकता का माहौल पैदा हो जाएगा जाहिर है ऐसी स्थिति से बचने के लिए कई स्तरों पर सुधार की दरकार है।
चुनाव आयोग ने धन की निर्धारित सीमा अपने फंड से खर्च करने की बात कही है, न कि राजनीतिक पार्टी फंड से। बहरहाल अब तक राजनीतिक पार्टियों को अलग से अपना चुनावी बांड आदि से खर्च करने की स्वतंत्रता थी, इसलिए इनके चुनावी व्यय के आकड़े़ गणना से परे जा पहुंचते थे। सबसे खास बात तो यह है कि जनता का कोई भी व्यक्ति आरटीआई कानून के तहत यह पूछने का हकदार भी नहीं होता कि किस-किस दल ने कितना खर्च किया क्योंकि यह आरटीआई के दायरे से परे है। इस प्रकार राजनीतिक अनैतिकता को और छूट मिल जाती है। इन्हीं तमाम बातों को ध्यान में रखते हुए पिछले दिन उच्चतम न्यायालय ने चुनावी बांड पर पूरी तरह से रोक लगा दी।