Saturday, December 28, 2024
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चुनावी भाषण : तब और अब

 

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Raju Pandayवैसे तो प्रधानमंत्री के संसद में दिए गए भाषण भी चुनावी भाषणों की भांति होते हैं और इनमें कटुता तथा व्यक्तिगत आक्षेपों की प्रचुरता होती है, किंतु चुनावी भाषणों की जो शैली उन्होंने विकसित की है वह तो हतप्रभ और हताश करने वाली है। ‘शहजादा’, ‘नामदार’, ‘दो लड़के’, ‘बुआ और बबुआ’, ‘दीदी ओ दीदी’, ‘खूनी पंजा’ और हाल ही में साईकल पर उनकी टिप्पणी- फेहरिस्त लंबी है। तरह तरह की वेशभूषा में तरह तरह की भाव भंगिमाएं बनाते प्रधानमंत्री जी जब विपक्ष और विपक्षी नेताओं के प्रति अपनी घृणा की अभिव्यक्ति करते हैं तो बहुत दु:ख और लज्जा का अनुभव होता है। विपक्षी नेताओं पर उनके कटाक्ष अनेक बार हास्योत्पादक के स्थान पर हास्यास्पद लगते हैं और ऐसा लगता है कि हम कोई ऐसा प्रहसन देख रहे हैं जिसमें मजाक उड़ाया तो विपक्षियों का जा रहा है लेकिन मजाक बन लोकतंत्र का रहा है।

चुनाव प्रचार के ‘न्यू लो’ को पाताल की गहराइयों तक पहुंचता देखकर व्यथित था। अचानक जिज्ञासा हुई कि जाना जाए स्वतंत्रता बाद के हमारे पहले आम चुनावों में प्रचार का स्तर कैसा था और तबके प्रधानमंत्री अपनी चुनावी सभाओं में किन विषयों को कैसी भाषा में किस भाषण शैली को अपनाते हुए स्पर्श करते थे। आकाशवाणी के आर्काइव्ज में तलाश करते हुए जो सबसे पहली आॅडियो रिकॉर्डिंग हाथ लगी वह 1951 के आम चुनावों से पहले तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू द्वारा राष्ट्र के नाम संदेश के रूप में थी। सुनकर ऐसा लगा कि लोकतंत्र को जीने वाला कोई मनीषी और जननेता देश के नागरिकों को पहले आम चुनावों से पूर्व प्रशिक्षण दे रहा हो।

नेहरू पहले आम चुनावों के पूर्व राष्ट्र के नाम संदेश में सबसे पहले हमें चुनावों में सत्ता के दुरुपयोग के प्रति आगाह करते हैं-‘आप जानते हैं कि बहुत सारे दल और पार्टी अपने तरफ से उम्मीदवार खड़े कर रहे हैं अलावा उनके और भी उम्मीदवार हैं जो अपनी तरफ से आजादी से खड़े हुए हैं बगैर किसी दल या पार्टी से संबंध रखके। ये बात आपको याद रखनी है कि इस मामले में हरेक को बराबर का मौका मिलना चाहिए। चाहे हर पार्टी को और हर उम्मीदवार को। ये बात कोई एक पार्टी के हाथ में गवर्नमेंट है इससे कोई फर्क नहीं होना चाहिए यानी जो लोग गवर्नमेंट में हैं उनको कोई खास सहूलियत नहीं देनी चाहिए। हमने इस बात की हिदायत काफी सफाई से सब प्रदेशों में सब गवर्नमेंट के अफसरों को भेज दी है कि वो अपना काम इस तरह से करें कि उसमें कोई भी तरफदारी किसी की न हो और आजादी से करें।’

पार्टी सिस्टम के महत्व को सरल भाषा में समझाने के बाद नेहरू चुनाव प्रचार की गरिमा की चर्चा करते हैं-‘ये बड़े धूमधाम और परेशानी का चुनाव आखिर किस लिए होता है कि हिंदुस्तान की जनता या कहिए जो इलेक्टोरेट है उनकी राय बड़े बड़े सवालों पर आए और उनको मौका मिले अपने प्रतिनिधियों को चुनने का। अब जाहिर है कि हरेक आदमी पूरे हिंदुस्तान भर में इन बड़े बड़े सवालों को तो नहीं समझ सकता है जो आजकल हैं। इसलिए पार्टीज बनती हैं, दल बनते हैं जिनकी योजनाएं हैं प्रोग्राम हैं कि क्या करेंगे वो। वो इन्हें जनता के सामने रखते हैं और बहुत प्रचार करते हैं कि जनता समझे और उनको मदद करे और उनके उम्मीदवारों को वोट दे।

इस तरह से आपके सामने तरह तरह की योजनाएं और प्रोग्राम रखे जाएंगे अलग अलग दलों के और कभी कभी अलग अलग उम्मीदवारों के। और एक दूसरे पर हमला होगा और गुल शोर मचेगा। समझा जाता है कि इस हमले से और यह दिखाने की कोशिश करने से कि कौन अच्छा है कौन बुरा है इससे जनता को मौका मिलता है कि वो समझे कि क्या सवाल हैं और उसके बाद वो सही तौर से चुने। आप जानते हैं कि इलेक्शन ऐसी चीज है जिसमें लोगों को काफी जोश चढ़ा होता है। और जोश ही नहीं बल्कि इससे भी ज्यादा। इसकी वजह से ऐसे मौके पर अक्सर गलत बातें होतीं हैं, गलत तरीके अख्तियार किये जाते हैं, इस बात का हमें खास ध्यान रखना है, इस बात की खास कोशिश करनी है कि हर उम्मीदवार या उनका एजेंट या और कोई – ऊंचे दर्जे का बर्ताव करें। जो कुछ हम अपने व्याख्यानों में या स्पीचेस में कहें या जो कुछ हम लिखें उसमें कोई व्यक्तिगत बात या जाती बातें न हों, या जाती हमले न हों खाली सिद्धांतों पर, उसूलों पर, पॉलिसीस पर और प्रोग्राम्स पर हम कुछ कहें। ये बात बहुत गलत होगी कि उसमें एक दूसरे को गाली गलौचहो।’

जिज्ञासा और बढ़ी। फिर तलाश शुरू हुई नेहरू के किसी चुनावी भाषण के आॅडियो की जो मिला 1951-52 के आम चुनावों के दौरान गुवाहाटी में हुई जनसभा में नेहरू द्वारा दिए गए भाषण की रिकॉर्डिंग के रूप में। लगभग अट्ठावन मिनट के भाषण का एक चौथाई हिस्सा सांप्रदायिकता और उसके खतरों से जनता को परिचित कराने पर केंद्रित है। नेहरू कहते हैं- ‘हमारे देश में ऐसी संस्थाएं शुरू हुईं जो कि फिरकापरस्त थीं, जो कि जातिवादी थीं…आपको याद होगा कि कितनी हानि उन्होंने देश को की, कितना नुकसान किया। एक विष था, एक जहर था जो फैलाया…सबसे पहले यह मुस्लिम लीग ने किया जो थोड़े मुसलमानों की जमात थी। काफी अरसे जहर फूट का फैलाया देश में और इतना फैला वो कि आखिर में देश का टुकड़ा अलग होकर पाकिस्तान बन गया। हमने उसको स्वीकार कर लिया क्योंकि हम नहीं चाहते थे कि यह विष देश में फैलता जाए और आपस में झगड़े हों।

हम चाहते थे कि हम स्वराज लेकर अपने देश की शक्ति को बढ़ाएं, मिलकर काम करें, इसलिए हमने इस कड़वे घूंट को पी लिया। हम आशा करते थे कि हमारे देश में अब ये सांप्रदायिकता और जातिवाद नहीं रहेगा। लेकिन हमारे दुर्भाग्य से यह विष दूसरे तरह से फैलने लगा। हिंदुओं ने और सिखों ने और दूसरों ने वो संस्थाएं वो सांप्रदायिक संस्थाएं हिंदू महासभा और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और अब नई हुई है-क्या नाम है उसका-भारतीय जनसंघ और रामराज्य परिषद और सिखों में अकाली दल…इन्होंने फिर हमारे देश में जातिभेद और झगड़ा फैलाया।’

आश्चर्य है कि फूलपुर से नेहरू का खुद का चुनाव उन्हीं मुद्दों पर केंद्रित था जो आज उत्तरप्रदेश विधानसभा चुनाव पर हावी दिखते हैं। नेहरू विकसित और सुखी भारत के अपने सपने को साकार करने के वैज्ञानिक कार्यक्रमों की चर्चा करते हैं जबकि रामराज्य परिषद एवं हिंदू महासभा द्वारा समर्थित निर्दलीय प्रत्याशी प्रभुदत्त ब्रह्मचारी नेहरू के सेकुलर भारत में हिंदुओं की उपेक्षा, हिंदू कोड बिल और गोरक्षा के मुद्दे पर चुनाव लड़ते दिखते हैं। यदि तब के चुनाव को इन दो परस्पर विरोधी विचारधाराओं के मध्य जनमत संग्रह के रूप में देखा जाए तो आंकड़े बताते हैं कि नेहरू की सेकुलर विचारधारा को तब 73 प्रतिशत और प्रभुदत्त ब्रह्मचारी की सांप्रदायिक विचारधारा को केवल 9.41 प्रतिशत मत मिले थे। आज स्थिति बदल चुकी है।

राजू पांडेय


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