एक राजकुमार श्रोण, बुद्ध के पास दीक्षित हुआ। राजधानी भरोसा न कर सकी। किसी ने कभी कल्पना में भी नहीं सोचा था कि श्रोण और भिक्षु हो जायेगा! बुद्ध के भिक्षु भी भरोसा न कर सके, आंखें फाड़े रह गए—जब श्रोण आया और बुद्ध के चरणों में गिरा और उसने कहा. मुझे दीक्षा दें, मुझे भिक्षु बनाएं। सम्राट था श्रोण, और ख्यातिनाम सम्राट था। उसकी ख्याति भोगी की तरह थी। उसके राजमहल में सबसे सुंदर स्त्रियां थीं उस जमाने की। उसके महल में श्रेष्ठतम शराब सारी दुनिया के कोनों—कोनों से आकर इकट्ठी थी।
रात—भर राग—रंग चलता था, दिन—भर सोता था। ऐसे भोग में डूबा था कि उसे कभी संन्यास की भी कल्पना उठेगी, यह सोचा नहीं था किसी ने। सीढ़ियों पर भी चढ़ता था तो सीढ़ियों के पास चढ़ने के लिए सहारे के लिए उसने रेलिंग नहीं लगायी थी; नग्न स्त्रियां खड़ी होती थीं, जिनके कंधे पर हाथ रखकर वह सीढ़ियां चढ़ता था। उसका घर, उसने स्वर्ग जैसा बनाया था। स्वर्ग के देवता भी ईर्ष्या करें, ऐसा उसका महल था। बुद्ध के भिक्षुओं ने बुद्ध से पूछा. हमें भरोसा नहीं आता कि श्रोण, और संन्यस्त हो रहा है!
बुद्ध ने कहा : तुम्हें भरोसा आए न आए, लेकिन मैं जानता था यह संन्यस्त होगा। सच पूछो तो मैं इसी के लिए आज राजधानी आया था। क्योंकि जो एक अति पर जाता है, वह दूसरी अति पर भी जाएगा भोग की एक अति है, इसने पूरी कर डाली; अब और आगे वहा रास्ता नहीं है, तो अहंकार को तृप्ति का उपाय नहीं है। जो हो सकता है इस जगत में, सब इसके पास है। अब अहंकार को आगे दीवाल आ गयी, अब आगे अहंकार कहां जाए? अहंकार मांगता है और, अब और है नहीं, तो अहंकार लौट पड़ा, विपरीत यात्रा पर लौट पड़ा। जो अति भोग में जायेगा वह एक न एक दिन अति योग में चला जाएगा।