नमस्कार,दैनिक जनवाणी डॉटकॉम वेबसाइट पर आपका हार्दिक स्वागत और अभिनंदन है। 13 अप्रैल, साल 1919 का वह ब्लैक संडे जिस दिन पूरे देश में बैसाखी का पर्व मनाया जा रहा था, इसी दिन यानि 13 अप्रैल 1699 को दसवें और अंतिम गुरु गोविंद सिंह ने खालसा पंथ की स्थापना की थी। लेकिन ब्रिटिश हुकूमत ने ऐसा नरसंहार किया जिसे हम आजतक नहीं भूल पाए हैं। उन शहीदों को यादकर हम क्रूर अंग्रेजी अफसर जनरल रेजिनाल्ड एडवर्ड हैरी डायर को कोसते हैं।
जी हां! जिसे इतिहास में जनरल डायर के नाम से जाना जाता है, वह ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन का एक ऐसा नाम है, जो भारत के स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में क्रूरता और दमन के प्रतीक के रूप में दर्ज है। उनका नाम विशेष रूप से 1919 के जलियांवाला बाग नरसंहार से जुड़ा है, जिसने न केवल भारत में बल्कि विश्व भर में ब्रिटिश शासन की नीतियों पर सवाल उठाए।
भारत से गहरा था जनरल डायल का रिश्ता
जनरल डायर का भारत से गहरा रिश्ता था, क्योंकि वह ब्रिटिश सेना के एक उच्च अधिकारी थे, जिन्हें भारत में औपनिवेशिक व्यवस्था को बनाए रखने की जिम्मेदारी सौंपी गई थी। इस लेख में हम जनरल डायर की पूरी कहानी, उनके भारत में किए गए कार्यों, उनके खिलाफ हुए विरोध, और स्वतंत्रता आंदोलन को कुचलने की उनकी कोशिशों को विस्तार से देखेंगे।
कहां हुआ था डायर का जन्म?
जनरल डायर का जन्म 9 अक्टूबर 1864 को भारत के पंजाब प्रांत में मुर्री (अब पाकिस्तान में) में हुआ था। उनके पिता एडवर्ड डायर एक ब्रिटिश नागरिक थे, जो भारत में शराब बनाने का व्यवसाय करते थे। डायर का जन्म और प्रारंभिक जीवन भारत में ही बीता, जिसके कारण वह भारतीय संस्कृति और सामाजिक व्यवस्था से परिचित थे। हालांकि, उनकी शिक्षा आयरलैंड और इंग्लैंड में हुई, जहां उन्होंने सैन्य प्रशिक्षण प्राप्त किया।
1885 में डायर ब्रिटिश सेना में शामिल हुए और बाद में उन्हें ब्रिटिश भारतीय सेना में नियुक्त किया गया। भारत में उनकी तैनाती मुख्य रूप से ब्रिटिश हितों की रक्षा और औपनिवेशिक शासन को मजबूत करने के लिए थी। डायर का भारत से रिश्ता एक औपनिवेशिक अधिकारी का था, जिसका उद्देश्य ब्रिटिश साम्राज्य की नीतियों को लागू करना और भारतीय जनता के किसी भी विरोध को दबाना था। वह भारत को ब्रिटिश साम्राज्य का एक हिस्सा मानते थे और इसे नियंत्रित रखने के लिए हर संभव कदम उठाने को तैयार थे।
तत्कालीन भारतीय सेना में कर्नल था जनरल डायर
1919 तक डायर ब्रिटिश भारतीय सेना में एक कर्नल थे और उन्हें पंजाब के अमृतसर में अस्थायी ब्रिगेडियर जनरल के रूप में नियुक्त किया गया था। यह वह समय था जब प्रथम विश्व युद्ध के बाद भारत में ब्रिटिश शासन के खिलाफ असंतोष बढ़ रहा था। युद्ध के दौरान भारतीयों ने ब्रिटिश सेना का साथ दिया था, लेकिन युद्ध के बाद ब्रिटिश सरकार ने भारतीयों को स्वशासन देने के वादे पूरे नहीं किए। इसके बजाय, 1919 में रोलट एक्ट लागू किया गया, जिसे “ब्लैक एक्ट” भी कहा जाता था।
रोलट एक्ट दमनकारी कानून का लिया सहारा
रोलट एक्ट एक दमनकारी कानून था, जिसके तहत किसी भी व्यक्ति को बिना मुकदमे के गिरफ्तार किया जा सकता था और उसे लंबे समय तक जेल में रखा जा सकता था। इस कानून का उद्देश्य स्वतंत्रता आंदोलन को कुचलना था, क्योंकि ब्रिटिश सरकार को डर था कि भारत में क्रांतिकारी गतिविधियां बढ़ रही हैं। रोलट एक्ट के खिलाफ पूरे भारत में विरोध प्रदर्शन शुरू हो गए। विशेष रूप से पंजाब में यह आंदोलन बहुत तीव्र था, क्योंकि वहां सिख समुदाय और अन्य समूहों में ब्रिटिश शासन के खिलाफ गहरा असंतोष था।
भारतीय इतिहास का सबसे काला अध्याय
13 अप्रैल 1919 को अमृतसर के जलियांवाला बाग में जो हुआ, वह भारतीय इतिहास का सबसे काला अध्याय है। यह दिन बैसाखी का पर्व था, और हजारों लोग जलियांवाला बाग में एकत्रित हुए थे। कुछ लोग मेले के लिए आए थे, जबकि अन्य रोलट एक्ट और स्थानीय नेताओं डॉ. सत्यपाल और सैफुद्दीन किचलू की गिरफ्तारी के खिलाफ शांतिपूर्ण प्रदर्शन करने के लिए। यह सभा पूरी तरह से शांतिपूर्ण थी, जिसमें पुरुष, महिलाएं, बच्चे और बुजुर्ग शामिल थे।
जनरल डायर को इस सभा की जानकारी मिली, और उन्होंने इसे ब्रिटिश शासन के लिए खतरा माना। बिना किसी चेतावनी के, डायर 90 सशस्त्र सैनिकों के साथ जलियांवाला बाग पहुंचे। बाग का एकमात्र प्रवेश और निकास द्वार संकरा था, जिसे डायर ने अपने सैनिकों से घेर लिया। इसके बाद, उन्होंने बिना किसी पूर्व सूचना या भीड़ को तितर-बितर करने का मौका दिए, अपने सैनिकों को गोली चलाने का आदेश दिया।
सैफुद्दीन किचलू को गिरफ्तार कर लिया
13 अप्रैल 1919 में, अमृतसर में दो राष्ट्रवादी नेताओं- डॉ. सत्यपाल और डॉ. सैफुद्दीन किचलू को गिरफ्तार कर लिया गया। इसके विरोध में 13 अप्रैल 1919 (बैसाखी के दिन) को हज़ारों लोग जलियांवाला बाग में इकट्ठा हुए। यह सभा शांतिपूर्ण थी और इसमें महिलाएं, बच्चे और बुजुर्ग भी शामिल थे। जनरल डायर ने 90 सैनिकों के साथ बाग को घेर लिया और बिना किसी चेतावनी के गोलीबारी शुरू कर दी। बाग के सभी निकास द्वार बंद थे, जिससे लोग भाग नहीं सके।
बंद द्वार के कारण उनके पास कोई रास्ता नहीं
लगभग 10-15 मिनट तक लगातार 1650 राउंड गोलियां चलाई गईं। लोग जान बचाने के लिए इधर-उधर भागे, लेकिन बाग की ऊंची दीवारों और बंद द्वार के कारण उनके पास कोई रास्ता नहीं था। कई लोग पास के एक कुएं में कूद गए, जहां वे दम घुटने से मर गए। सरकारी आंकड़ों के अनुसार, इस नरसंहार में 379 लोग मारे गए और 1200 से अधिक घायल हुए। हालांकि, कांग्रेस की जांच समिति ने अनुमान लगाया कि मृतकों की संख्या 1000 से अधिक थी।
इस हत्याकांड ने मानवता को शर्मसार कर दिया। डायर ने बाद में कहा कि उनका उद्देश्य “भारतीयों में भय पैदा करना” था ताकि वे ब्रिटिश शासन के खिलाफ विद्रोह न करें। यह उनकी क्रूर मानसिकता को दर्शाता है, जो भारतीयों को केवल प्रजा के रूप में देखती थी, जिन्हें नियंत्रित करना जरूरी था।
अमृतसर में और अधिक दमनकारी नीतियां लागू
जलियांवाला बाग नरसंहार डायर का एकमात्र अपराध नहीं था। इसके बाद, उन्होंने अमृतसर में और अधिक दमनकारी नीतियां लागू कीं। उन्होंने मार्शल लॉ लागू कर दिया, जिसके तहत लोगों की स्वतंत्रता को पूरी तरह से छीन लिया गया। डायर ने कई अपमानजनक आदेश जारी किए, जो इस प्रकार है…
- क्रॉलिंग ऑर्डर: एक सड़क पर, जहां एक यूरोपीय महिला पर हमला हुआ था, डायर ने आदेश दिया कि हर भारतीय को उस सड़क पर पेट के बल रेंगकर जाना होगा। यह आदेश भारतीयों के आत्मसम्मान को कुचलने के लिए था।
- सार्वजनिक कोड़े: डायर ने कई भारतीयों को सार्वजनिक रूप से कोड़े मारने का आदेश दिया, ताकि लोगों में डर पैदा हो।
- कर्फ्यू और गिरफ्तारियां: अमृतसर में सख्त कर्फ्यू लागू किया गया, और बिना कारण के लोगों को गिरफ्तार किया गया।
इन सभी कार्यों का उद्देश्य भारतीय जनता को आतंकित करना और स्वतंत्रता की किसी भी भावना को दबाना था। डायर की नीतियां केवल सैन्य दमन तक सीमित नहीं थीं, वे मनोवैज्ञानिक रूप से भी भारतीयों को तोड़ना चाहती थीं।
भारत में जनरल डायर के खिलाफ विरोध
जलियांवाला बाग नरसंहार और डायर की अन्य क्रूर नीतियों ने पूरे भारत में तीव्र विरोध को जन्म दिया। यह विरोध न केवल आम जनता तक सीमित था, बल्कि राष्ट्रीय नेताओं और बुद्धिजीवियों ने भी इसे जोरदार तरीके से उठाया। कुछ प्रमुख विरोध इस प्रकार थे:
- रवीन्द्रनाथ टैगोर का विरोध: प्रसिद्ध कवि और नोबेल पुरस्कार विजेता रवीन्द्रनाथ टैगोर ने इस नरसंहार की निंदा करते हुए अपनी “नाइटहुड” की उपाधि ब्रिटिश सरकार को लौटा दी। उन्होंने इसे ब्रिटिश शासन की बर्बरता का प्रतीक बताया।
- असहयोग आंदोलन: जलियांवाला बाग की घटना ने महात्मा गांधी को गहरा आघात पहुंचाया। उन्होंने 1920 में असहयोग आंदोलन शुरू किया, जिसने ब्रिटिश शासन के खिलाफ जनता को एकजुट किया। गांधी ने इसे “नैतिक पतन” का उदाहरण बताया और भारतीयों से ब्रिटिश संस्थानों का बहिष्कार करने को कहा।
- उधम सिंह का बदला: जलियांवाला बाग नरसंहार का सबसे प्रत्यक्ष विरोध उधम सिंह ने किया। उधम सिंह, जो इस नरसंहार के गवाह थे, ने प्रतिज्ञा ली कि वह इसके जिम्मेदार लोगों को सजा देंगे।
13 मार्च 1940 को, उन्होंने लंदन में पंजाब के तत्कालीन लेफ्टिनेंट गवर्नर माइकल ओ’ड्वायर को गोली मारकर हत्या कर दी। उधम सिंह को बाद में फांसी दे दी गई, लेकिन उनकी यह कार्रवाई भारतीयों के लिए प्रेरणा का स्रोत बनी।
भारत में डायर के खिलाफ विरोध इतना व्यापक था कि ब्रिटिश सरकार को इस मामले की जांच के लिए हंटर कमीशन गठित करना पड़ा। कमीशन ने डायर के कार्यों की आलोचना की और उन्हें उनके पद से हटा दिया गया।
हालांकि, ब्रिटेन में कुछ दक्षिणपंथी समूहों ने डायर का समर्थन किया और उनके लिए धन इकट्ठा किया, जिससे भारतीयों में और अधिक आक्रोश फैला।
स्वतंत्रता आंदोलन को कुचलने की कोशिश
जनरल डायर की कार्रवाइयां स्वतंत्रता आंदोलन को कुचलने की ब्रिटिश नीति का हिस्सा थीं। उनकी रणनीति में निम्नलिखित तत्व शामिल थे।
- आतंक का उपयोग: डायर का मानना था कि भारतीयों में डर पैदा करके स्वतंत्रता की भावना को दबाया जा सकता है। जलियांवाला बाग नरसंहार और उसके बाद के दमनकारी आदेश इसी रणनीति का हिस्सा थे।
- स्थानीय सेनानियों को निशाना बनाना: डायर ने अमृतसर के लोकप्रिय नेताओं, जैसे सत्यपाल और किचलू, को गिरफ्तार करवाया ताकि स्थानीय स्तर पर आंदोलन को कमजोर किया जा सके।
- सैन्य शक्ति का प्रदर्शन: डायर ने सैन्य बल का खुला उपयोग करके यह संदेश देना चाहा कि ब्रिटिश शासन के खिलाफ कोई भी विरोध बर्दाश्त नहीं किया जाएगा।
- मनोवैज्ञानिक दमन: क्रॉलिंग ऑर्डर जैसे अपमानजनक नियमों के जरिए डायर ने भारतीयों के आत्मसम्मान को तोड़ने की कोशिश की। हालांकि, डायर की ये कोशिशें उलटी पड़ गईं।
जलियांवाला बाग नरसंहार ने स्वतंत्रता आंदोलन को और मजबूत किया। इस घटना ने भारतीयों को एकजुट किया और ब्रिटिश शासन के खिलाफ उनकी लड़ाई को नई दिशा दी। गांधी के असहयोग आंदोलन और बाद के आंदोलनों में इस नरसंहार की याद ने लोगों को प्रेरित किया।
डायर का अंत और उसका प्रभाव
- जलियांवाला बाग नरसंहार के बाद डायर को ब्रिटेन वापस बुला लिया गया। हंटर कमीशन की जांच में उनके कार्यों को गलत ठहराया गया, और उन्हें सेना से बर्खास्त कर दिया गया।
- ब्रिटेन में कुछ लोगों ने डायर को “साम्राज्य का रक्षक” माना और उनके लिए धन इकट्ठा किया, लेकिन भारत में वह घृणा का पात्र बन गए। डायर का स्वास्थ्य धीरे-धीरे बिगड़ता गया, और 23 जुलाई 1927 को ब्रेन हेमरेज के कारण उनकी मृत्यु हो गई।
- मृत्यु से पहले डायर ने कई बार कहा कि वह रात को सो नहीं पाता था और उसे अपने कार्यों का पछतावा है। हालांकि, उन्होंने कभी सार्वजनिक रूप से माफी नहीं मांगी। उनकी मृत्यु के बाद भी जलियांवाला बाग की घटना भारतीयों के लिए एक जख्म बनी रही।
- जनरल डायर की कहानी औपनिवेशिक शासन की क्रूरता और भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की अटूट भावना का प्रतीक है। उनके कार्यों ने भारतीयों को दुख और पीड़ा दी, लेकिन साथ ही उन्हें ब्रिटिश शासन के खिलाफ और अधिक दृढ़ता से लड़ने की प्रेरणा भी दी।
- जलियांवाला बाग नरसंहार ने न केवल भारत में बल्कि विश्व भर में ब्रिटिश साम्राज्य की नैतिकता पर सवाल उठाए। डायर के खिलाफ हुए विरोध और उधम सिंह जैसे क्रांतिकारियों के कार्यों ने दिखाया कि भारतीय जनता अपने अधिकारों के लिए हर कीमत चुकाने को तैयार थी।
आज, जलियांवाला बाग एक स्मारक के रूप में खड़ा है, जो हमें उस बलिदान की याद दिलाता है, जिसने भारत की स्वतंत्रता की नींव रखी। जनरल डायर का नाम इतिहास में एक ऐसे व्यक्ति के रूप में दर्ज है, जिसने अपनी शक्ति का दुरुपयोग किया और मानवता को शर्मसार किया। यानि यह कहानी हमें यह सिखाती है कि दमन और अत्याचार कभी भी जनता की आवाज को पूरी तरह से दबा नहीं सकते।