Friday, July 5, 2024
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विश्वास

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SAMVAD

 


एक डाकू था जो साधू के भेष में रहता था। वह लूट का धन गरीबों में बाँटता था। एक दिन कुछ व्यापारियों का जुलूस उस डाकू के ठिकाने से गुजर रहा था। सभी व्यापारियों को डाकू ने घेर लिया। डाकू की नजरों से बचाकर एक व्यापारी रुपयों की थैली लेकर नजदीकी तंबू में घूस गया। वहां उसने एक साधू को माला जपते देखा। व्यापारी ने वह थैली उस साधू को संभालने के लिए दे दी। साधू ने कहा की तुम निश्चिन्त हो जाओ। व्यापारी को मालूम नहीं था कि वह रुपया डाकुओं को दे आया है। डाकूओं के जाने के बाद व्यापारी अपनी थैली लेने वापस तंबू में आया। उसके आश्चर्य का पार न था। वह साधू तो डाकूओं की टोली का सरदार था। लूट के रुपयों को वह दूसरे डाकूओं को बांट रहा था। व्यापारी वहां से निराश होकर वापस जाने लगा मगर उस साधू ने व्यापारी को देख लिया। उसने कहा; रुको, तुमने जो ्नरुपयों की थैली रखी थी वह ज्यों की त्यों ही है। अपने रुपयों को सलामत देखकर व्यापारी खुश हो गया। डाकू का आभार मानकर वह बाहर निकल गया। उसके जाने के बाद वहाँ बैठे अन्य डाकूओं ने सरदार से पूछा कि हाथ में आये धन को इस प्रकार क्यों जाने दिया। सरदार ने कहा; व्यापारी मुझे भगवान का भक्त जानकर भरोसे के साथ थैली दे गया था। उसी कर्तव्यभाव से मैंने उन्हें थैली वापस दे दी। किसी के विशवास को तोड़ने से सच्चाई और ईमानदारी हमेशा के लिए शक के घेरे में आ जाती है। उसका विश्वास तोड़ना मुझे अच्छा नहीं लगा।


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