- आज से फिर शुरू होगा सुहानी यादों का सफर
- श्रावण मास में आज से भोले बाबा को मनाना होगा आसान
जनवाणी संवाददाता |
मेरठ: ‘बाबा ने बुलाया है कांवड़िया आया है, भोले की भक्ति में वो तो समाया है, पैरों में छाले और माथे पे पसीना, भोले का भक्त यहां सबसे निराला’। दो साल बाद अपने शिव से मिलन की आस लिए लाखों कांवड़िये अपना घर बार छोड़ अपनी ही धुन में अपने बाबा के द्वार के लिए निकलने को तैयार खड़े हैं।
आज से शुरू होने वाले सुहानी यादों के इस सफर पर निकलने वाले शिवभक्तों को न पैरों के छालों की फिक्र हैं न धूप से तपती धरती की, वो तो बस धड़ी की चौथाई में अपने भोले से मिलने हरि के द्वार पहुंचने को बेताब है। हो भी क्यों न। आखिर दो सालों के लम्बे इंतजार के बाद बाबा का दरबार जो सजने वाला है। ‘भांग की गोली मुंह में रखकर कांधे कावंड़ डाले, निकल पडेÞ हैं करने दर्शन ये भोले मतवाले’।
अक्सर देखा जाता है कि जब भी शिव भक्त कांवड़िये शिव जी का जलाभिषेक करने के लिए गंगा मैया की गोदी से जल लेकर चलते हैं तो उनमें एक अलग ही उतावलापन होता है और यह उतावलापन अपने बाबा (भगवान शिव) के प्रति किसी दीवानगी से कम नहीं होता। ‘पी के भरा भांग का प्याला भोला नाचे है मतवाला’। कुछ इसी तर्ज पर कांवड़िये आज से शुरू हो रहे श्रावण मास में अपने पैरों की थिरकन भी भोले को अर्पित करेंगे।
भगवान शिव के प्रिय महीने सावन में प्रत्येक वर्ष निकलने वाली इस कांवड़ यात्रा में शिवभक्तों की भीड़ अब रेला बनती जा रही है। अब इसे भगवान शिव के प्रति उनके भक्तों की दीवानगी कहें या फिर मन्नतें पूरी करवाने के लिए भक्तों का जज्बा कि यह यात्रा अब ‘वैश्विक स्तर’ पर गिनी जाने लगी है। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार इस महीने शिव पार्वती का पुर्नमिलन भी हुआ था और कहा जाता है कि इस महीने में भोले को मनाना सबसे ज्यादा आसान है।
कांवड़ यात्रा के नियम
- केवल सात्विक भोजन ही करना है
- मांसाहार व शराब का सेवन नहीं करना
- रास्ते में कहीं भी कांवड़ जमीन पर नहीं रखना
- विश्राम के समय भी कांवड़ को पेड़ पर लटकाना है
- जिस मन्दिर में अभिषेक का संकल्प, वहां तक पैदल सफर
कैसे शुरू हुई कांवड़ यात्रा?
इसकी अलग अलग मान्यताएं हैं। कहा जाता है कि सबसे पहले त्रेता युग में श्रवण कुमार माता-पिता को कांवड़ में बैठाकर हरिद्वार ले गए। वहां उन दोनों को गंगा में स्नान कराया। वापसी में श्रवण कुमार गंगा जल लेकर वापस आए और फिर इस जल को श्रवण कुमार ने अपने माता पिता के साथ शिवलिंग पर चढ़ाया और तभी से यह यात्रा शुरू हुई। दूसरी मान्यता के अनुसार भगवान परशुराम ने गढ़मुक्तेश्वर से गंगाजल भरकर शिवलिंग पर अर्पित किया था तो तभी से यह यात्रा प्रारम्भ मानी गई है।