एक बार संत के पास एक सत्संगी युवक आया। संत ने उससे हाल-चाल पूछा, तो उसने स्वयं को अत्यंत सुखी बताया। वह बोला, ह्य मुझे अपने परिवार के सभी सदस्यों पर बड़ा गर्व है। उनके व्यवहार से मैं संतुष्ट हूं। संत बोले, तुम्हें अपने परिवार के प्रति ऐसी धारणा नहीं बनानी चाहिए। इस दुनिया में अपना कोई नहीं होता। जहां तक मां-बाप की सेवा और पत्नी-बच्चों के पालन-पोषण का संबंध है, उसे तो कर्तव्य समझकर ही करना चाहिए। उनके प्रति मोह या आसक्ति रखना उचित नहीं। युवक को बात जंची नहीं, बोला, आपको विश्वास नहीं कि मेरे परिवार के लोग मुझ पर अत्यधिक स्नेह करते हैं। यदि एक दिन घर न जाऊं, तो उनकी भूख-प्यास उड़ जाती है और नींद हराम हो जाती है और पत्नी तो मेरे बिना जीवित ही नहीं रह सकती। संत बोले, तुम्हें प्राणायाम तो आता ही है। कल सुबह उठने के बजाय प्राणवायु मस्तक में खींचकर निश्चेष्ट पड़े रहना। मैं आकर सब संभाल लूंगा। दूसरे दिन युवक ने वैसा ही किया। प्राणायाम से उसने अपनी श्वास को रोक लिया और मृत समान लेटा रहा। उसे निर्जीव जान कर घर के सब लोग विलाप करने लगे। योजना के अनुसार संत उसी समय वहां पहुंचे। सब लोग उनके चरणों पर गिर पड़े। संत बोले, आप लोग शोक मत करें। मैं मंत्र के बल पर इसे जिलाने का प्रयत्न करूंगा, किन्तु इसके लिए कटोरी भर पानी किसी को पीना पड़ेगा। उस पानी में ऐसी शक्ति होगी कि पीने वाला तो मर जाएगा, किंतु उसके बदले यह युवक जी उठेगा। यह सुनते ही सब एक-दूसरे का मुंह देखने लगे। पानी पीने के लिए किसी को आगे न आते देख संत बोले, तब मैं ही पीता हूं। युवक उठ बैठा और बोला, महाराज, आप पानी पीने का कष्ट न करें। सांसारिक संबंध क्षणिक और मिथ्या होते हैं, वह मैं जान गया हूं।