केपी मलिक
प्राकृतिक खेती का एक और मतलब ये होता है कि एक साथ कई-कई तरह की फसलों का उगना या उगाना। मतलब जिस प्रकार से हम जंगल में देखते हैं कि कई तरह के पेड-पौधे और घास एक ही जगह बड़ी आसानी से पनप जाती है और उसी में पेड़ों पर फैलती हुई बेलें भी होती हैं, उसी प्रकार से खेती में भी अगर हम देखें, तो एक मौसम की कई तरह की फसलें एक साथ पैदा हो सकती हैं, बशर्ते वो एक-दूसरे के लिए अनुकूल हों।
अभी हम गांवों में किसानों, खासकर गन्ना और दूसरी कई फसलें उगाने वाले किसानों को देखते हैं, कि वो एक बार में अपने खेत में एक ही फसल बोते हैं, जिससे उनके लिए लागत निकालना भी कई बार मुश्किल हो जाता है। लेकिन अगर सभी किसान एक फसल की जगह खेतों में कई फसलें उगाने लगें, तो उन पर न तो कर्ज होगा और न ही वो अपने घर की जरूरतें पूरी करने के लिए परेशान रहेंगे। और तो और किसानों के बच्चे खेती से मुंह नहीं मोड़ेंगे।
दरअसल, खेती की मूल संरचना प्रकृति के हिसाब से यानि प्राकृत खेती की होनी चाहिए। हालांकि आजकल यह बहस का विषय बन चुका है कि जैविक खेती की जाए या प्राकृतिक खेती। मेरा मानना ये है कि प्राकृतिक खेती ही जैविक खेती है, लेकिन सिर्फ जैविक खेती प्राकृतिक खेती नहीं है। क्योंकि जो प्राकृतिक रूप से पैदा हो रहा है, वो जैविक भी है, उसमें जहरीली दवाओं का उपयोग तो किसान बाजार के मुनाफाखोर दवा कंपनियों के झांसे में आकर, उनके बड़े-बड़े लोक लुभावने विज्ञापन देखकर करने लगे हैं और प्राकृतिक खेती करना भूल से गए हैं। आज से कोई तीन-साढ़े तीन दशक पहले तक हिंदुस्तान के 80 फीसदी से ज्यादा किसान प्राकृतिक खेती ही करते थे और उसके लिए वो घर में पशुओं को पालते थे, जिनसे न सिर्फ खेती की जाती थी, बल्कि उनके गोबर की खाद से मिट्टी को प्राकृतिक शक्ति मिलती थी, जिससे फसल अच्छी होती था।
बहरहाल, आज हालात ये हैं कि खेती की जमीन की मूल संरचना ही उर्वरक खादों, दवाओं और फर्टिलाइजर बीजों के चलते बिगड़ गई है, जिसके चलते किसान ये शिकायत करने लगे हैं कि फसल अच्छी नहीं हो पा रही है, फसल में रोग लग रहे हैं और पैदावार भी घट गई है। तो जिस प्रकार से किसी बीमार शरीर वाले आदमी को घी और पौष्टिक खाना नहीं हजम हो पाता, उसी प्रकार से अपनी ताकत खोने के साथ-साथ जहरीली हो चुकी मिट्टी भी एकदम जैविक खाद पड़ने और देशी बीज बोए जाने से अच्छी उपज नहीं दे सकेगी, उसके लिए उसका कम से कम 3 से 5 साल तक इलाज करना होगा और ये इलाज भी प्राकृतिक खेती करके ही होगा यानि इसके लिए जमीन को दोबारा उर्वर बनाने की जरूरत है, जो लगातार जैविक खेती करने से होगी। हमने देखा है कि देश के कई बड़े किसानों ने अब पूरी तरह से प्राकृतिक खेती करनी शुरू कर दी है और वो आज न सिर्फ अपनी फसलों से अच्छा लाभ ले रहे हैं, बल्कि लोगों को भी स्वस्थ रहने में मदद कर रहे हैं और अपने परिवार को भी स्वस्थ रख रहे हैं। आज इंसानों में जितनी भी बीमारियां पनप रही हैं, उनमें से 97 फीसदी बीमारियां हमारे बिगड़े हुए खानपान से ही हो रही हैं और 3 फीसदी बीमारियां दूषित हवा से हो रही हैं।
बहरहाल, प्राकृतिक खेती का एक और मतलब ये होता है कि एक साथ कई-कई तरह की फसलों का उगना या उगाना। मतलब जिस प्रकार से हम जंगल में देखते हैं कि कई तरह के पेड-पौधे और घास एक ही जगह बड़ी आसानी से पनप जाती है और उसी में पेड़ों पर फैलती हुई बेलें भी होती हैं, उसी प्रकार से खेती में भी अगर हम देखें, तो एक मौसम की कई तरह की फसलें एक साथ पैदा हो सकती हैं, बशर्ते वो एक-दूसरे के लिए अनुकूल हों। मसलन, किसान जब खेत में गन्ना लगाएं, तो उसके बीच में जो एक फुट तक का गैप होता है, उसमें लहसुन लगा दें, जब लहसुन तैयार हो जाए, तो प्याज लगा दें या पालक बो दें या सौंफ बो दें या मूली, शलगम, चुकंदर आदि बो दें या फिर असली बो दें। इस प्रकार से जब तक गन्ना तीन फुट का होगा, तब तक किसान उस गन्ने के खेत से अच्छाखासा मुनाफा कमा चुके होंगे और गन्ने के साथ इन फसलों के करने से गन्ने की निकाई-गुड़ाई भी होती रहेगी और पानी भी मिलता रहेगा। इससे खेत में खरपतवार भी नहीं हो सकेगी और जब गन्ना 3-4 फुट का हो जाए, तो फिर उसमें सिर्फ पानी लगाने, मिट्टी चढ़ाने और बाद में उसे बाँधने की ही जरूरत रह जाती है। और किसान देखेंगे कि इस प्रकार गन्ने की फसल के पहले 6 महीने उन्होंने गन्ने को फायदा पहुंचाने वाली फसलों से कमाई की और बाद के 6 महीने में गन्ना भी पहले से अच्छा हो गया। और एक साल तक आमदनी के लिए इंतजार भी नहीं करना पड़ा यानि दूसरी कम समय में पैदा होने वाली फसलों ने किसान को आमदनी भी करा दी।
अक्सर देखा जाता है कि जो छोटी और मध्यम जोत वाले किसान अपने खेतों में एक मौसम में एक ही फसल पर निर्भर रहते हैं, वो ज्यादा दुखी रहते हैं, क्योंकि उन्हें न सिर्फ फसल से आमदनी होने का लंबा इंतजार करना पड़ता है, बल्कि उसमें लगने वाली लागत भी बीच में बिना किसी आमदनी के लगानी पड़ती है, जिससे उनके घर का बजट तो बिगड़ता ही है, कई बार या ये कहें कि ज्यादातर किसानों को अपनी फसल पैदा करने के लिए कर्ज भी लेना पड़ता है और जो किसान एक बार कर्ज के चक्कर में पड़ जाता है, फिर वो जिंदगी भर मुश्किल से ही कर्ज से निकल पाता है, खेती के सहारे तो कभी भी कर्ज से नहीं निकल पाता।
एक ही खेत में एक ही मौसम में एक से ज्यादा फसलें उगाने को रिले क्रॉपिंग भी कहते हैं और फसल चक्र के हिसाब से ऐसी खेती की जाती है। इस तरीके से किसान एक ही खेत में एक ही मौसम में दो या दो से ज्यादा फसलें पैदा कर सकते हैं, जिसमें सभी फसलें दूसरी फसल को न सिर्फ पोषण प्रदान करती हैं, बल्कि कोई नुकसान भी नहीं पहुंचाती हैं, और किसान को जहां हर फसल के लिए अलग से पानी, अलग से खाद लगाने के साथ-साथ अलग से जुताई, निकाई-गुड़ाई और रखवाली का खर्च करना पड़ता है, वो भी बच जाता है। इसके अलावा किसान खेत में फसलों के साथ-साथ फल वाले, औषधि वाले या फिर सिर्फ लकड़ी वाले पेड़ भी उगा सकते हैं और उन पर बेल वाली सब्जियां उगाकर अलग से आमदनी का लाभ ले सकते हैं। अगर किसान बाग लगाते हैं, तो ज्यादा उंचाई वाले पेड़ों के बीच कम उंचाई वाले फलदार पेड़ लगाकर उनके बीच बची जमीन पर कुछ ऐसी फसलें उगा सकते हैं, जो आराम से हो सकती हैं। मसलन, आम, जामुन, कटहल, बेल के बाग में नींबू, आंड़ू, पपीता, केला और अमरूद लगा सकते हैं। जानवरों और चोरों से बाग की सुरक्षा के लिए बेरी के पेड़ लगा सकते हैं, उनके बीच में गैप को भरने के लिए नागफनी और बांस लगा सकते हैं। बाग में मकोय, करोंदे उगा सकते हैं। फसल चक्र के हिसाब से गहरी जड़ वाली फसलों के साथ उथली जड़ वाली फसलें उगानी चाहिए।