किसानों के दो बड़े संगठनों, संयुक्त किसान मोर्चा और किसान मजदूर मोर्चा ने अपनी मांगों को लेकर दिल्ली चलो का नारा दिया है, वहीं संयुक्त किसान मोर्चा ने 16 फरवरी को एक दिन का ग्रामीण भारत बंद करने का आह्वान किया है। दो साल पहले दिल्ली के बॉर्डर पर धरने पर बैठे किसानों का आंदोलन इतना मुखर था कि नरेंद्र मोदी सरकार को कृषक उपज व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन और सरलीकरण) कानून -2020, कृषक (सशक्तीकरण व संरक्षण) कीमत आश्वासन और कृषि सेवा पर करार कानून 2020 और आवश्यक वस्तुएं संशोधन अधिनियम 2020 को रद्द करना पड़ा था। किसानों को डर था कि सरकार इन कानूनों के जरिए कुछ चुनिंदा फसलों पर मिलने वाले न्यूनतम समर्थन मूल्य देने का नियम खत्म कर सकती है और खेती-किसानी के कॉरपोरेटाइजेशन (निगमीकरण) को बढ़ावा दे सकती है। इसके बाद उन्हें बड़ी एग्री-कमोडिटी कंपनियों का मोहताज होना पड़ेगा। इन कृषि कानूनों के रद्द होने के बाद किसानों ने भी अपना आंदोलन वापस ले लिया था। उस दौरान सरकार ने उन्हें न्यूनतम समर्थन मूल्य की गारंटी देने का वादा किया था। इसके साथ ही उनकी कुछ और मांगों को भी पूरा करने का वादा किया गया था। इस बार किसानों ने जो मांगे रखी हैं, उन्हें पूरी तरह मान लेना शायद किसी भी सरकार के लिए संभव नहीं होगा।
न्यूनतम समर्थन मूल्य का कानून बनाने में क्या दिक्कत आ रही हैं, इन पर व्यापक रूप से विचार विमर्श करने की जरूरत है। इसके लिए एक आयोग या समिति का गठन करना होगा जिसमें किसान संगठनों के प्रतिनिधि भी शामिल किए जाएं। फिलहाल 23 कृषि उपज न्यूनतम समर्थन मूल्य के दायरे में है और किसान मांग कर रहे हैं कि समर्थन मूल्य पर सभी फसलों को शामिल किया जाए। एक बात यह भी ध्यान देने योग्य है कि फसलों की किस्म, गुणवत्ता, पोषक तत्व, लागत आदि से फसल की कीमतें तय होती हैं। यदि खराब गुणवत्ता की उपज को भी समर्थन मूल्य पर खरीदने की बाध्यता होगी तो यह सरकार के लिए असहज स्थिति हो सकती है।
जहां तक किसानों के कर्ज को माफ करने की बात है, इस पर भी व्यापक चिंतन करने की जरूरत है। यह देखा गया है कि देश के लघु और सीमांत किसानों की तुलना में बड़े किसानों पर अधिक कर्ज होता है। कर्ज का ब्याज माफ करना तो समझ में आता है लेकिन पूरा कर्ज माफ करने से ब्याज और मूल नहीं चुकाने की प्रवृत्ति को बढ़ावा मिल रहा है । इससे संपन्न और सक्षम किसान भी कर्ज नहीं चुकाते हैं, यह सोचकर कि सरकार तो कर्ज माफ कर ही देगी । कर्ज माफी के बजाय सरकार को बिजली, दवाई, बीज, कृषि यंत्र, खाद आदि पर और रियायत दें तो लागत में कमी आ सकती है।
वर्तमान में लागत में अत्यधिक वृद्धि होने से किसानों को मुनाफा बहुत कम हो रहा है जिसके कारण कर्ज लगातार बढ़ रहा है । किसान 60 वर्ष से अधिक आयु होने पर 10000 रुपए प्रति माह पेंशन की भी मांग कर रहे हैं। देश में प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि योजना से हर साल 10 करोड़ से अधिक किसानों को 6000 रुपए तीन किस्तों में दिए जा रहे हैं। 10000 रुपए महीने पेंशन की मांग तो शायद किसी भी सरकार के लिए संभव नहीं होगा। हां पात्र किसानों को पेंशन दी जा सकती है लेकिन किसानों की मांग यहीं थम जाएगी, इस पर अभी कुछ नहीं कहा जा सकता। इस किसान आंदोलन से ऐसे अनेक सवाल सामने आ गए हैं जिनका त्वरित निराकरण करना जरूरी है। 2020 में किसान आंदोलन शांतिपूर्ण ढंग से संपर्क हो गया था लेकिन इस बार जैसे-जैसे समय बढ़ेगा, देश के अन्य किसान संगठन के इस आंदोलन से जुड़ने की आसार बढ़ेंगे।
किसानों की तरफ से एमएसपी को लेकर कानून बनाए जाने की मांग को लेकर आंदोलन किया जा रहा है। इस बीच कांग्रेस की तरफ से एमएसपी को लेकर कानूनी गारंटी का वादा किया जा रहा है। खास बात है कि जब कांग्रेस नीत यूपीए सत्ता में थी तब उन्होंने एमएसपी को लेकर स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों को लागू करने से इनकार कर दिया था। उस समय मनमोहन सिंह सरकार ने स्वामीनाथन समिति की सिफारिश को अस्वीकार कर दिया था। इसमें न्यूनतम समर्थन मूल्य उत्पादन की भारित औसत लागत से कम से कम 50 प्रतिशत अधिक होना चाहिए था। उनका तर्क था कि एमएसपी और उत्पादन लागत के बीच इस तरह का संबंध बाजार को विकृत कर सकता है।
कुछ दिन पहले राहुल गांधी ने जोर देकर कहा कि उनकी पार्टी देश के लिए फैसले लेती है, न कि राजनीति के लिए, एमएसपी पर कानूनी गारंटी के वादे पर आलोचना का जवाब देते हुए। उन्होंने यह भी बताया कि यूपीए सरकार ने स्वामीनाथन समिति द्वारा की गई 201 में से 175 सिफारिशों को लागू किया था। किसान, समिति की सिफारिशों के आधार पर, सीटू प्लस 50 फॉमूर्ले को लागू करने की मांग कर रहे हैं, जिसमें एमएसपी द्वारा कवर की गई 23 फसलों के लिए उत्पादन की व्यापक लागत शामिल है। हालांकि, सरकार ने कहा है कि कोई भी प्रतिबद्धता बनाने से पहले इस मुद्दे की विस्तार से जांच करने की जरूरत है। केंद्र सरकार को बहुत ही संयम से काम लेना होगा और किसान संगठनों से निरंतर संवाद बनाए रखकर इसका जितने जल्दी हो सके स्थायी समाधान करने के प्रयास करने होंगे। किसानों को भी उचित-अनुचित मांगों पर पुनर्विचार करना होगा। संभव है कोई ना कोई बीच का रास्ता जरूर निकलेगा और किसान आंदोलन छोड़कर फिर से अपने खेतों की ओर रुख करेंगे। इसी में खेती किसानी और देश की भलाई है।