जुमलेबाजों का पता नहीं गांधी जिंदा रहते तो विभाजन को उलट अखंड भारत की जाजम जरूर सजाते। हरि इच्छा प्रबल। गांधी देश की सभ्यता, संस्कृति और मानव मूल्यों के प्रतीक पुरुष बनकर उभरे। देश को कमजोर करने के लिए ऐसे प्रतीकों को गिराना जरूरी होता है। देशी-विदेशी ताकतों की साजिशें आज भी जारी हैं। बौद्धिक बोद्देपन की शिकार विवेकहीन भीड़ उन्मादी मुद्दों में बह कर हमेशा शातिर स्वार्थी शक्तियों का मोहरा बनती है। देश कई सौ साल गुलाम क्यों रहा सहज समझ आता है। यह दुर्भाग्य है। सौभाग्य और राहत यह है कि गांधी को गिराने और भुलवाने का एकमात्र तरीका है कि इनके बराबर या इनसे बड़े कद का गांधी बुद्ध लाया जाए। गांधी को कोसने को राष्ट्रवाद समझने वाले बौनों से तो यह हो न पाएगा। एक प्राचीन सभ्यता होने से अलग भी दुनिया में भारत की दो उजली पहचान हैं। दो महात्मा। एक बुद्ध, एक गांधी। दोनों ने सत्य, अहिंसा, करूणा, समानता, न्याय जैसे शाश्वत गुणों के लिए संघर्ष किया, हिंसा, घृणा, वर्चस्व जैसी मनुष्य की अशुभ पर स्वाभाविक प्रवृत्तियों के खिलाफ। विरोधियों को तमाम हथकंडों के बावजूद एक को मानना पड़ा, दूसरे को मारना पड़ा। दोनों विचार हैं, मरे दोनों ही नहीं।
जीते जी गांधी जी देश के सबसे बड़े जननेता थे और आज भी अगड़ों, पिछडों, दलितों, अल्पसंख्यकों, बहुसंख्यकों सभी वर्गों में उनके प्रशंसकों अनुयायियों का होना जहां उनकी लोकप्रियता का सबूत है, वहीं इन सभी वर्गों का उनसे असंतुष्ट होना उनकी निष्पक्षता, न्यायप्रियता का प्रमाण है। यही कारण है कि आज भी जब जब देश के आगे कोई समस्या आती है तो जिक्र इस अधनंगे फकीर का ही होता है, कोई बुराई करें या बड़ाई। वैसे बुराई करने वाले भी ज्यादातर नाराज भक्त सरीखे लगते हैं, जिन्हें अपने भगवान से मानो यह शिकायत हो कि उसके रहते गलत कैसे हो गया। मजेदार बात है कि गांधी के आलोचकों को भी गांधी के विरोधियों से न कल कोई उम्मीद थी न आज है। गांधी देश का वो फलदार वृक्ष है, जिस पर पत्थर मारने वालों को कुछ ज्यादा ही उम्मीद होती है। ये उम्मीद बेवजह नहीं। आधे अधूरे मन और अधकचरे दिमाग के ऐसे लोग भी सिर्फ इसलिए इतिहास में नाम और जगह पा गए, क्योंकि उन्होंने इस निहत्थे बुजुर्ग फकीर को गोली मारी। जिनका आराध्य ऐसा आदमी हो, जिसकी नाम पहचान गांधी जी पर गोली दागना मात्र हो, उनकी नैतिकता और बौद्धिक स्तर क्या ही हो सकता है? जो लोग अंग्रेज साम्राज्य और जिन्ना से न लड़कर गांधी को कोसना अपना राष्ट्रवाद समझते हों, उनकी देशभक्ति समझनी मुश्किल नहीं।
गांधी के खिलाफ दुष्प्रचार के प्रमुख आरोप देश विभाजन, दलित व मुस्लिम तुष्टिकरण, अहिंसा नीति, नेताजी सुभाष से अनबन और भगत सिंह की फांसी माफी में मदद न करना हैं। ये सब आरोप लंबे समय से फैलायी जा रही अफवाहे हैं, जो अतार्किक हैं और तथ्यात्मक तौर पर गलत भी। इन आधारहीन आरोपों की सफाई देना कतई जरूरी नहीं है, पर साजिशन फैलाई जाने वाली अफवाहों की गफलत समय-समय पर हटाना जरूरी है। गांधी जी ने स्वतंत्रता आंदोलन सुगम सरल बनाकर जनान्दोलन बनाया, घर घर तक पहुंचाया।
कोई सूत कात कर खादी, पहन कर, श्रमदान कर, सच बोल कर, साफ सफाई कर, विदेशी सामान और छूआछूत त्याग कर भी स्वतंत्रता सेनानी बन सकता है यह बोध जनता को गांधी ने कराया। कई सौ साल की गुलामी में आत्मविश्वास खो चुके देशवासियों में स्वराज की इच्छा जगाना और उसे पाने का मनोबल आवाम में बनाना, गांधी के अहिंसक सत्याग्रह की उपलब्धि है। गांधी की अहिंसा कायरता नहीं बहादुरी थी जो हिंदुस्तानी आवाम को दुनिया के सबसे बडेÞ साम्राज्य के खिलाफ सड़क पर ले आई। गांधी वैश्विक धरोहर हैं। सत्याग्रही गांधी की समाधि पर यूं ही श्रद्धा से दुनिया मत्था नहीं नवाती। मत्था तो मन से गांधी को कोसने वाले को भी नवाना पड़ता है। वो मजबूर हैं। चारा ही नहीं है। इसलिये गांधी मजबूरी नहीं मजबूती कर नाम है।
जिन्हें अहिंसा का रास्ता कायरता लगता है, वो हमेशा स्वतंत्र थे अपना रास्ता चुनने को। नेताजी सुभाष, शहीदे आजम भगत सिंह आदि ने चुना भी। समानता गांधी, सुभाष और भगत सिंह जैसों में यह रही कि ये सभी अपने चुने रास्ते पर डटे रहे और कभी माफी नहीं मांगी। ये सभी अंग्रेजों से लडे आपस में नहीं। गांधी को गिराने की इच्छा पालने वाले कुछ भी कहें पर तथ्य यही है कि सुभाष चंद्र बोस को ‘नेताजी’ नाम गांधी जी ने दिया और गांधी जी के लिए ‘राष्ट्रपिता’ का संबोधन सबसे पहले रंगून रेडियों से 1942 में आजाद हिंद फौज के सुप्रीम कमांडर नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने किया। नेताजी सुभाष ने आजाद हिंद फौज की बिग्रेड का नाम ‘गांधी बिग्रेड’ रखा था। एक सभा में गांधी को प्रतिक्रियावादी कहे जाने को दुरूस्त, जाने माने रूसी कम्युनिष्ट क्रान्तिकारी नेता लेनिन तक ने गांधी को ‘जननेता’ बताकर किया था। सुभाष और भगत सिंह को गांधी के खिलाफ खड़ा करने वाले सुभाष और भगत सिंह के संघर्ष में भी नदारद ही तो थे। गांधी ने खुद कहा भी कि यदि उन्हें हिंसा और कायरता में चुनना पड़े तो वह हिंसा को चुनेंगे।
सुभाष, भगत सिंह, चन्द्रशेखर आजाद सभी कम्युनिस्ट या वामपंथी विचाराधारा के थे। सुभाष ने कांग्रेस में फारवर्ड ब्लाक बनाया था और भगत चन्द्रशेखर आजाद ने ‘हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एैसोसिएशन।’ गांधी की तरह ये सभी सिर्फ राजनीतिक आजादी को नाकाफी मानते थे। केवल अंग्रेज की जगह भारतीय हुकुमरान का बैठ जाना इनकी आजादी की कल्पना नहीं थी। गांधी और अंबेडकर की तरह इनकी असली लड़ाई गैर बराबरी, अन्याय, हिंसा, शोषण, छूआछूत, अस्पृश्यता, रंग भेद, लिंग भेद, भूख, गरीबी, बीमारी और अशिक्षा के विरुद्ध थी। यहां गांधी से अन्याय सिर्फ गोली मारने वालों ने नहीं बल्कि उनके विचारों से धोखा करने वाले सरकारी और मठी गांधीवादियों ने भी किया।
5 अक्टूबर 1929 को 116 दिन का जेल में अनशन गांधी जी के आग्रह पर ही भगत सिंह ने तोड़ा था। गांधी जी के आग्रह पर ही वकील आसफ अली और जवाहर लाल नेहरू भगत सिंह से जेल में मिले। अपने आलेखों में भगत सिंह गांधी और नेहरू का बडे सम्मानपूर्वक कई जगह जिक्र करते हैं। भगत सिंह सांप्रदायिक ताकतों को देश की आजादी में सबसे बड़ा रोड़ा मनाते हैं। और नास्तिक व घोषित कम्युनिस्ट हैं।
गांधी वायसराय इरविन से मानवीय आधार पर भगत सिंह की फांसी माफी की प्रार्थना 18 फरवरी 1931 को भी करते हैं और भगत सिंह को बहादुर, लोकप्रिय संभावनाओं वाला युवा बताते हैं। जवाहर लाल के अलावा बोस, मोतीलाल नेहरू, रफी किदवई, राजा कालाकांकर आदि भी भगत व साथियों से जेल में मिले और उनके मुकदमें में वकील आसफ अली, गोपीचन्द भार्गव, दुनीचन्द, बरकत अली, अमोलक कपूर, अमीन व पूरन मेहता, दत्त आदि ने पैरवी की। जतिन दास की जेल में मौत के विरूद्ध गोपीचन्द भार्गव और मौहम्मद आलम ने पंजाब विधान सभा से इस्तीफा दे दिया। दाह कर्म की सारी व्यवस्था सुभाष चन्द्र बोस ने की। मौहम्मद अली जिन्ना ने भी सेन्ट्रल असेम्बली में भगत सिंह का मुद्दा उठाया।
भगत सिंह व साथियों को फांसी असेंबली बम कांड में नहीं पुलिस अधिकारी साण्डर्स के हत्याकाण्ड में हंसराज बोहरा और जयगोपाल की गवाही के बाद मिली। सारा पुलिस महकमा फांसी चाहता था और फांसी माफी के खिलाफ ब्रिटिश पुलिस व अधिकारी सामूहिक इस्तीफे की धमकी वायसराय इरविन को दे चुके थे। भगत सिंह माफी नहीं फांसी मांग रहे थे और पुलिस भी। इसलिए इस बात से इरविन समझौता टूटता फांसी नहीं टलती।
वह समझौता जिससे सविनय अवज्ञा आन्दोलन के 90,000 राजनीतिक बन्दियों की रिहाई हुई और भविष्य की संविधान सभा का रास्ता खुला। खैर जाति, पंथ, सम्प्रदाय के नाम पर देश को हमेशा बांटने को तैयार ताकतें तो ‘बांटो और राज करो’ की नीति वाले अंग्रेजों के हाथ का मोहरा थी ही। गांधी के ‘करो या मरो’ के नारे के साथ 1942 के ‘अंग्रेजों भारत छोड़ो’ आंदोलन में जब कांग्रेस अंतरिम सरकार से बाहर आ गई तो हमेशा एक-दूसरे को कोसने वाली मुस्लिम लीग और हिंदू महासभा ने पंजाब और सिंध में मिलकर सरकार चलायी। यह था गांधी विरोधियों का देशप्रेम। उनका सत्ता लोलुप, अवसरवादी दोमुंहा असली चेहरा सबके सामने था।
गांधी ने आजादी के बडेÞ लक्ष्य के कारण इनकी हरकतों को हमेशा नजर अंदाज किया कि देश समाज बंटे नहीं, पर इन ताकतों ने गांधी को ही कांटा मानकर अंग्रेजों का मकसद हल किया देश के विभाजन तक। यह संगठन सनातन परम्परा और हिंदू एकता की भी बात भर ही करते थे। अंग्रेजों की जगह बैठना भर ही इनका उद्देश्य था, सबके लिए न्यायपूर्ण आजादी नहीं। इनके मन मुस्लिमों के लिए ही नहीं दलितों के लिए भी घृणा से भरे थे। बहुत पीछे लीगी मुसलमान भी नहीं थे। ऊंच नीच, छूआछूत का आलम यह था कि दलितों का बहुत जगह मन्दिर प्रवेश निषेध था। 1927 में पश्चिमी महाराष्ट्र के महाड में सत्याग्रह कर तालाब से पानी पीने के बाबा साहब अम्बेडकर के नेतृत्व में दलित आंदोलन का समर्थन कर गांधी इन ताकतों के दुश्मनों की सूची में जगह पा गए थे।
गांधी और अम्बेडकर अब अंग्रेजी हुकूमत के साथ रूढिवादी कुरीतियों से भी लड़ रहे थे। इस दरार को खाई बनाने के लिए अगस्त 1932 में ब्रिटिश प्रधानमंत्री ने भी सभी पंथों के दलितों के लिए नौकरियों और निर्वाचन में अलग अल्पसंख्यक समुदाय बनाकर ‘कम्यूनल अवार्ड’ की घोषणा की। इस तरह दलित हिंदू से कट जाता। अम्बेडकर हालांकि अवार्ड के पक्ष में थे पर छूआछूत के खिलाफ गांधी के अनशन और पूना समझौते में सेवाओं व प्रतिनिधि निर्वाचन में दलित हित सुनिश्चित होने पर गांधी के साथ आए। काफी दलित विचारक इसे उनके हितों से समझौता मानते हैं और अगड़े इसे दलित तुष्टिकरण। गांधी हत्या ने दलितों से उनकी सामाजिक उम्मीद छीन ली। अम्बेडकर हिंदू नहीं बौद्ध धर्म में दीक्षित हो संसार से विदा हुए। निशाने पर हमेशा की तरह थे, ‘गांधी’।
गांधी पर हमले हर जगह हर वक्त हुए। जनवरी 1897 में नस्ली रंग भेद के खिलाफ आंदोलन के दौरान दक्षिण अफ्रीका में उन पर उन्मादी भीड़ ने हमला किया। सितम्बर 1906 में जोहन्सबर्ग की एक सभा में उनकी हत्या की योजना बनी। 1908 जनवरी में ट्रांसवाल के हमले में बेहोश होते हुए उनके मुंह से ‘हे राम’ निकला और गोली खाकर अन्तिम सांस में भी। उन्होंने हमलावर की पुलिस रिपोर्ट से मना कर दिया। शायद जिंदा रह जाते तो गोली चलाने वाले हत्यारे को भी वो गुमराह उन्मादी मान कर माफ कर देते। भारत में छूआछूत उनके लिए अफ्रीका के नस्ली रंग भेद जैसा था। अस्पृश्यता, पाखंड और रूढ़िवाद के विरोध के कारण उन पर पुणे में 1934 में बम से योजनाबद्ध हमला हुआ।
कराची में उसी साल उन पर एक उन्मादी ने फरसे से हमला किया। महिला अधिकारों और स्वतंत्रता के पक्षधर गांधी मुसलमानों में जबरन बुर्के का खुलकर विरोध किए। कई धमकियां आर्इं। मई 1944 में जेल से छूटे गांधी स्वास्थ्य लाभ को पंचगनी पहुंचे तो कुछ युवकों ने उनके खिलाफ नारे लगाए और दो ने उन पर छुरे से हमला किया। गांधी के हत्यारे की उन युवकों में होने की गवाहियां भी हैं। साफ है मामला घृणा और वर्चस्व का था, क्योंकि तब तो पाकिस्तान और 55 करोड़ के भुगतान का मसला दूर-दूर तक नहीं था, जिसे उनके हत्यारों ने 1948 में नाराजगी का कारण बताया था। तथ्य यह है कि जनवरी 1948 में गांधी का दिल्ली अनशन उपवास दंगों को रोकने के लिए था और पाकिस्तान व 55 करोड़ भुगतान का कोई जिक्र भी वहां नहीं हुआ।
वह 55 करोड़ भी कोई पाकिस्तान को सहायता अनुदान नहीं था बल्कि अविभाजित भारत के रिजर्व बैंक में उसका बकाया हिस्सा था, जो संयुक्त रूप से संचालित था। 30 जनवरी 1948 को गांधी की हत्या के 10 दिन पहले भी सभास्थल पर बम से हमला हुआ था। ये हमले करने वाले नाराज भक्त नहीं षडयंत्रकारी, साम्राज्यवादी सांप्रदायिक ताकतों के प्यादे थे। इन सब की आंखों में सबको साथ लाने की ताकत रखने वाले गांधी खटक रहे थे।
ऐसी दरारों को भरने के लिए ही 1916 में तिलक ने मुस्लिम लीग से समझौता किया था। ‘हिन्दु राष्ट्र’ और ‘निजामे मुस्तफा’ की मुहिम चलाने वाले अब खाईयां खोद रहे थे और साम्राज्यवादी ताकतें सहयोग कर रही थीं, मार्ले मण्टो, मोन्टेग्यू चेम्सफोर्ड सुधार, कम्युनल ऐवार्ड जैसे विभाजनकारी कदमों से। सावरकर रिहाई के बाद से ही पृथक हिंदू मुस्लिम राष्ट्र की पैरवी कर रहे थे। सुभाष भगत के शुभचिंतक रहे और खिलाफत आंदोलन तक का कभी विरोध करने वाले जिन्ना भी अब सुर बदलकर कई सालों से पृथक मुस्लिम राष्ट्र की खुली मांग करे थे। संयुक्त अंतरिम सरकार में नेहरू पटेल को जिन्ना और लीग के साथ काम करना असंभव हो रहा था। हिंदू मुस्लिम सांप्रदायिक संगठन देश में आग लगा रहे थे, जहर फैला रहे थे।
गांधी अलग-थलग और अकेले पड़ रहे थे। कांग्रेस की कार्य समिति की बैठक में मौजूद रहे गांधी समर्थक, लोहिया और जयप्रकाश जी के लिखे को माने तो वहां विभाजन के खिलाफ गांधी और बादशाह खान के अलावा कोई नहीं बोला। सब लंबे गृह युद्ध से बचने के लिए विभाजन का मन बना चुके थे। विभाजन को अंग्रेजों की विदाई के बाद तक टालने का गांधी जी का प्रस्ताव भी किसी पक्ष ने नहीं माना। नोआखाली में हिंदुओं के कत्लेआम बचाने को आग बुझा रहे गांधी तो विभाजन का विस्तृत दस्तावेज तक न देख पाए।