प्रयागराज में जारी महाकुंभ के दौरान केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (सीपीसीबी) की एक रिपोर्ट ने एक गंभीर समस्या की ओर संकेत किया है। रिपोर्ट के अनुसार, संगम का पानी नहाने योग्य भी नहीं है, क्योंकि इसमें फेकल कोलीफॉर्म का स्तर स्नान के लिए निर्धारित प्राथमिक जल गुणवत्ता मानकों को पार कर चुका है। यह समस्या केवल धार्मिक आस्था से जुड़ी नहीं है, बल्कि सार्वजनिक स्वास्थ्य के लिए भी खतरा बन सकती है। इस स्थिति ने सरकार और समाज को जल प्रदूषण की गहराती समस्या पर पुनर्विचार करने के लिए बाध्य कर दिया है। गंगा और जमुना भारत की जीवनदायिनी नदियां हैं, जो करोड़ों लोगों की आस्था और जीविका का स्रोत हैं। किंतु बढ़ते औद्योगिक कचरे, सीवेज और धार्मिक अनुष्ठानों के अवशेषों ने इन नदियों को गंभीर रूप से प्रदूषित कर दिया है। महाकुंभ जैसे विशाल आयोजनों के दौरान यह समस्या और विकराल हो जाती है। लाखों श्रद्धालु गंगा स्नान के लिए आते हैं, जिससे नदी में गंदगी और मानवजनित कचरा बढ़ जाता है। इसके अलावा, कई अस्थायी शौचालयों से निकलने वाला कचरा और साबुन, तेल आदि का उपयोग भी जल की गुणवत्ता को प्रभावित करता है।
औद्योगिक इकाइयों से निकलने वाला विषाक्त अपशिष्ट, कृषि में प्रयुक्त कीटनाशक और नगरीय मल-जल सीधे नदियों में बहा दिए जाते हैं, जिससे पानी की गुणवत्ता लगातार गिर रही है। प्रयागराज में कुंभ के दौरान विशेष व्यवस्थाएं की जाती हैं, लेकिन फिर भी सीपीसीबी की रिपोर्ट बताती है कि इन प्रयासों के बावजूद जल में हानिकारक तत्वों का स्तर नियंत्रण में नहीं आ रहा है। फेकल कोलीफॉर्म वे बैक्टीरिया होते हैं जो मानवीय या पशु मल से उत्पन्न होते हैं। यदि किसी जल स्रोत में इनकी मात्रा अधिक हो, तो यह संकेत होता है कि पानी मानव स्वास्थ्य के लिए असुरक्षित हो सकता है। पीने या नहाने के लिए ऐसे पानी का उपयोग करने से जलजनित बीमारियाँ फैलने की आशंका बढ़ जाती है। गंगा-जमुना के जल में इन बैक्टीरिया की अधिकता से यह स्पष्ट होता है कि नदी में मल-जल का प्रवाह हो रहा है और यह समस्या केवल महाकुंभ तक सीमित नहीं है, बल्कि यह वर्षों से बढ़ती जा रही है।
महाकुंभ जैसे धार्मिक आयोजन लाखों श्रद्धालुओं को आकर्षित करते हैं। श्रद्धालु स्नान, पूजा-अर्चना और विभिन्न अनुष्ठानों के लिए गंगा-जमुना के किनारे आते हैं, जिससे नदी में फूल, नारियल, राख, कपड़े आदि फेंके जाते हैं। इसके अतिरिक्त, अस्थायी शिविरों में बनाए गए शौचालयों और स्नानघरों से निकलने वाला कचरा भी जल में घुल जाता है। अतीत में भी कुंभ जैसे आयोजनों के दौरान जल प्रदूषण का मुद्दा उठाया गया है। सरकार हर बार सफाई अभियान चलाती है, लेकिन कुछ समय बाद स्थिति फिर से जस की तस हो जाती है। इससे स्पष्ट है कि केवल अस्थायी उपायों से इस समस्या का समाधान संभव नहीं है। सरकार ने गंगा सफाई के लिए कई योजनाएं चलाई हैं, जिनमें नमामि गंगे प्रमुख है। इस योजना के तहत विभिन्न शहरों में सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट लगाए गए हैं और औद्योगिक इकाइयों को अपने अपशिष्ट जल के उचित प्रबंधन के निर्देश दिए गए हैं। लेकिन रिपोर्टों से यह स्पष्ट होता है कि अब तक इन उपायों से जल की गुणवत्ता में अपेक्षित सुधार नहीं हुआ है।
महाकुंभ के दौरान प्रशासन ने विशेष सफाई अभियानों की घोषणा की, लेकिन जमीनी हकीकत यह है कि श्रद्धालुओं की भारी भीड़ और अस्थायी व्यवस्थाओं के कारण प्रदूषण नियंत्रण एक बड़ी चुनौती बना हुआ है। नदी में गिरने वाले कचरे को पूरी तरह रोक पाना मुश्किल हो रहा है, क्योंकि श्रद्धालुओं की आस्था और उनकी धार्मिक परंपराएँ इसमें बाधक बनती हैं। गंगा-जमुना के जल को स्वच्छ बनाए रखने के लिए केवल सरकारी प्रयास पर्याप्त नहीं हैं, बल्कि समाज की सहभागिता भी अनिवार्य है। सबसे पहले, श्रद्धालुओं को जागरूक करने की आवश्यकता है कि वे धार्मिक अनुष्ठानों के अवशेष नदियों में न डालें। औद्योगिक इकाइयों को भी कठोरता से नियमों का पालन करने के लिए बाध्य करना होगा, ताकि वे बिना शुद्धिकरण के कचरा नदी में प्रवाहित न करें। सीवेज ट्रीटमेंट प्लांटों की संख्या और क्षमता को बढ़ाने की आवश्यकता है, ताकि शहरों से निकलने वाला मल-जल सीधे नदी में न गिरे। इसके अतिरिक्त, महाकुंभ जैसे आयोजनों के दौरान अस्थायी व्यवस्थाओं को और अधिक मजबूत बनाया जाना चाहिए, ताकि कचरे के उचित निपटान की व्यवस्था हो सके। इसके अलावा, जल गुणवत्ता की लगातार निगरानी की जानी चाहिए और आम जनता को इसकी जानकारी दी जानी चाहिए। यदि लोग यह समझेंगे कि जल प्रदूषण उनके स्वास्थ्य के लिए कितना हानिकारक हो सकता है, तो वे भी इस समस्या को हल करने में अपना योगदान देंगे।
गंगा और जमुना केवल नदियां नहीं हैं, बल्कि भारतीय संस्कृति और आस्था की प्रतीक भी हैं। यदि इनका जल दूषित होता है, तो यह केवल धार्मिक भावना को ठेस नहीं पहुंचाता, बल्कि लाखों लोगों के स्वास्थ्य और पर्यावरण के लिए भी खतरा बनता है। महाकुंभ के दौरान प्रदूषण की समस्या और अधिक गहरी हो जाती है, इसलिए सरकार और समाज को मिलकर इसे हल करने के लिए ठोस कदम उठाने होंगे। केवल नीतियां बनाने और सफाई अभियानों के नाम पर प्रचार करने से समस्या हल नहीं होगी, बल्कि जमीनी स्तर पर वास्तविक प्रयास करने होंगे। श्रद्धालुओं, प्रशासन और उद्योगों की साझा जिम्मेदारी से ही गंगा-जमुना की पवित्रता को बचाया जा सकता है और आने वाली पीढ़ियों को स्वच्छ जल का उपहार दिया जा सकता है।