मंजु भारद्वाज
संत स्वामी तुलसीदास की यह पंक्ति कि ‘दुष्ट संग न देई विधाता’ यह खबर देती है कि दुष्ट व्यक्ति ऐसे होते हैं जिनसे प्रभु ही रक्षा कर सकते हैं। दुष्टता एक ऐसी भयानक ज्वाला है कि वह जहां होगी, वहां कोई पेड़ पौधा हरा नहीं हो सकेगा। जिस तरह जंगल में आग लग जाने से, हजारों हजार हरे भरे वृक्ष जल कर राख हो जाते हैं, ठीक वैसे ही जिस घर में, जिस परिवार में, जिस समाज में, दुष्ट जन होगा, वहां वहां सुख नहीं होगा, शांति नहीं होगी। आज, गृह कलह कलेश की वारदातों की खबरें, समाचार-पत्रों में छपती रहती हैं। ये खबरें हमें खबरदार करती हैं कि दुष्टों से बचें।
जो दुष्ट होते हैं, वे दयाहीन होते हैं। दयाहीनता ही दानवता को जन्म देती है। दयाहीन व्यक्ति कर्तव्य को नहीं जानता। दयाहीन व्यक्ति किसी मयार्दा को नहीं मानता। दुष्ट व्यक्ति मयार्दा विहीन होता है। फिर वह किसी रिश्ते को नहीं मानता। बेटा बाप को घर से निकालता है। माता-पिता आज वृद्ध आश्रम में रहने लगे हैं। यह बेटे-बहू की दुष्टता का उदाहरण हैं। जिस व्यक्ति में प्रेम न हो, वह व्यक्ति सूखी नदी के समान है। जिस नदी में पानी नहीं, वह नदी नहीं कहलाती। प्रेम विहीन व्यक्ति दयावान नहीं हो सकता। प्रेम विहीन व्यक्ति के ।दय में सत्य, अहिंसा, सहानुभूति, करूणा, सहयोग,सदभावना आदि मानवीय गुण नहीं हो सकते क्योंकि दुष्टता की आग, चिता के समान होती है जिसमें मनुष्य के सारे मानवीय गुण भस्म हो जाते हैं।
किसी काम में भूल करना स्वाभाविक होता है। भूल करने वाला व्यक्ति ‘पश्चाताप’ करता है। क्षमा मांग लेता है। भूल करना स्वाभाविक होता है मगर यह मनुष्य का स्वभाव नहीं है लेकिन ‘दुष्टता’ जिसकी प्रकृति बन जाती है, स्वभाव बन जाता है, उनके परिवारों को देखिये। पति पत्नी, बाप-बेटा, सास ससुर की दुर्दशाएं देखने को मिलेगी। इसलिए कबीर कहते हैं- ‘तेरा दया धर्म न तन में मुखड़ा क्या देखो दर्पण में’, ‘ब्यूटी पार्लर’ ऊपरी सौंदर्य को निखार भले ही कर दे मगर आदर में ‘दुष्टता’ की जो चिता जलती है, उसके धुएं से मुंह काला हो जाता है। ‘दयावान’ व्यक्ति भले ही देखने में सुंदर न हो मगर उसकी ‘दयालुता’ उसको सौंदर्यवान बना देती है।