Wednesday, July 3, 2024
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गुटबंदी की गिरफ्त में गांव

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KRISHNA PRATAP SINGH 1अवध के जनकवि अदम गोंडवी ने कभी ग्राम पंचायतों पर अवांछनीय तत्वों के बढ़ते अलोकतांत्रिक कब्जों से खिन्न होकर लिखा था, जितने हरामखोर थे कुर्बो जवार में, परधान बनके आ गए अगली कतार में। दीवार फांदने का था जिनका कभी रिकार्ड, वे संतरी बने हैं, उमर के उतार में। अब अदम हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन प्रदेश में हो रहे त्रिस्तरीय पंचायतों के चुनाव के संदर्भ में उनकी ये पंक्तियां बरबस और बारम्बार याद आ रही हैं। कारण यह कि उनके वक्त परधान बनके अगली कतार में आए महानुभावों ने सच्चे पंचायती राज को हजम करने के लिए जिन बीमारियों का ह्यअनुसंधानह्ण किया था, उनकी नई पीढ़ी ने उनको महामारियों में बदल डाला है। इसलिए तब जो कदाचार था, वह आज सदाचार बनता दिख रहा है ओर जिसे हम बेमौसम कहा करते थे, वह सदाबहार या कि मौसम बन चला है। इस कारण 24 अप्रैल, 1993 को समूचे देश में पंचायती राज व्यवस्था लागू करते हुए महात्मा गांधी के ग्राम स्वराज की परिकल्पना को धरती पर उतार देने का दावा किया गया था, वह थोथा दावा ही रह गया है।
हां, अभी जो हालात हैं, उनमें ‘परधान बनके’ के बजाय ‘परधान बनने’ कहने का मन होता है।

अभी इन चुनावों का पहला चरण ही चल रहा है, लेकिन परधान, और परधान ही क्यों, पंच, क्षेत्र पंचायत व जिला पंचायत सदस्य बनने के इच्छुक महानुभावों तक के हर हाल में जीतने और लाभ उठाने के अनैतिक मन्सूबों के कारण सारा का सारा ग्राम्यांचल साम दाम दंड और भेद का अखाड़ा-सा बन गया लगता है। चुनावी राजनीति के कारण गांव ऐसी गुटबंदी की गिरफ्त में हैं कि अच्छे से अच्छे पड़ोसियों के बीच भी सिरफुटौवल की नौबत है और मनमुटाव स्थायीभाव-सा बन गया है। कहीं लाठियां चटक रही हैं और कहीं बंदूकों से धांय-धांय हो रही है।

हिंसक वारदातों के कारण जहां पुलिस का सिरदर्द और कमाई दोनों बढ़ी हुई हैं, वहीं वोट पटाने के लिए वोटरों के साथ पीने या उन्हें पिलाने की पार्टियों में जहरीली शराब से जानें जाने की खबरें भी आ रही हैं। जानकारों का कहना है कि इन पार्टियों में जो जहर लोगों के सिर चढ़कर बोल रहा है, वह शराब का कम और चुनाव का ज्यादा है। इस नशे के सुरूर में दूर-देश गए स्वजनों व परिजनों को हर्जा खर्चा देकर भी बरबस वोट देने को बुलाया जा रहा है, जो नहीं आ पा रहे, उनके भी वोट डलवाने का जुगाड़ भिड़ाया और इसके बावजूद कुछ वोट कम पड़ें तो खरीदने का प्लान बनाया जा रहा है।

सोचिये जरा, एक समय पंचायतों को लोकतंत्र की प्राथमिक प्रशिक्षण स्थलियां या इकाइयां माना जाता था। उनसे निकले कई नेता धीरे-धीरे अपनी क्षमताओं के अनुसार प्रदेश या राष्ट्रीय नेतृत्व में भी भूमिका निभाने का अवसर पाते थे। कथाकार प्रेमचंद का तो ग्रामपंचायतों की शुचिता व पवित्रता में इतना विश्वास था कि उन्होंने अपनी एक बहुचर्चित कहानी में पंचों में परमेश्वर की कल्पना तक कर डाली थी। लेकिन आज पंचायतों की धरती इस कदर अपनी धुरी पर पूरे 360 अंश घूम गई है कि लगता है।

इस प्राथमिक प्रशिक्षण इकाई से लेकर देश के लोकतंत्र के शीर्ष संस्थानों तक पूरे कुएं में भांग पड़ी हुई है। यह स्थिति प्रकारान्तर से जो पिंड में वही ब्रह्मांड में वाली अवधारणा को सही सिद्ध कर रही और पंचायती राज को लेकर कल्पित अनेक आदर्शों को पलीता लगा रही है।

याद कीजिए, एक समय कहा जाता था कि पंचायतराज इसलिए सफल नहीं हो पा रहा कि निर्वाचित प्रतिनिधियों के पास पर्याप्त अधिकार नहीं हैं और उन पर नौकरशाहों का शिकंजा कुछ ज्यादा ही कसा व कड़ा है। लेकिन अब हालात थोड़े बदले हैं और गांवों की योजनाओं में निर्वाचित प्रतिनिधियों को निर्णायक बनाया गया है, यहां तक कि साल 1991 हुए 73वें संविधान संशोधन के तहत पंचायती राज संस्थाओं को संवैधानिक मान्यता भी दी गई है, साथ ही उनको आर्थिक विकास व सामाजिक न्याय के लिए योजनाएं तैयार करने, उनका निष्पादन करने, कर, शुल्क आदि लगाने और वसूलने की शक्तियां व अधिकार भी दिए गए हैं, तो उनके निर्वाचित प्रतिनिधि पतनशील प्रवृत्तियों के मामलों में खुद को नौकरशाहों से कमतर नहीं सिद्ध कर रहे।

इस कारण अब कई लोग कहते हैं कि आंवा का आंवा ही खराब हो चला है। सोशल व डिजिटल मीडिया पर ‘अबकी जीति कै टक्टर लई लेबै परधानी मां’ जैसे जो गीत बज रहे हैं, वे भी इसी बात की गवाही दे रहे हैं। जो महत्वाकांक्षी अभिजन पंचायतों के प्रतिनिधि बनने की लाइन में हैं, उनमें से ज्यादातर की कामना इसी ‘जीति कै टक्टर लई लेबै’ वाली राह पर चलकर अपना घर भरने या पक्का कराने की है। उनमें से कोई भी अपने सामंती प्रभुत्व और घर की जगर-मगर से समझौता करने को तैयार नहीं है।

इस सवाल का पीछा करें कि ऐसा क्यों है, तो जवाब के लिए संविधान निमार्ता बाबासाहब डॉ. भीमराव अंबेडकर के पास जाना पड़ेगा, जिन्होंने देश में संविधान लागू होने के बाद कहा था कि आज से हम अंतर्विरोधों के नये युग में प्रविष्ट हो रहे हैं। इसमें राजनीति में हमारे पास समानता होगी, जबकि सामाजिक व आर्थिक जीवन में हमारी असमानता की राह जस की तस होगी। उन्होंने चेताया था कि अगर जल्दी ही हमने सामाजिक व आर्थिक जीवन की असमानताओं वाली राह छोड़कर समानता की प्रतिष्ठा नहीं कीं तो यह अंतर्विरोध हमारी राजनीतिक समानता की राह पर भी भारी पड़ने लगेगा।

लेकिन, हमने उनकी चेतावनी नहीं सुनी और जल्दी तो कौन कहे, संविधान लागू होने के सात दशकों बाद भी, सामाजिक व आर्थिक असमानताओं का उन्मूलन नहीं किया। उलटे कई मामलों में उन्हें इस कदर बढ़ाते रहे कि अब वे हमारे समूचे लोकतंत्र को हजम कर जाने पर आमादा हैं। उनकी करतूतों द्वारा गर्हित उद्देश्यों से जानबूझकर फैलाई गई निराशा उस चरम बिंदु पर जा पहुंची है कि कई लोग यहां तक कहने लगे हैं कि हमारा लोकतंत्र अब किसी सार्थक परिवर्तन का उपकरण नहीं रह गया है क्योंकि उस पर ऐसे तत्वों ने कब्जा कर लिया है, जिनका खुद का लोकतंत्र में विश्वास नहीं है और जो उसे सत्ता की अनैतिक प्रतिस्पर्धा से बड़ा दर्जा देने को तैयार नहीं हैं।

अगर, ये हालात बदलने हैं, और बदले बगैर तो निजात मिलने वाली नहीं है, तो आज देश की स्वतंत्रता के अमृत महोत्सव पर हमें इन सारी स्थितियों का गंभीरतापूर्वक सिंहावलोकन करना और विडम्बनाओं के आमूलचूल भूलसुधार में लगना होगा। क्या हम लग पाएंगे? जवाब इस पर निर्भर करता है कि हमारे बीच ऐसे कितने लोग हैं, जो गहराती निराशा के भंवर से निकलकर बिल्ली के गले में घंटी बांध और परिवर्तन के व्यापक सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक व आर्थिक आंदोलनों का मार्ग प्रशस्त कर सकते हैं?


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