रोहित कौशिक |
मुजफ्फरनगर के वरिष्ठ साहित्यकार हरपाल सिंह ‘अरुष’ का 30 मार्च को निधन हो गया। हालांकि कोई भी साहित्यकार जिस जगह निवास करता है, सिर्फ उसी जगह का नहीं होता। अपनी रचनाओें के माध्यम से वह भौगोलिक सीमाओं को पार कर पूरे देश का हो जाता है। अपनी रचनाओं के माध्यम से अरुष जी भी पूरे देश में सम्माानित और प्रतिष्ठित हुए। अरुष जी कई साल से बीमार चल रहे थे लेकिन अपनी जीवटता के चलते वे हमेशा आशावान रहते थे।
मैंने उन्हें कभी भी निराश नहीं देखा। जिस कैंसर जैसी घातक बीमारी से वे जूझ रहे थे, उसका नतीजा हम सभी को मालूम था। उनसे अक्सर मुलाकात होती रहती थी लेकिन एक महीने पहले जब मनु स्वामी जी ने फेसबुक पर अरुष जी के साथ अपना फोटो साझा किया तो उनसे पुन: मिलने की इच्छा हुई। डॉ. बीएस त्यागी के साथ जब मैं उनसे मिलने गया तो वे लगभग बेहोशी की हालत में थे।
जब उनके सहायक ने उन्हें बताया कि रोहित जी और त्यागी जी आपसे मिलने आएं हैं तो उन्होंने बहुत धीमी आवाज में अपने सहायक को मेरे बारे में कई जानकारियां दे दीं। इस हालत में भी उनकी चेतना और जज्बा देखकर मैं आश्चर्यचकित रह गया। मनु स्वामी, परमेन्द्र सिंह और मुझे उनका विशेष स्नेह प्राप्त हुआ।
हरपाल सिंह ‘अरुष’ का जन्म 10 जुलाई, 1947 को बागपत जनपद के लूम्ब गांव में हुआ था। उनकी प्रकाशित किताबों में 14 कविता संगह, 8 कहानी संकलन, 12 उपन्यास, दलित साहित्य पर आलोचना की दो पुस्तकें, 4 संपादित पुस्तकें तथा अंग्रेजी में अनूदित कविताओं की एक पुस्तक शामिल हैं। उनकी कहानियों का उर्दू, मलयालम व गुजराती में तथा कविताओं का मराठी और अंग्रेजी में अनुवाद प्रकाशित हुआ। जहां एक ओर उनके साहित्य पर देश के विभिन्न विश्वविद्यालयों में शोध कार्य सम्पन्न हुआ वहीं दूसरी ओर उन्होंने कई विश्वविद्यालयों में विभिन्न विषयों पर व्याख्यान भी दिए। एक बार जब मैंने उनसे पूछा था कि दलित साहित्य से उनके लगाव का क्या कारण है? तो उन्होंने कहा था कि जातिगत संघर्ष को छोड़कर गांव में छोटे किसानों का संघर्ष भी दलितों के संघर्ष से अलग नहीं है।
यह बात सही है कि छोटे किसान भी दलितों से पूर्वाग्रह रखते हैं। मैंने गांव में जहां एक ओर छोटे किसानों का संघर्ष देखा है वहीं दूसरी ओर दलितों का संघर्ष भी देखा है। यही कारण है कि मैं दलितों और दलित साहित्य से लगाव रखता हूं।
हरपाल सिंह ‘अरुष’एक सिद्धहस्त कथाकार थे। वे इस कठिन समय के सामाजिक यथार्थ पर पैनी नजर रखते थे। उनकी कहानियों में एक तरफ किसान और मजदूर की समस्याएं हैं तो दूसरी तरफ कस्बाई और शहरी मध्यम वर्ग की परेशानियां भी मौजूद हैं। अरुष जी अपनी कहानियों के जरिए मनुष्यता के चेहरे पर लगे मुखौटों को बखूबी उतारते थे। उनकी भाषा में भी विविधता दिखाई देती हैं।
यथार्थवादी दृष्टिकोण उनकी कहानियों को सशक्त बनाता है, इसीलिए उनकी कहानियां खुद सवाल उठाती हैं। अरुष जी की एक कहानी है-‘मुहल्ला, गोबर और थाना’। यह कहानी लगभग हर मुहल्ले की कथा है। इस कहानी के पात्र ज्यादातर मुहल्लों में पाए जाते हैं। ऐसे पात्र बहुत आसानी से दूसरों की सीमा में प्रवेश कर एक नया महाभारत रचने में माहिर होते हैं। इस कहानी में एक तरफ हास्य और व्यंग्य विद्यमान है तो दूसरी तरफ पुलिस की परम्परावादी छवि पर प्रहार भी किया गया है।
अरुष जी ने विपुल मात्रा में लेखन किया लेकिन कभी भी रचना के स्तर से समझौता नहीं किया। वे सच्चे अर्थों में बहुआयामी रचनाकार थे। वे मानते थे कि कोई भी रचनाकर समकालीन संदर्भों से कटकर साहित्य में महत्वपूर्ण हस्तक्षेप नहीं कर सकता है।
इसलिए उन्होंने समकालीन साहित्य में बहुत ही सम्मान के साथ अपनी उपस्थिति दर्ज कराई। उनका मानना था कि केवल लिखना ही जरूरी नहीं है, महत्वपूर्ण यह है कि क्या लिख रहे हैं। यही कारण था रचनाकारों को उनकी कई बातें समझ में नहीं आर्इं। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में ऐसा कोई अन्य लेखक नहीं है, जिसने हरपाल सिंह ‘अरुष’ जैसा विपुल और स्तरीय लेखन किया हो। आदरणीय अरुष जी को भावभीनी श्रद्धांजलि।