Wednesday, May 7, 2025
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रबी फसलों में खरपतवार नियंत्रण के लिए शाकनाशी

KHETIBADI 1


हमारे देश में रबी अर्थात शीत ऋतु में मुख्य रूप से गेहूं, जौ, राई-सरसों, अलसी,चना, मटर,मसूर, गन्ना आदि फसलों की खेती की जाती है। फसलोत्पादन को प्रभावित करने वाले वातावरणीय कारकों यथा वर्षा जल, तापक्रम, आद्रता, प्रकाश आदि के अलावा जैविक कारकों जैसे कीट, रोग व खरपतवार प्रकोप से फसल उपज का बड़ा हिस्सा बर्बाद हो जाता है। इन सभी फसल नाशकों में से खरपतवारों द्वारा फसल को सर्वाधिक नुकसान होता है।

खरपतवारों के प्रकोप से दलहनी फसलों में 75 से 90 प्रतिशत, तिलहन फसलों में 25 से 35 प्रतिशत तथा गेहूं व जौ आदि खाद्यान्न फसलों में 10 से 60 प्रतिशत तक पैदावार घट जाती है। सही समय पर खरपतवार नियंत्रित कर लिया जावे तो हमारे खाद्यान्न के लगभग एक तिहाई हिस्से को नष्ट होने से बचा कर देश की खाद्यान्न सुरक्षा को अधिक मजबूत किया जा सकता है। खेत में खरपतवार फसल के साथ पोषक तत्वों, हवा, पानी और प्रकाश के लिए प्रतिस्पर्धा करते है जिससे फसल उपज की मात्रा एवं गुणवत्ता में गिरावट हो जाती है।

प्रभावशाली ढ़ंग से खरपतवार नियंत्रण के लिए हमें खरपतवारों का ज्ञान होना अति आवश्यक है। रबी फसलों के साथ उगने वाले प्रमुख खरपतवारों को तीन वर्गों में विभाजित किया गया है

चौड़ी पत्ती वाले खरपतवार

बथुआ (चिनोपोडियम एल्बम), कृष्णनील (एनागेलिस आरवेंसिस), जंगली पालक (रूमेक्स डेन्टाटस), हिरनखुरी(कन्वावुलस आर्वेंसिस), सफेद सेंजी (मेलीलोटस एल्बा), पीली सेंजी (मेलीलोटस इंडिका) जंगली रिजका (मेडीकागो डेन्टीकुलाटा), अकरा-अकरी (विसिया प्रजाति), जंगली गाजर (फ्यूमेरिया पारविफ़्लोरा), चटरी-मटरी (लेथाइरस अफाका),सत्यानाशी (आरजीमोन मेक्सिकाना) आदि।

संकरी पत्तीवाले खरपतवार

  • गेहूंसा या गुल्ली डण्डा (फेलेरिस माइनर), जंगली जई (एवीना फतुआ), दूबघास(साइनोडान डेक्टीलोन)आदि।

  • मोथा कुल के खरपतवार

  • मौथ (साइप्रस प्रजाति ) आदि।

बेहतर उपज के लिए सही समय पर खरपतवारों का नियंत्रण

रबी फसलों से प्रति इकाई अधिकतम उत्पादन प्राप्त करने के लिए इन फसलों की बुआई से लेकर प्रारंभिक 25-30 दिन तक की अवस्था तक खेत को खरपतवार मुक्त रखना आवश्यक रहता है। फसल की बुवाई से लेकर फसल कटाई तक खेत में खरपतवार नियंत्रण की विधियाँ अपनाना आर्थिक दृष्टि से लाभदायक नहीं माना जा सकता है। इसलिए फसल-खरपतवार प्रतिस्पर्धा की क्रान्तिक अवस्था में (सारणी-1 के अनुसार) खरपतवार नियंत्रण अति आवश्यक है, अन्यथा फसल उत्पादन में भारी क्षति होने की सम्भावना रहती है।

खरपतावार नियंत्रण के प्रमुख उपाय

खरपतवार प्रबन्धन के अंतर्गत खरपतवारों का निरोधन, उन्मूलन तथा नियंत्रण सम्मिलित होता है। खरपतवार नियंत्रण की सीमा में खरपतवारों की वृद्धि रोकना, खरपतवार तथा फसलों के बीच प्रतिस्पर्धा को घटाना, खरपतवार का बीज बनने से रोकना तथा बीजों तथा अन्य वानस्पतिक भागों का प्रसरण रोकने के अलावा खरपतवारों का सम्पूर्ण विनाश आता है जो खरपतवार प्रबन्ध का मुख्य उद्देश्य है। खरपतवार प्रबन्धन के अन्तर्गत निरोधी एवं चिकित्सकीय विधियां आती है। चिकित्सकीय विधि के अंतर्गत उन्मूलन तथा नियंत्रण सम्मिलित होता है।

परंपरागत रूप से खरपतवार नियंत्रण के लिए निंदाई, गुड़ाई ही कारगर विधि मानी जाती थी। परन्तु प्रतिकूल मौसम जैसे लगातार वर्षा अथवा मजदूर न मिलने के कारण यांत्रिक या सस्यविधियों से खरपतवार नियंत्रण कठिन होता जा रहा है। इन विषम परिस्थितियों में सीमित लागत तथा कम समय में अधिक क्षेत्रफल में फसल के इन दुश्मनों पर नियंत्रण पाने के लिए रासायनिक विधियाँ कारगर साबित हो रही है। शाकनाशियों के प्रयोग से खरपतवार उगते ही नष्ट हो जाते है जिससे उनकी पुर्नवृद्धि, फूल व बीज विकास रूक जाता है। शाकनाशियों को पमुख तीन वर्गों में बांटा गया है अथवा शाकनाशियों को तीन तरह से उपयोग कर सकते है।

बुवाई से पूर्व प्रयुक्त शाकनाशक

इस प्रकार के शाकनाशक बुवाई के पूर्व खेत की अंतिम जुताई के समय छिड़काव कर मृदा में मिला दिये जाते है जिससे खरपतवार उगने से पूर्व ही समाप्त हो जाते है अथवा उगने पर नश्ट हो जाते है। ये शाकनाषक उड़नषील प्रकृति के होते है। अत: छिड़काव के साथ या तुरन्त पश्चात इन्हें भूमि में मिलाना आवष्यक रहता है, अन्यथा इनका प्रभाव कम हो जाता है। उदाहरण के लिए फ्लूक्लोरेलिन, ट्राईफ्लूरेलीन आदि।

अंकुरण पूर्व एवं बुवाई पश्चात प्रयुक्त शाकनाशक

इस प्रकार के शाकनाशकों बुवाई के तुरन्त पश्चात (24-36 घण्टे तक) एवं अंकुरण से पूर्व पप्रयोग में लाये जाते है। चूंकि ज्यादातर खरपतवार फसल उगने से पहले उग जाते है। अत: ये शाकनाषक उगते हुए खरपतवारों को नष्ट कर देते है तथा अन्य खरपतवारों को उगने से रोकते है। ये चयनित प्रकार के शाकनाशक होते है अर्थात फसल को क्षति नहीं पहुंचाते है। इनका प्रयोग करते समय भूमि में नमीं रहना अतिआवश्यक है अन्यथा इनकी क्रियाशीलता कम हो जाती है। उदाहरण के लिए एट्राजीन, एलाक्लोर, पेन्डीमेथालीन आदि।

अंकुरण पश्चात खड़ी फसल में प्रयुक्त शाकनाशक

इस प्रकार के शाकनाषक फसल उगने के पश्चात खड़ी फसल में छिड़के जाते है। ये चुनिंदा (वरणात्मक) प्रकार के शाकनाषक होते है, जो कि खरपतवारों को विभिन्न रासायनिक क्रियाओं द्वारा नष्ट करते है तथा फसल को नुकसान नहीं पहुँचाते है। अनेक बार अन्य फसलों की बुवाई में व्यस्तता, लगातार वर्षा होने या अन्य किसी वजह से बुवाई पूर्व (पीपीआई) या अंकुरण पूर्व (पीई) शाकनाशकों का प्रयोग नहीं संभव हो सके तो बुवाई पश्चात खड़ी फसल में शाकनाशकों का प्रयोग किया जा सकता है।

खड़ी फसल में इनका प्रयोग करते समय थोड़ी सावधानियां रखना आवश्यक रहता है, जैसे विशिष्ट खरपतवारों के लिए संस्तुत उचित शाकनाषक की सही मात्रा का उचित समय एवं सही विधि द्वारा छिड़काव करना चाहिए अन्यथा फसल पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकता है। खड़ी फसल में इनका प्रयोग करते समय चिपकने वाला पदार्थ (सर्फेक्टेन्ट) जैसे साबुन, शैम्पू, सैंडोविट आदि 0,5 प्रतिशत (500 मिली प्रति हैक्टर) को मिलाकर छिड़काव करने से ये पदार्थ खरपतवारों की संपूर्ण पत्तियों पर फैलकर चिपक जाते है एवं उनकी क्रियाशीलता को बढ़ाते है।

ध्यान रखे कि स्प्रेयर की टंकी में पहले शाकनाषक मिलाये तथा बाद में सर्फेक्टेन्ट को डाल कर छिड़काव करें। जैसे 2,4-डी, मेटसल्फूरोन मिथाइल, सल्फोसल्फुरान, क्यूजालोफ्प इथाईल, क्लोडिनोफाप आदि फसल विशेष खरपतवारनाशक है।

शाकनाशियों के छिड़काव के समय विशेष सावधानियां

कम मात्रा में प्रयोग से खरपतवारों पर ये कम प्रभावी तथा अधिक मात्रा होने पर फसल पर विपरीत प्रभाव पड़ने की संभावना रहती है। फसलों में प्रयोग हेतु संस्तुत वर्णात्मक शाकनाशियों का ही प्रयोग करना चाहिए बुवाई से पूर्व तथा खरपतवार बीज अंकुरण से पहले प्रयोग किये जाने वाले शाकनाशी की क्रियाशीलता के लिए पर्याप्त नमी का होना अति आवश्यक होता है। छिड़काव करते समय यह ध्यान देना चाहिए कि शाकनाशीय घोल का समान रूप से खेत में वितरण हो जिससे सम्पूर्ण खरपतवारों पर नियंत्रण हो सकें।


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