आखिर लोकतंत्र में ‘तंत्र’ पर ‘लोक’ की विजय हुई। चुनाव परिणाम वाले दिन सुबह मैंने कहा था कि अगर बीजेपी को उसके पिछले आंकड़े यानी 303 से एक सीट भी कम आती है तो उसे सरकार की हार माना जाएगा। अगर सत्ताधारी पार्टी बहुमत के आंकड़े, यानी 272 से कम पर रुक जाती है तो इसे बीजेपी की राजनैतिक हार समझना चाहिए और अगर बीजेपी का आंकड़ा 250 से नीचे गिर जाता है तो इसे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की व्यक्तिगत हार समझना होगा। अंतत: बीजेपी महज 240 पर अटक गयी। इसमें कोई शक की गुंजाइश नहीं कि चुनाव का परिणाम पिछली सरकार के विरुद्ध अविश्वास प्रस्ताव है, बीजेपी के लिए राजनैतिक और नरेंद्र मोदी के लिए व्यक्तिगत पराजय है। हाल के आम चुनाव में एक तरफ, जहां किसी पार्टी को बहुमत नहीं मिला है, वहीं दूसरी तरफ, दो दशक से सत्ता पर सवारी गांठ रही भाजपा की निरंकुशता को आईना दिखा है। ऐसे में हमारे लोकतंत्र का भविष्य क्या होगा? बेशक, बीजेपी को प्राप्त वोटों में केवल एक फीसदी की कमी हुई है और उसने तटीय प्रदेशों, खासतौर पर ओड़िशा, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना और केरल में उल्लेखनीय सफलता प्राप्त की है, लेकिन इस चुनाव के परिणामों को केवल आंकड़ों से नहीं समझा जा सकता है। यह कोई समतल मैदान पर दो टीमों से बीच हुई चुनावी दौड़ नहीं थी। अगर सत्ताधारी दल एथलीट वाले आरामदायक जूते पहन स्टेडियम में दौड़ रहा था तो विपक्ष कंटीली झाड़ियों और पत्थरों को पार करते हुए पहाड़ चढ़ने को मजबूर था। अगर ऐसी विषम स्थिति में भी विपक्ष ने सत्ताधारियों से 63 सीटें छीन उसे बहुमत के आंकड़े के नीचे उतार दिया तो इसे लोकतंत्र का चमत्कार ही कहा जाएगा। पार्टियों से ज्यादा इसका श्रेय पब्लिक को जाता है।
इसमें कोई संदेह नहीं है कि भारत की जनता ने एक बार फिर सत्ता के अहंकार को चूर किया है, तानाशाही की तरफ बढ़ते हुए कदम एक बार तो ठिठके हैं। सवाल बस इतना है कि इस जनादेश से कहाँ और कितनी उम्मीद लगायी जाए। बेहतर होगा की हम अति उत्साह से परहेज करें। यह तो तय है कि इस चुनाव परिणाम ने लोकतांत्रिक सम्भावनाओं का द्वार खोल दिया है। दरवाजे में घुसने के बाद ‘लोक’ इस ‘तंत्र’ की चार बड़ी सीढ़ियों में कितनी पायदान पार कर पाएगा यह अभी से कहना मुश्किल है।
चौथी और सबसे ऊंची सीढ़ी सरकार की नीति की है जहां तक पहुंचने की उम्मीद सबसे कम है, लेकिन जिसके बारे में चर्चा सबसे अधिक है। हर कोई यह कयास लगा रहा है कि गठबंधन सहयोगियों पर निर्भरता के चलते प्रधानमंत्री की कार्यशैली में कुछ बदलाव होगा। प्रधानमंत्री द्वारा अपने शुरुआती भाषण में भी सवार्नुमति, सर्वपंथ समभाव और संविधान के प्रति आस्था जैसे शब्दों के इस्तेमाल से यह अटकलबाजी और तेज हुई है, पर मुझे इसका भरोसा नहीं है।
नरेंद्र मोदी को बैकफुट पर खेलने का अभ्यास नहीं है। उलटे यह संभव है कि कमजोर सरकार की छवि को तोड़ने के लिए प्रधानमंत्री कुछ आक्रामक कदम उठाएं। यूं भी चंद्रबाबू नायडू और नीतीश कुमार से वैचारिक प्रतिबद्धता या राजनीतिक साहस की उम्मीद करना ज्यादती है। हां, इतनी जरूर उम्मीद की जा रही है कि बीजेपी के सहयोगी दल संघीय ढांचे पर चोट करने वाले किसी फैसले या सीधे-सीधे अल्पसंख्यकों के अधिकार छीनने वाले किसी बड़े कदम पर ब्रेक लगा सकते हैं।
तीसरी सीढ़ी संस्थाओं की मर्यादा की है जहां दो सूत ज्यादा उम्मीद की जा सकती है। प्रशासन और ‘सीबीआई’ या ‘ईडी’ जैसी संस्थाओं में बेहतरी की उम्मीद करना व्यर्थ होगा, क्योंकि यह सब सीधे सरकार के अंगूठे तले दबे हैं। संवैधानिक स्वायत्तता प्राप्त संस्थाओं, जैसे ‘केंद्रीय सतर्कता आयोग,’ ‘सूचना आयोग’ और ‘चुनाव आयोग’ से उम्मीद की जा सकती है कि वे सरकार का पक्ष लेते हुए अब थोड़ी लोकलाज का ध्यान भी रखेंगे। न्यायपालिका से उम्मीद करनी चाहिए कि संविधान और कानून की धुंधली सी पड़ी इबारत कम-से-कम कुछ जजों को दिखने लगेगी।
यह आशा फलीभूत होती है या नहीं, इसका पता आगामी कुछ महीनों में नागरिकता कानून संशोधन, चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति को चुनौती और ‘इलेक्टोरल बॉण्ड’ घोटाले की न्यायिक जाँच जैसे मामलों में लग जाएगा। साथ ही यह उम्मीद भी करनी चाहिए कि इस चुनाव में बेशर्मी से बीजेपी के प्रवक्ता की भूमिका में खड़े होकर मुँह की खाने के बाद मुख्यधारा के मीडिया को भी कुछ नसीहत मिली होगी। इतनी उम्मीद तो नहीं है कि टीवी एंकर और अखबार सरकार की चाटुकारिता बंद कर देंगे, मगर कम-से-कम इतना तो संभव है कि मीडिया विपक्षी दलों, नेताओं और आंदोलनकारियों पर भेड़िए की तरह हमला करने में परहेज करेगा।
दूसरी सीढ़ी पर संसद का नंबर आता है जिसमें कुछ ज्यादा बदलाव होने की उम्मीद दिखती है। लोकसभा में संख्या का असंतुलन बहुत कम होने के बाद यह उम्मीद की जानी चाहिए कि संसद में बहस हुआ करेगी, कि बिना बहस आनन-फानन में कानून पास करवाने की रवायत पर रोक लगेगी, अगर संसद में बोलने नहीं दिया तो सांसद बाहर अपना गला खोलेंगे। यह उम्मीद भी की जा सकती है कि पिछले दस साल की तुलना में संसदीय विपक्ष ज्यादा प्रभावी तरीके से मुद्दे उठाएगा, वैकल्पिक प्रस्ताव पेश करेगा और आगामी विधानसभा चुनावों में बीजेपी को पटखनी देने का इंतजाम भी करेगा।
पहली और सबसे मजबूत पायदान पर नम्बर आता है सड़क का, जनांदोलन और प्रतिरोध का। पिछले दस साल में मोदी सरकार के विपक्ष की भूमिका संसद से ज्यादा सड़क पर निभाई गई है। बाकी कुछ हो-ना-हो, एक बात तय है इस चुनाव परिणाम से मोदी सरकार का इकबाल कम हुआ है, सरकार का खौफ और दबदबा घटा है। इसलिए यह तय है, चाहे किसान की बात हो या बेरोजगार युवा की, दलित समाज की चिंता हो या महिला की, आमजन के जीवन से जुड़े सरोकार को सड़क पर उठाने का सिलसिला पहले से और ज्यादा मजबूत होगा। अगर संसदीय विपक्ष और सड़क पर चल रहे प्रतिरोधों में जुगलबंदी हो जाए तो यह भी संभव है कि या तो सरकार को जनता के सामने झुकना पड़ेगा, या फिर पांच साल से पहले ही दुबारा जनता के दरबार में पेश होना पड़ेगा।