अमृतवाणी
बहुत पुराने समय की बात है, तब कबूतर झाड़ियों में अंडा देते थे और लोमड़ी आकर खा जाती थी। कोई रखवाली की व्यवस्था न होने पर कबूतर ने चिड़ियों से पूछा कि क्या किया जाए? तब चिड़ियों के सरदार ने कहा, ‘पेड़ पर ही घोंसला बनाना होगा।’ कबूतर ने घोंसला बनाया, परंतु ठीक से नहीं बन पाया। उसने चिड़ियों को मदद के लिए बुलाया। सभी मिलकर उसे व्यवस्थित घोंसला बनाना सिखा ही रही थीं, तभी कबूतर ने कहा, ‘ऐसा बनाना तो हमें भी आता है, हम बना लेंगे।’ चिड़ियाएं यह सुनकर चली गई।
कबूतर ने फिर कोशिश की, किंतु नहीं बना। कबूतर चिड़ियों के पास गया और उनसे अनुनय-विनय किया तो फिर चिड़ियाएं आई और तिनका लगाना बता ही रही थी और आधा काम पूरा हुआ भी नहीं था कि कबूतर फिर उछल कर बोला, ‘ऐसा तो हम भी जानते हैं।’ यह सुनकर चिड़ियाएं फिर चली गई। फिर कबूतरों ने बनाना शुरू किया, किंतु फिर घोंसला नहीं बना।
तब वह फिर चिड़ियों के पास गए, तो उन्होंने कहा, ‘कबूतर जी आप जानते हो कि जो कुछ नहीं जानता, वह यह मानता है कि मैं सब जानता हूं, ऐसे मूर्खों को कुछ सिखाया नहीं जा सकता’, ऐसा कहकर चिड़ियों ने उसके साथ जाने से मना कर दिया। जब से आज तक कबूतर ऐसे ही अव्यवस्थित घोंसले बनाते हैं। यही कबूतरों वाली कुछ पद्धति इंसानों में भी है, जो कुछ सीखने के बजाय आपनी बुद्धिमानी दिखाने मे ज्यादा भरोसा करते हैं। ऐसे लोग ‘मैं’ से ग्रस्त रहते हैं और कभी व्यवस्थित जीवन नहीं जी पाते हैं।