स्वामी रामकृष्ण परमहंस कर्क रोग से पीड़ित थे। वे कुछ खाते-पीते नहीं थे। स्वामी विवेकानंद जी अपने गुरु जी की हालत से बहुत चिंतित थे। एक दिन स्वामी रामकृष्ण परमहंस जी ने विवेकानंद को अपने पास बुलाया और बोले-नरेंद्र, तुझे वो दिन याद है, जब तू अपने घर से मेरे पास मंदिर में आता था? तूने दो-दो दिनों से कुछ नहीं खाया होता था।
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परंतु अपनी मां से झूठ कह देता था कि तूने अपने मित्र के घर खा लिया है, ताकि तेरी गरीब माँ थोड़े बहुत भोजन को तेरे छोटे भाई को परोस दें। हैं न? नरेंद्र ने रोते-रोते हां में सर हिला दिया। स्वामी रामकृष्ण परमहंस फिर बोले – यहां मेरे पास मंदिर आता, तो अपने चेहरे पर खुशी का मुखौटा पहन लेता।
परंतु मैं भी झट जान जाता कि तेरा शरीर क्षुधाग्रस्त है। फिर तुझे अपने हाथों से लड्डू, पेड़े, माखन-मिश्री खिलाता था। है ना? नरेंद्र ने सुबकते हुए गर्दन हिलाई। अब रामकृष्ण परमहंस फिर मुस्कुराए और प्रश्न पूछा-कैसे जान लेता था मैं यह बात? कभी सोचा है तूने? नरेंद्र सिर उठाकर परमहंस को देखने लगे।
तेरे भीतर में समाकर मैं हर बात जान लेता हूं। हर दु:ख दर्द पहचान लेता हूं। तेरी भूख का अहसास कर लेता हूं, तो क्या तेरी तृप्ति मुझ तक नहीं पहुंचती होगी? नरेंद्र-तृप्ति? परमहंस-हां तृप्ति! जब तू भोजन करता है और तुझे तृप्ति होती है, क्या वो मुझे तृप्त नहीं करती होगी ? अरे पगले, गुरु अंतर्यामी है, अंतर्जगत का स्वामी है। वह अपने शिष्यों के भीतर बैठा सबकुछ भोगता है। मैं एक नहीं हजारों मुखों से खाता हूं।
याद रखना, गुरु कोई बाहर स्थित एक देह भर नहीं है। वह तुम्हारे रोम-रोम का वासी है। तुम्हें पूरी तरह आत्मसात कर चुका है। अलगाव कहीं है ही नहीं। अगर कल को मेरी यह देह नहीं रही, तब भी जीऊंगा, तेरे माध्यम से जीऊंगा। मैं तुझमें रहूंगा।