Thursday, April 25, 2024
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कपड़े किसी महिला की पहचान नहीं

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NAZARIYA 2


SONAL LOVEVANSHIएक तरफ हम चांद और मंगल पर जीवन बसाने की संभावनाएं तलाश रहे हैं, तो वही दूसरी तरफ हमारे समाज का एक बड़ा तबका महिलाओं के ‘ड्रेसकोड’ में ही उलझा हुआ है। अब हम इक्कीसवीं सदी में भले पहुंच गए हों, लेकिन महिलाओं के कपड़ों को लेकर राजनीति आम हो चली है और हो भी क्यों न? आधुनिकता की दौड़ में हमारे संस्कारों की परिभाषा जो बदल गई है। ऐसे में सोचने वाली बात तो यह है कि क्या हमारी संस्कृति इतनी कमजोर है, जिसे अब कपडों से परिभाषित करना पड़ रहा है? क्या अब वस्त्र ही हमारे सभ्य और असभ्य होने की परिधि तय करेंगे? मान लीजिए किसी के पति या पिता की मौत हुई है, तो क्या पहले वह ड्रेस पर ध्यान केंद्रित करे उससे भी कोई जरूरी बात होती है। यह तो समाज को स्वयं तय करना चाहिए। बीते दिनों मंदिरा बेदी के पति का असमय निधन हो गया। जिसके बाद उन्हें ट्रोल किया जाने लगा कि उन्होंने ऐसे कपड़े क्यों पहने? अब सवाल यहीं क्या कोई महिला जिसके पति का निधन हुआ, वह पहले कपड़े पर ध्यान केंद्रित करे या फिर पति के जाने का गम मनाए?

यह काफी साधारण सी बात है कि कोई भी व्यक्ति पहले से तो ऐसे दु:खद समय के लिए तैयार नहीं रहता। फिर ऐसे अजीबोगरीब सवाल से किसी की आत्मा और हमारे संस्कारों को औछा आखिर क्यों साबित करना। जिस पर आज के दौर में हमारे समाज को बोलना चाहिए, उन विषयों पर तो हम येन-केन प्रकारेण चुप्पी साध लेते हैं और जिन विषयों पर नहीं बोलना, उन पर बेवजह बोलकर हम बात का बतंगड़ बनाते हैं।

मंदिरा बेदी को पति के निधन के बाद कैसे कपड़े पहनने चाहिए कैसे नहीं, यह कहने वालों को क्या उत्तरप्रदेश में हुई वह घटना याद नहीं आई, जब योगीराज में एक महिला प्रस्तावक के दामन को तार-तार करने वाली घटना घटित हुई? मतलब नजरिए की भी हद्द होती है। अब हमारा समाज सलेक्टिव होते जा रहा है। उसे कब, क्या और कहां कितना बोलना है, वह उतना ही करता है। फिर वह गलत, सही को भूला देता है, जो हमारे समाज को गलत दिशा की और लेकर जा रहा है।

एक तरफ हमारे समाज में महिलाओं का संस्कारी होना उनके कपडों के आधार पर तय किया जाता है, वहीं दूसरी ओर समाज के एक वर्ग विशेष के द्वारा महिला का ही सरेआम पल्लू खींचा जाता है। वह भी उस समय जब वह महिला अपने ब्लाक प्रमुख की उम्मीदवारी का पर्चा भरने के लिए जा रही होती है। ऐसे में सवाल कई उठते हैं। लेकिन उन पर गहन मंथन करने वाला कोई नहीं। हमारे देश में हाल ही में प्रधानमंत्री के मंत्रिमंडल में 11 महिलाओं को शामिल किया गया है। उत्तर प्रदेश सूबे की ही बात करें। यहां से 4 महिलाएं मोदी मंत्रिमंडल में शामिल हैं और 11 महिला सांसद हैं।

इसके अलावा सूबे में 40 महिला विधायक हैं। इन सबके बावजूद एक महिला का सूबे में सरेआम पल्लू खींचा जाता है, वह भी तमाम कैमरों के सामने, लेकिन सामान्य जनमानस तो सामान्य कोई भी महिला मंत्री इस मुद्दे पर अपनी आवाज तक नही उठा पाती है। कोई महिला आयोग इस मुद्दे पर खुलकर सामने नही आता है। फिर आखिर हम किस संस्कार और संस्कृति की ढपली पीटते हैं और किस हैसियत से मंदिरा बेदी को कौन सा कपड़ा पहनना चाहिए था या नहीं उस बात के लिए सलाह देते हैं।

मतलब लोकतांत्रिक निर्लज्जता की भी हद होती है। एक तरफ तो जो महिला कपड़े पहने हुए है, उसके बदन से कपड़े खींचे जाते हैं और दूसरी तरफ एक अन्य महिला जिसके ऊपर मुसीबतों का पहाड़ टूट पड़ा, जिसने असमय अपने पति को खो दिया। उसे कैसे कपडे पहनने चाहिए और कैसे नहीं, उसकी सीख दी जा रही। वैसे कई बार जिन महिलाओं को हम अपना प्रतिनिधित्व करने के लिए चुनते हैं, वे भी मौन धारण कर लेती है। फिर काफी खीझ छूटती है कि अगर वो ही अपने जैसी महिलाओं की बात नहीं रख सकती, फिर बाकी से क्या उम्मीद लगाई जाए। आज के समय का एक कड़वा सच तो यह भी है कि हम जिन महिलाओं को अपने प्रतिनिधित्व करने के लिए चुनते हैं, वह भी हमें इंसाफ नहीं दिला पाती है।

समाज में महिलाओं को बराबरी के हक दिए जाने की बात का ढिंढोरा बड़े जोरो-शोरों से गूंजता है, लेकिन जब वही महिला अपनी रूढ़िवादी परंपराओं से बाहर निकलने का प्रयास करती है, तो बड़ी आसानी से उस पर लांछन लगा दिया जाता है। समाज इतना भी असंवेदनशील न हो जाए कि महिला को अपने महिला होने से ही दिक़्कत हो जाए। वैसे भी वह महिला ही है, जो मां के रूप में ममता बरसाती है। वरना वह दुर्गा और काली भी बन जाती है। कुल-मिलाकर देखें तो समाज को सलेक्टिव अप्रोच से बाहर निकलना होगा। खासकर महिलाओं को लेकर। इसके अलावा हर महिला को एक दृष्टिकोण से देखना होगा।

महिला कोई भी हो, अमीर या गरीब घर की। हर महिला का सम्मान होना चाहिए। कपड़े हमारी पहचान नहीं बन सकते, पहचान हमारा अपना व्यक्तित्व ही होता है। भले ही वह अच्छा हो या बुरा। ऐसे में व्यक्ति को चाहे वह महिला हो या पुरुष उसे अपने व्यक्तित्व पर ध्यान देना चाहिए और गलत को गलत और सही को सही कहने की क्षमता हर किसी में होना चाहिए, न कि चुप्पी साधने का गुण। जैसा कि उत्तर प्रदेश में महिला के पल्लू खींचे जाने पर देखने को मिला।

हमारे देश की तो सदियों से नारी को पूजने की परंपरा रही है। फिर क्यों आज नारी की अस्मिता पर चोट करने से समाज पीछे नहीं हटता? देखा जाए तो धर्म के ठेकेदारों ने ही धर्म की अपनी सुविधानुसार व्याख्या करना शुरू कर दी है, जिसकी वजह से ये जड़तामूल्क समस्याएं उत्पन्न हो रही हैं। जिसका निदान बहुत आवश्यक है।


SAMVAD 13

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