Saturday, June 29, 2024
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दलबदलुओं के लिए विचारधारा का महत्व नहीं

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Samvad


TANVIR ZAFARIकर्नाटक में राज्य विधानसभा हेतु 10 मई को चुनाव होने निर्धारित हैं। पूरे राज्य में एक ही चरण में होने वाले चुनाव की मतगणना 13 मई को होनी तय है। चुनाव पूर्व सर्वेक्षण से फिलहाल यही पता चल रहा है कि राज्य में सत्तारूढ़ भाजपा को सत्ता में वापसी के लिए कड़ी मशक़्कत करनी पड़ रही है। दूसरी तरफ कांग्रेस के पक्ष में भी सकारात्मक माहौल बनता दिखाई दे रहा है। भाजपा के विरुद्ध जहां सत्ता विरोधी रुझान है, वहीं राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा का कर्नाटक के बड़े क्षेत्र से होकर गुजरना तथा राहुल गांधी की संसद से बर्खास्तगी के बाद राज्य में उनके प्रति पैदा हुई सहानुभूति कांग्रेस के पक्ष में माहौल बनाने में कारगर साबित हो रही है। राज्य में होने वाले इस संभावित सत्ता परिवर्तन को राज्य के कई ‘मंझे’ हुए नेता भी बखूबी समझ रहे हैं। और उनकी यही ‘दूरदर्शिता’ उन्हें किसी न किसी परिस्थितिवश चुनाव पूर्व ही ‘दल बदल’ करने के लिए ‘मजबूर’ कर रही है।

प्राप्त खबरों के अनुसार राज्य के आठ प्रमुख भाजपा नेताओं के अतिरिक्त तमाम छुटभैय्ये भाजपाई भी कांग्रेस पार्टी का दामन थाम चुके हैं। जबकि कुछ जेडीएस में भी शामिल हुए हैं। इनमें पूर्व मुख्यमंत्री व पूर्व उप मुख्यमंत्री से लेकर कई विधायक और विधान परिषद सदस्य तक शामिल हैं।

इसी सूची में सबसे महत्वपूर्ण नाम राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री भाजपा एवं लिंगायत समुदाय के प्रभावशाली नेता जगदीश शेट्टार और पूर्व उपमुख्यमंत्री लक्ष्मण सावदी का है। कर्नाटक की राजनीति में लिंगायत समुदाय सत्ता का खेल बनाने बिगाड़ने में अत्यंत प्रभावी माना जाता है।

बताया जा रहा है कि शेट्टार अपनी पारंपरिक सीट हुबली-धारवाड़ विधानसभा सीट से भाजपा उम्मीदवार के रूप में सातवीं बार चुनाव लड़ना चाह रहे थे, लेकिन भाजपा ने उन्हें टिकट देने से मना कर दिया था। प्राप्त खबरों के अनुसार शेट्टार को हुबली-धारवाड़ विधानसभा सीट से भाजपा प्रत्याशी न बनाने के बदले में उन्हें केंद्र सरकार में मंत्री और उनके परिवार के किसी अन्य सदस्य को विधानसभा चुनाव लड़ने की पेशकश पार्टी की ओर से की गयी थी जो उन्होंने स्वीकार नहीं किया।

दूसरी ओर कांग्रेस पार्टी ने आनन फानन में जगदीश शेट्टार को पार्टी में शामिल कर उन्हें हुबली-धारवाड़ विधानसभा सीट से पार्टी का प्रत्याशी भी घोषित कर दिया। लिंगायत समुदाय के कर्नाटक में 18 फीसद मतदाता हैं, जो भाजपा के समर्थक माने जाते रहे हैं।

भाजपा छोड़ने के बाद जगदीश शेट्टार अकेले 20 से लेकर 25 लिंगायत प्रभाव वाली सीटों पर भाजपा को नुक़्सान व कांग्रेस को फायदा पहुंचा सकते हैं। इनके अतिरिक्त भाजपा छोड़ने वाले प्रमुख नेताओं में पूर्व विधायक डीपी नारीबोल, मंत्री एस अंगारा और बीएस येदियुरप्पा के करीबी डॉक्टर विश्वनाथ के साथ वर्तमान विधायक एमपी कुमारस्वामी, विधायक रामप्पा लमानी, विधायक गुली हटी शेखर तथा वर्तमान एमएलसी (विधान पार्षद) शंकर शामिल हैं।

दल बदल करने वाले अधिकांश भाजपा नेताओं का एक ही दुखड़ा है कि पार्टी ने उन्हें प्रत्याशी क्यों नहीं बनाया। टिकट न मिलने के कारण पार्टी छोड़ने वाला एक नाम वरिष्ठ कांग्रेसी नेता और कर्नाटक विधानसभा के पूर्व स्पीकर कागोडु थिम्मप्पा की बेटी डॉ. राजनंदिनी का भी है।

गत दिनों यह कर्नाटक के पूर्व मुख्यमंत्री बीएस येदियुरप्पा और पार्टी के अन्य सदस्यों की मौजूदगी में भाजपा में शामिल हो गईं। बीजेपी में शामिल होने बाद डॉ. राजनंदिनी ने अपनी ‘व्यथा’ बयान करते हुए कहा, ‘मुझे उम्मीद थी कि कांग्रेस मुझे पहचानेगी और मुझे टिकट देगी, लेकिन मुझे मौका नहीं मिला, जबकि बीजेपी में गर्मजोशी से मेरा स्वागत किया गया। मैं पार्टी के लिए काम करूंगी। मैं वर्कर हूं और कहीं भी काम कर सकती हूं।’ पूरी संभावना है कि डॉ. राजनंदिनी थिम्मप्पा भाजपा प्रत्याशी के रूप में चुनाव लड़ेंगी।

केवल कर्नाटक ही नहीं, बल्कि अन्य राज्यों के चुनाव में भी यहां तक कि लोकसभा चुनावों के समय भी अपना अपना ‘राजनैतिक कैरियर’ बचाने या बनाने के नाम पर दल बदल का खेल चलना एक आम बात बन चुकी है। यह दल बदल पार्टी के टिकट मिलने या न मिलने से शुरू होकर मंत्री यहां तक कि मुख्यमंत्री बनने बनाने तक जारी रहता है।

मध्य प्रदेश की तरह कई राज्य इस बात के भी उदाहरण पेश कर चुके हैं कि किस तरह सत्ता के इसी घिनौने खेल में राज्य की जनता द्वारा दिए गए सत्ता विरोधी जनमत का इन्हीं अवसरवादी व अपने स्वार्थपूर्ण राजनैतिक कैरियर को राजनैतिक विचारधारा से भी ऊपर मानने वालों द्वारा मजाक उड़ाया गया।

आज भले ही कांग्रेस पार्टी कर्नाटक में बड़ी संख्या में भाजपाई नेताओं को पार्टी में शामिल कराकर आगामी चुनाव में अपनी बढ़त की संभावनाओं का एहसास कर रही हो, परंतु जो नेता केवल भाजपा का टिकट न मिलने के कारण कांग्रेस में शामिल हो रहे हैं, वे कांग्रेस की विचारधारा के वाहक आखिर कैसे हो सकते हैं?

कांग्रेस हो या भाजपा या अन्य परस्पर धुर विरोधी वैचारिक पार्टियां, इनके द्वारा अवसरवादिता के कारण खास कर अपने राजनैतिक कैरियर को ’संवारने’ की गरज से दल बदल करने वाले लोगों को अपने अपने दलों में शामिल कराने का साफ अर्थ है कि पार्टियां स्वयं भी मात्र सत्ता प्राप्त करने के लिये ऐसे ‘थाली के बैंगनों’ का सहारा लेना पसंद करती हैं।

जिनके लिये विचारधारा नहीं बल्कि उनका ‘राजनैतिक कैरियर अधिक महत्वपूर्ण’ है। जनता को ऐसे दलबदलुओं को तो जरूर सबक सिखान चाहिए, जिनके लिए विचारधारा नहीं, बल्कि उनका स्वार्थपूर्ण राजनैतिक कैरियर ही सबसे महत्वपूर्ण है। क्या जनता ऐसा कर पाएगी?


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