Saturday, May 24, 2025
- Advertisement -

राज जाएगा तो राजरोग भी चला जाएगा?

RAVIWANI


arun tiwariकोई कह सकता है कि राज जाने का मतलब, किसी व्यक्ति या दल का सरकार से हट जाना हो है। आजकल प्रयास भी यही चल रहा है। देश का एक बड़ा वर्ग एकजुट हो रहा है। राजनीतिक दल एकजुट हो रहे हैं। नागरिक संगठनों में एकजुट होने की कोशिश कर रहे हैं। लोग भी दलों में खड़े हैं और सर्व समुदाय के लिए काम करने वाले सामाजिक संगठन भी। पत्रकारों में भी लामबंदी नजर आ रही है। यह सारी लामबंदी एक ही सूत्र पर आधारित है कि 2024 में मोदी को सत्ता से हटाना है। क्या वोट ही राजरोग दूर करने का एकमात्र औजार है?

महात्मा गांधी का कथन था कि सत्ता नष्ट और भ्रष्ट करती है। नीतीश कुमार ने एक बार कहा था कि रिटायरमेंट के बाद सब आईएएस संत हो जाते हैं। इधर पिछले दिनों नमामि गंगे से जुड़े एक शीर्षस्थ आईएएस अधिकारी से मैने यूं ही पूछ लिया कि गांवों द्वारा किए छोटी नदियों के पुर्नजीवन के कामों से क्या सरकार कुछ सीख सकती है? ‘सुनत बचन उपजा मन क्रोधा। माया बस न रहा मन बोधा।’

वह गुस्सा हो गए। उन्होंने कहा कि एनजीओ वाले बाहर बैठकर हल्ला करते रहते हैं; भीतर रहकर पता चलता है। इस पर मैने कहा कि मेरा कोई एनजीओ नहीं है। मैं एक आजाद लेखक-पत्रकार हूं तो उन्होंने साफगोई दिखाई-तिवारी जी, मैं सीख सकता हूं; सरकार नहीं। सरकार बहुत बड़ी होती है।

इन सब कड़ियों में बनारस के गांधी विद्या संस्थान की इमारत पर इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र के कब्जे की पटकथा को जोड़कर देखें तो प्रमाणित होता है कि जब राज आता है तो उसके साथ राजरोग भी आता है। मात्र इन संदर्भों से ही संकेत मिल जाता हैं कि गांघी विद्या संस्थान कब्जा प्रकरण में कौन-कौन, कहां-कहां और क्यों नष्ट या भ्रष्ट हुआ है।

यूं ही नहीं कहा जाता कि सत्ता चाहे परिवार की हो, नगर-गांव-संगठन की, व्यापार की अथवा सरकार की; सत्ता का भाव आ जाने मात्र से ही हम नष्ट और भ्रष्ट होना शुरू हो जाते हैं। आखिरकार यह सत्ता भाव ही तो है, जिसके कारण संपूर्ण क्रांति आंदोलन के भीतर से लोकतंत्र की रक्षा खातिर खम्भ ठोक कर डट जाने वाले भी निकले तो चारा खाने वाले भी।

राजरोगियों की रजामंदी

गांधी मार्ग के संपादक रहे स्वर्गीय श्री अनुपम मिश्र ने नदी जोड़ परियोजना के खिलाफ एक लेख लिखा था। लेख का शीर्षक था-राजरोगियों की रजामंदी। लेख की शुरुआत में ही लिखा था कि अच्छे लोग भी जब राज के नजदीक पहुंचते हैं तो उनको विकास का रोग लग जाता है; भूमंडलीकरण का रोग लग जाता है।

उन्होंने इसे प्रमाणित करती एक घटना का जिक्र किया था। घटना यूं थी कि कर्नाटक में वेड़थी नदी पर बांध बनाया जा रहा था। किसानों को आशंका हुई कि बांध बनने से खेती का चक्र बिगड़ जाएगा। उन्होने डटकर विरोध किया। लगातार पांच साल तक आंदोलन चला।

रामकृष्ण हेगड़े, उस आंदोलन के एकछत्र नेता रहे। यह नेता भाव, उन्हें सत्ता में ले आया। मुख्यमंत्री बनने के बाद हेगड़े वेड़थी बांध के पक्ष में हो गए। अनुपम जी ने इसे राजरोग का उदाहरण बताते हुए इस राजरोग का इलाज भी बताया था। लिखा था-हेगड़े के पाला बदलने के बावजूद किसानों का आंदोलन चलता रहा। हेगड़े का राज चला गया। उनका राजरोग भी चला गया। आंदोलन के कारण वह बांध आज तक नहीं बन सका।

सम्मेद शिखर, जालियांवाला बाग, साबरमती आश्रम, श्री अरविंद आश्रम (पुदुचेरी), बद्रीनाथ, केदारनाथ – ये सभी हमारी आस्था व विचारों की विरासत के तीर्थ हैं। तीर्थों पर तीर्थभाव को तिरोहित कर पर्यटन बढ़ाने और पैसा कमाने की परियोजना बनाना, एक तरह विकास का राजरोग है।

तेज हॉर्न की आवाज से लुढ़क जाने वाली कंकड़ी के नम पहाड़ में वोल्वो दौड़ाने लायक सड़क बनाना सामान्य मनोदशा तो नहीं ही कही जाएगी। पूरे देश में एक ही पार्टी, एक ही रंग और एक ही विचार के लोग राज करेंगे।

बाकी को तोड़ना-फोड़ना, दुश्मन मानकर नष्ट करने पर उताऊ हो जाना; यह दूसरे तरह का राजरोग है। …तो क्या समझें कि जब नरेंद्र मोदी, प्रधानमंत्री नहीं रहेंगे या बीजेपी सरकार में नहीं रहेगी तो यह राजरोग चला जाएगा?

क्या हो राजरोग मिटाने का औजार?

कोई कह सकता है कि राज जाने का मतलब, किसी व्यक्ति या दल का सरकार से हट जाना हो है। आजकल प्रयास भी यही चल रहा है। देश का एक बड़ा वर्ग एकजुट हो रहा है। राजनीतिक दल एकजुट हो रहे हैं। नागरिक संगठनों में एकजुट होने की कोशिश कर रहे हैं।

लोग भी दलों में खड़े हैं और सर्व समुदाय के लिए काम करने वाले सामाजिक संगठन भी। पत्रकारों में भी लामबंदी नजर आ रही है। यह सारी लामबंदी एक ही सूत्र पर आधारित है कि 2024 में मोदी को सत्ता से हटाना है। क्या वोट ही राजरोग दूर करने का एकमात्र औजार है?

सोचिए कि यदि गांधी जी जिंदा होते तो क्या वह भी यही करते या वह कहते-‘नहीं भाई, इससे बात नहीं बनेगी। दलों के पक्ष-विपक्ष में खड़े होना, वोटर का काम है। वह करे।’ जब मैं खुद जनप्रतिनिधियों को जनता से कटे तथा ऐसे व्यवहार करते देखता हूं कि जैसे वे किसी अन्य लोक के प्राणी हों तो यह विश्वास और अधिक दृढ़ हो जाता है कि बात बनेगी तो मुद्दे के पक्ष-विपक्ष में कमर कसकर खड़ा हो जाने से। मुद्दा क्या है? मुद्दा है कि राजरोग खत्म हो।

नेता नहीं, प्रतिनिधि बनाइए

हमें खुद समझना होगा कि नेता अगुवा होता है। उसके पीछे उसके अनुयायी होते हैं। नेता जो कहता है, अनुयायी वह करते हैं। लोकप्रतिनिधि अगुवा नहीं होता। लोकप्रतिनिधि, लोगों द्वारा लोगों का प्रतिनिधित्व करने के लिए चुना अथवा नामित किए जाता हैं। प्रतिनिधि का काम होता है कि वह जिनका प्रतिनिधि है, उनके निर्णय की पालना करे। उनके विचार को… प्रस्ताव को आगे बढ़ाए।

उनकी आवाज को पुरजोर तरीके से जहां उठाना है; उठाये। अत: हमें अपने प्रतिनिधियों को नेता, राजनेता व अधिकारी कहना बंद करना होगा। वह समझें कि विधायी, शासकीय अथवा प्रशासनिक कार्य के लिए इलेक्ट अथवा सेलेक्ट होना, राजयोग नहीं है। यह जनसहयोग है।

विधायी प्रतिनिधि सभाओं की बात करूं तो लोकनीति और लोकप्रतिनिधित्व के भाव के मार्ग में एक बड़ी बाधा चुनावों का दलगत होना है। चुनावों के दलगत होने ने सामुदायिक भाव व सद्भाव को बुरी तरह तोड़ दिया है। चुनावी मशीनों पर से दलों के निशान हटा देने चाहिए। चुनावी व्यवस्था तोड़क की बजाय, जोड़क कैसे बने; ऐसे बदलाव करने चाहिए।

हमारे पंच, प्रधान, विधायक व सांसद इन्हे चुनने वाले लोगों के प्रतिनिधि होते हैं। किंतु सदन में पहुंचकर लोगों के ये प्रतिनिधि, दलों के प्रतिनिधि के तौर पर व्यवहार करते हैं। दलगत व्हिप जारी करने का प्रावधान, बची-खुची संभावना को नष्ट कर देता है। हमें समझना चाहिए कि जिन्हें लोगों ने अपने प्रतिनिधि के रूप में चुन लिया, वे लोगों के प्रतिनिधि हैं।

मंत्री-प्रधानमंत्री सरकार के प्रतिनिधि होते हैं। अत: बाध्य करना होगा कि इन सभी को कानून बनाकर प्रतिबंधित कर दिया जाए; ताकि ये लोक, सरकार, सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनी अथवा स्वायत्त संस्था का प्रतिनिधि रहते हुए किसी दल के निशान, बैठक, पद, चंदा व प्रचार में हिस्सेदार न बनें।

यह कैसे होगा?

अनुपम मिश्र फिर मार्गदर्शन करते हैं। वह लिखते हैं कि यह दौर बहुत विचित्र है। इस दौर में सब विचारधाराएं ओर हर तरह के राजनैतिक नेतृत्व में रजामंदी है विनाश के लिए। इस सर्वसम्मति के बीच हमारी आवाज दृढ़ता और संयम से उठनी चाहिए। जो बात कहनी है, वह दृढ़ता से कहनी पडेगी।

हमें प्रेम से कहने का तरीका निकालना पडेगा। हमें अब सरकार का पक्ष समझने की कोई जरूरत नहीं है। उसे समझने में लगे तो ऐसी भूमिका हमें थका देगी। हम कोई पक्ष जानना नहीं चाहते। हम कह सकते हैं कि यह पक्षपात है देश के साथ, भूगोल के साथ, इतिहास के साथ। इसे रोको।

प्रश्न है कि हम ऐसा हम कब कह सकेंगे?

अत्यंत प्रबुद्ध और गंभीर पत्रकार अरुण कुमार त्रिपाठी ने एक पोर्टल पर लिखे लेख में बनारस के गांधी वालों द्वारा चार कसमें खाने का उल्लेख किया है। गांधी, खादी और समाजसेवी संस्थाओं को सामने रखूं तो मैं कह सकता हूं कि ऐसा वे तब कह सकेंगे, जब इनके संचालक बिना कसम खाए ही आइने को अपनी ओर घुमा लेंगे।

तय करेंगे कि पद, पैसे और सुविधा के लोभ में इन्हे गांधी, खादी और सेवा कर्म का सत्यानाश नहीं करना चाहिए। जरूरी खर्च के लिए धन का इंतजाम किसी फंडिग एजेन्सी से नहीं, जिसके लिए काम कर रहे हैं, उस लक्ष्य समूह से और अपने श्रम से अर्जित करेंगे। सामाजिक कार्य में कोई अधिकारी व कर्मचारी नहीं होता; सब समान सम्मानित कार्यकर्ता होते हैं।

अंतिम बात यह कि एकादश व्रत को सिर्फ पढ़ें या पढ़ायेंगे नहीं, अपनाने की भरपूर कोशिश भी करेंगे। आखिरकार, अपने अंतिम वक्त तक महात्मा गांधी भी तो यही कर रहे थे। कांग्रेस को लोक सेवक संघ के रूप में रूपांतरित कर गांधी भी तो सत्ता भाव को तिरोहित करना चाहते थे। गांधी, इसीलिए तो खास थे, चूंकि वह वही कहते थे, जिसे वह बेहिचक कर सकते थे। किन्तु गांधी विद्या संस्थान ने अब तक यह नहीं किया। अब करे।


janwani address 4

spot_imgspot_img

Subscribe

Related articles

The Great Indian Kapil Show: कपिल शर्मा शो का तीसरा सीजन जल्द होगा स्ट्रीम, इस बार दिखेंगे कई बड़े चेहरे

नमस्कार, दैनिक जनवाणी डॉटकॉम वेबसाइट पर आपका हार्दिक स्वागत...

Sports News: इंग्लैंड दौरे के लिए भारतीय टेस्ट टीम का ऐलान, शुभमन गिल बने नए कप्तान

नमस्कार, दैनिक जनवाणी डॉटकॉम वेबसाइट पर आपका हार्दिक स्वागत...

Bijnor News: गोलीकांड में घायल जिला बार कर्मी की इलाज के दौरान मौत, परिवार में मचा कोहराम

जनवाणी संवाददाता |बिजनौर: कोतवाली देहात क्षेत्र के गांव बांकपुर...
spot_imgspot_img