Wednesday, June 26, 2024
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यूसीसी का क्रियान्यवन होगा चुनौतीपूर्ण

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RAJESH MAHESHWARI 2कॉमन सिविल कोड यानी समान नागरिक संहिता फिर से चर्चा में है। बीते 14 जून को विधि आयोग ने राजनीतिक रूप से संवेदनशील इस मुद्दे पर एक महत्वपूर्ण पहल की है। 22वें विधि आयोग ने एक बार फिर समान नागरिक संहिता पर जनता और मान्यता प्राप्त धार्मिक संगठनों के विचार मांगे हैं। भारतीय संविधान में राज्य के नीति निदेशक सिद्धांतों से जुड़े अनुच्छेद 44 में कहा गया है कि ‘राज्य भारत के पूरे क्षेत्र में नागरिकों के लिए एक समान नागरिक संहिता (यूसीसी) सुनिश्चित करने का प्रयास करेगा।’ 1985 में चर्चित शाह बानो मामले में शीर्ष अदालत ने कहा कि अनुच्छेद 44 एक ‘मृत पत्र’ के समान बताया और एक समान नागरिक संहिता की आवश्यकता पर जोर दिया था।

भारतीय संविधान की मसौदा समिति के अध्यक्ष डॉ. बीआर अंबेडकर ने कहा था कि हमारे पास पूरे देश में एक समान और पूर्ण आपराधिक संहिता है, जो दंड संहिता और आपराधिक प्रक्रिया संहिता में निहित है। हमारे पास संपत्ति के हस्तांतरण का कानून है, जो संपत्ति और उससे जुड़े मामलों से संबंधित है और पूरे देश में लागू है।

फिर नेगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट्स एक्ट हैंरू और मैं कई अधिनियमों का हवाला दे सकता हूं, जो यह साबित करेंगे कि इस देश में व्यावहारिक रूप से एक नागरिक संहिता है, इनके मूल तत्व एक समान हैं और पूरे देश में लागू हैं। चार दशकों से ही समान नागरिक संहिता की बात सड़क से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक हो रही है।

1985 में शाह बानो मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि संसद को सामान नागरिक संहिता पर आगे बढ़ना चाहिए। 2015 में भी सुप्रीम कोर्ट ने इसकी जरूरत को रेखांकित किया था। भारत का संविधान तैयार करने की प्रक्रिया के दौरान भी समान नागरिक संहिता का मुद्दा खासी चर्चा में रहा था।

तब भरोसा जताया गया था कि इस लोकतांत्रिक देश में कालांतर में समान नागरिक संहिता लागू करने को मूर्त रूप देने का अवसर आएगा। दरअसल, तब संविधान सभा के कई दिग्गज इसके पक्ष में थे, लेकिन भारतीय समाज की जटिलता और तत्कालीन संवेदनशील स्थिति के चलते इस पर निर्णायक फैसला नहीं हो सका था।

बाद में स्वतंत्र भारत में कई बार संसद व विधानसभाओं में इस मुद्दे पर खूब चर्चा होती रही। अब व्यापक आधार रखने वाले धार्मिक संगठनों की इस मुद्दे पर राय मांगी गई है। समान नागरिक संहिता का मतलब देश के सभी नागरिकों के लिए एक समान कानून बनाना है। यह बिना किसी धर्म, जाति या लैंगिक भेदभाव के लागू होगा। सरल शब्दों में समझिए तो सभी धर्मों के लोगों का कानून एक होगा।

अभी हिंदू, ईसाई, पारसी, मुस्लिम जैसे अलग-अलग धार्मिक समुदाय विवाह, तलाक, उत्तराधिकार और गोद लेने के मामलों में अपने-अपने पर्सनल लॉ का पालन करते हैं। हालांकि आपराधिक कानून एक समान हैं। पर्सनल लॉ अंग्रेजों के समय धर्मों की प्रथाओं और धार्मिक ग्रंथों को ध्यान में रखकर अलग-अलग समय पर बनाए गए थे।

ब्रिटिश हुकूमत के शुरुआती दशकों में ही हिंदू और मुस्लिम पर्सनल लॉ तैयार हो गए थे। हालांकि इसमें तब्दीली होती गई। कॉमन सिविल कोड लागू होने से मुसलमानों, ईसाइयों, पारसियों और हिंदुओं (बौद्धों, सिखों और जैनियों समेत) के संदर्भ में सभी वर्तमान कानून निरस्त हो जाएंगे।

इससे देश में एकरूपता आने की बात कही जा रही है। समान नागरिक संहिता लागू होने से शादी, तलाक, जमीन-संपत्ति आदि के मामलों में सभी धर्मों के लोगों के लिए एक ही कानून लागू होगा। धर्म या पर्सनल लॉ के आधार पर भेदभाव समाप्त होगा।

इसमें कोई दो राय नहीं है कि भारत विविधताओं का देश है। विश्वास, संस्कृति व परंपराओं की विविधता उसके मूल में रही है। गाहे-बगाहे देश में समान नागरिक संहिता का मुद्दा उठता रहा है। इस मुद्दे को लेकर राजनीति भी जमकर होती रही है। भाजपा के एजेंडे में शामिल मुद्दे को कांग्रेस समेत कई दल ध्रुवीकरण के प्रयास के रूप में देखते रहे हैं।

यह मुख्य रूप से भाजपा के चुनाव घोषणापत्रों में शामिल रहा है। उत्तराखंड जैसे राज्य अपनी समान नागरिक संहिता तैयार करने की दिशा में आगे बढ़ रहे हैं। कर्नाटक चुनाव के दौरान भाजपा ने राज्य में समान नागरिक संहिता लागू करने का वादा किया था। जनता दल यूनाइटेड ने कहा है कि सभी धर्मों और समुदायों के सदस्यों को विश्वास में लिया जाना चाहिए।

गोवा में पहले से यह लागू है। कुछ लोगों का मानना है कि सारे देश में व्यापक विमर्श के बाद ही इस संवेदनशील मुद्दे पर आगे बात की जानी चाहिए। वैसे विपक्षी दल आरोप लगाते रहे हैं कि सत्तारूढ़ दल इस मुद्दे को ध्रुवीकरण के हथियार के रूप में प्रयोग कर सकता है। इस कयास की एक वजह यह है कि भाजपा के दो प्रमुख एजेंडे- राम मंदिर व अनुच्छेद 370 को हटाने के लक्ष्य हासिल किए जा चुके हैं।

वहीं देश में यह बहस पुरानी है कि व्यक्तिगत कानून में व्याप्त विसंगतियों को दूर करके एक देश, एक कानून की अवधारणा को मूर्त रूप दिया जाए। लेकिन धार्मिक रूढ़ियों व राजनीतिक कारणों से ये लक्ष्य पाने संभव न हुए। वैसे किसी भी सभ्य समाज व लोकतांत्रिक देश में सभी नागरिकों के लिये समान कानून के प्रावधान एक आदर्श स्थिति होती है।

लेकिन भारतीय समाज की कई तरह की जटिलताएं इसके मार्ग में बाधक बनी रही हैं। निस्संदेह, देश की एकता व सद्भाव का वातावरण भी हमारी प्राथमिकता होनी चाहिए। इस जटिल विषय पर समान संहिता बनाना ही अंतिम हल नहीं है, उसका क्रियान्यवन भी उतना चुनौतीपूर्ण हो सकता है।

अलग-अलग धार्मिक समूहों को साथ लेकर आगे बढ़ना आसान भी नहीं होगा। 2024 में होने वाले लोकसभा चुनाव व इस साल के अंत तक कई राज्यों के विधानसभा चुनावों के मद्देनजर इस मामले में राजनीति पूरे चरम पर रहेगी।


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