आजकल कनाडा हो या अमेरिका में खालिस्तान समर्थकों ने उत्पात मचा रखा है। हालात इस बात के सबूत हैं कि वहां बीते दिनों खालिस्तान समर्थकों की गतिविधियों से स्थिति न केवल बिगड़ती जा रही है बल्कि यों कहें कि वहां के हालात दिन ब दिन खतरनाक होते जा रहे हैं। वहां के स्थानीय प्रशासन ही नहीं, समूची दुनिया की चिंता की असली वजह भी यही है। कारण यह कि यदि इस पर जल्दी लगाम नहीं लगी तो इसके दूरगामी परिणाम काफी भयावह हो सकते हैं। वैदेशिक मामलों के जानकारों की चिंता का अहम कारण यही है। इस मामले में वहां की सरकारों की विवशता की असली वजह यह भी है कि यदि वह कड़ाई से इस समस्या को हल करने का प्रयास करती हैं तो उसे वहां के नागरिक अधिकारों के खिलाफ माना जाएगा जबकि हकीकत यह है कि ऐसे संगठन और उनसे जुड़े लोग अक्सर सरकारों की इस कमजोरी का लाभ उठाते हुए इस तरह की आतंकी गतिविधियों को अंजाम देकर सरकारों के लिए मुसीबत पैदा करते हैं।
ताजा घटना अमेरिका के सैनफ्रांसिस्को स्थित भारतीय वाणिज्य दूतावास की है जहां न केवल तोड़फोड़ की गई, बल्कि उसमें आग भी लगा दी गई। दूसरी वारदात कनाडा की है, जहां खालिस्तान समर्थकों ने दो भारतीय राजनयिकों की तस्वीर वाले पोस्टर लगाए।
दरअसल खालिस्तान समर्थक भारतीय राजनयिकों को पिछले दिनों कनाडा में खालिस्तानी आतंकी हरदीप सिंह निज्जर की एक गुरुद्वारा में गोली मारकर की गई हत्या का दोषी मान रहे हैं। इससे पहले ब्रैम्पटन में पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या से जुड़ी झांकी निकालने की घटना हुई थी।
इसके दृश्य सोशल मीडिया पर आने के बाद भारत ने कनाडा को चेताया था। भारत ने उस समय कनाडा सरकार से तुरंत कार्रवाई की मांग करते हुए कहा था कि अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर आतंक और चरमपंथियों को शरण देना बंद करना चाहिए। यह प्रवृत्ति बेहद खतरनाक है।
सैनफ्रांसिस्को में भारतीय दूतावास में की गई तोड़फोड़ और आगजनी की वारदात का एक फोटो व वीडियो शेयर किया गया था। उसके साथ निज्जर की हत्या से जुड़ी समाचार पत्रों की कतरने भी शामिल की गर्इं थीं।
यह घटना नि:संदेह बेहद गंभीर और शर्मनाक है। फिर कनाडा में भारतीय राजनयिकों की इस तरह तस्वीर को प्रचारित करना खतरनाक तो है ही, वह इसलिए भी निंदनीय है कि इससे द्विपक्षीय सम्बंधों पर भी बुरा प्रभाव पड़ता है। इससे एक संप्रभु राष्ट्र की प्रतिष्ठा भी प्रभावित होती है। यही वह अहम कारण है कि भारत सरकार ने इस घटना को गंभीरता से लिया है और कनाडा के हाई कमिश्नर को समन किया है।
कनाडा के अधिकारियों ने राजनयिकों की सुरक्षा का वायदा किया है। उनके अनुसार कनाडा में जो हुआ है, उसमें वहां के पूरे समुदाय कहें या कनाडा की सहमति नहीं है। वहीं दूसरी ओर अमेरिकी सरकार से भी कड़ी कार्यवाही की मांग की है। संतोष इस बात का है कि इन घटनाओं पर कनाडा और अमेरिकी सरकार ने फिलहाल कार्यवाही की बात कही है।
असलियत यह है और दुखदायी भी कि ऐसी घटनाओं पर दोनों ही देश की सरकारों का रवैय्या अभीत बेहद निराशाजनक रहा है और आजतक दोनों ही सरकारें इस बाबत कोई भी कार्यवाही करने में नाकाम साबित हुयी हैं। इस मामले में आस्ट्रेलिया और ब्रिटेन जैसे देश भी हैं जिनके भारत के साथ बेहद नजदीकी और मधुर सम्बन्ध हैं।
जिसके बावजूद वहां की सरकारें इस प्रकार की गतिविधियों पर काबू नहीं पा सकी है। अमृत पाल सिंह का प्रकरण इसका जीता जागता सबूत है। हकीकत में अमृतपाल सिंह धर्म की आड़ में सीधे-सीधे कानून व्यवस्था को चुनौती दे रहा था। उसके बावजूद वहां की सरकारों की चुप्पी समझ से परे है। यही विचार का विषय है।
अमेरिकी विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता मैथ्यू मिलर भले यह कहें कि अमेरिका में राजनयिक केंद्रों या विदेशी राजनयिकों के खिलाफ हिंसा एक जघन्य अपराध है। फिर भी यह भी कटु सत्य है कि कुछ ही महीनों में सैनफ्रांसिस्को में भारतीय राजनयिक मिशन पर हमले की यह दूसरी घटना है।
वैसे यह तो सभी भलीभांति जानते-समझते हैं कि वह चाहे कनाडा हो या अमेरिका, खालिस्तानी अलगाववादियों ने यहां बरसों से अपनी गहरे तक जड़ें जमाने में कामयाबी पा ली है। कनाडा तो उनकी शरणस्थली है। यह भी सच है कि कनाडा में ही खालिस्तान की मांग करने वाले अलगाववादियों का हेडक्वार्टर भी रहा है और वहीं से खालिस्तानी आंदोलन संचालित किया जाता रहा है।
यही नहीं, कनाडा की धरती से अलगाववादियों को हरसंभव मदद भी दी जाती रही है। यही नहीं, खालिस्तान समर्थक आंदोलन को हवा-पानी देने में कनाडावासियों का महत्वपूर्ण योगदान भी रहा है। बीते दशकों का इतिहास इसका प्रमाण है जिसे नकारा नहीं जा सकता।
इस सच्चाई को दरगुजर नहीं किया जा सकता कि खालिस्तानी आतंकियों ने ही दशकों पहले 1985 में एयर इंडिया के विमान में विस्फोट किया था, जिससे सैकड़ों निर्दोष लोगों की मौत हुई थी। ऐसे हत्यारों की शरणस्थली और उनके पालनहार भी पश्चिमी देश ही बने। उसमें भी कनाडा ने अहम भूमिका निबाही।
ऐसे देश पर कैसे भरोसा किया जा सकता है जो आतंक की खुली पैरवी करता रहा हो। भारत समय-समय पर इससे समूची दुनिया को अवगत भी कराता रहा है। भारत हमेशा से यह कहता रहा है कि चरमपंथी सोच न दुनिया के लिए अच्छी है और न भारत के लिए। और तो और ऐसी सोच न भारत जैसे किसी देश के लिए अच्छी है और न उसके पड़ोसी देशों के लिए।
भारत और उसका शीर्ष नेतृत्व इस बात को दुनिया के देशों के विभिन्न मंचों पर समय समय पर उठाता भी रहा है कि कुछ देश आतंकियों को कुछ पनाह देते हैं। एससीओ यानी शंघाई सहयोग संघटन को ऐसे देशों की आलोचना से हिचकना नहीं चाहिए।। ऐसे मामले पर दोहरे मापदण्ड के लिए कोई भी जगह नहीं होनी चाहिए।
साथ ही आतंकी फंडिंग से निपटने के लिए आपसी सहयोग समय की आवश्यकता है। यही नहीं मिलजुलकर ही लोगों का विकास और कल्याण संभव है अन्यथा अस्थिरता हमारे विकास की धुरी को तहस-नहस कर देगा। भारत की हमेशा से यही नीति रही है कि हिंसा में लिप्त अलगाववादी तत्वों को किसी प्रकार का संरक्षण नहीं दिया जाये, अलगाववादी तत्वों को किसी भी तरह कीआड़ न मिलने पाए।
यह भी कि आतंकवादी किसी भी रूप में हों, ऐसे तत्व जो समाज के लिए कलंक हैं आखिरकार इंसानियत को देर सवेर अपना कुरूप चेहरा दिखाते ही हैं। अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर इनको संरक्षण नहीं देना चाहिए।
इससे आतंकवाद को बढावा मिलता है। एक समय ऐसा आता है जब ये तत्व उस देश के लिए नासूर बन जाते हैं। अंत में निष्कर्ष यह कि कैसे भी हो ऐसे विषधरों का फन जितनी जल्दी हो, कुचल देना चाहिए। यह समय की आवश्यकता है। इसमें दो राय नहीं है।
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