सुनील जैन राही |
झम्मन की फोटो अखबार में दमक रही थी। चेहरा माटी में सना हुआ। दांत और आंखें भी दिखाई नहीं दे रहे थे। ऐसा निराश और हताश चेहरा पहले कभी नहीं देखा। बालो में लगी मिट्टी से घुंघरालापन गरीबी की तरह गायब था। गरीब तो वो होते हैं, जिनका गरीबी का कार्ड बना हो। झम्मन तो मजदूर है। मजदूर की कोई जात नहीं होती। उसका घर नहीं होता, जो गरीब होते हैं उनके घर के बाहर इज्जत का पंचनामा करके चिपका दिया जाता है-बी पी एल सहायता प्राप्त हैं।
मुहल्ले के बड़े साब ने जब तस्वीर परिवार को दिखाई तो जान निकलते-निकलते रह गई। वैसे तो कई बार झम्मन को मिट्टी में सने देखा था, लेकिन इस बार चेहरे पर मायूसी, माथें पर मौत की स्पष्ट लकीरें अपना आसन जमाएं बैठीं, देख झम्मनिया की रुलाई फूट पड़ी। बच्चे तो समझ ही नहीं पाए कि बापू की तस्वीर अखबार में क्यों आ गई? एक बार दशरथ माझी की तस्वीर देखी, शायद बापू ने कोई पहाड़ खोदा होगा? बापू ने मां के लिए ताजमहल बनाने के लिए नींव रखीं होगी? हो सकता है शाहजहां का खजाना पाने की लालसा में सुरंग खोदने अड़ा हो। बापू तो कहीं भी अड़ जाता।
गंगा जी में जब नेताजी का परिवार डूब रहा था, अकेले बापू ने ही निकाल लिया था। अब बापू किसको निकालने के लिए गैती/फावड़ा लेकर गया? हमें तो सरकारी स्कूल नहीं जाना। थोड़ा और बड़े हो जाएं बापू की तरह गैती और फावड़ा खांदे पर धर लेंगे। हमें नहीं चाहिए तुम्हारा लजीज भोजन। बस दो रोटी ज्वार की काफी हैं। बापू भी दो रोटी ज्वार की जुगाड़ में सुरंग खोदने गया होगा।
बापू अकेला नहीं था। रामू काका भी साथ में थे। ठेकेदार ने कहा था अच्छे पैसे मिलेंगे। गेंहू की रोटी खा लेना इस सीजन में। गेहंू की रोटी जितनी नरम और मीठी होती है, वैसी बातें ठेकेदार कर रहा था। ठेकेदार ने यह नहीं बताया कि सुरंग किसके लिए बनाई जा रही है? दूसरों की कब्र खोदने के लिए तो सुरंग नहीं बनाई जा रही? बापू ने तो कभी किसी की कब्र नहीं खोदी! जब भी किसी के मकान की नींव रखी, बापू ने फावड़े से मिटटी हटाई और हल्दी कुंकू रखवा दिया। कभी किसी के अहित के लिए अपनी आहुति नहीं दी।
वह जमाना अच्छी तरह से याद है, जब हम छोटे थे और सरपंच का आदमी, घर के बाहर आकर आवाज देता। आज बोरगांव वाले खेत में आ जाना। रोटी मत लाना, रोटी-प्याज और इन्दौरी मिक्चर के साथ गुड़ भी मिलेगा। मजदूरी भले न मिली हो, लेकिन उस दिन पूरा परिवार छक के खाता। वैसे पूरा परिवार भी तो दिनभर खेत पर लगा पड़ा रहता। ट्यूबवैल के पानी में नहाकर जब दोपहर में रोटी हलक से नीचे उतरती तो सारी थकान के साथ-साथ सरपंच के लिए दुआ का पोटला (बहुत बड़ा झोला) भी निकल पड़ता। शरीर से गीली माटी की सुंगध से मन भर जाता। लेकिन कभी जान की आफत नहीं पड़ती। यहां तो गीली माटी के साथ-साथ जान भी आफत में थी।
साहब ने झम्मन को अखबार में देखा। साब जी चौंक गए? लेकिन एक कतरा सहानुभूति का ना निकला? चुनाव में सहानुभूति की लहर में गधे भी वैतरणी पार कर जाते हैं, ये तो इंसान हैं। एक-एक दिन बरस के बराबर। बच्चों की याद से ज्यादा जान जाती नजर आती। यहां तो वेंटीलेटर भी नहीं है, जिसके सहारे जिन्दा रह सकें। ऐसी भी नहीं जिसकी गरम हवा से शरीर के लायक गर्मी पैदा हो सके? हमें जीना और लड़ना आता है।
हम जी लेंगे, मिट्टी के सहारे, मिटटी से रिस रहे पानी को पी लेंगे, बच्चों की खातिर मिटटी खा लेंगे। मिटटी में पले हैं, मिटटी में दब जाएंगे, तुम्हारी रसद पता नहीं कब आएगी? हमें तो पहले ही मालूम था, तुम्हारे बस में कुछ भी नहीं है,? जो करेगी सेना करेगी। सेना को पहले ही बुला लेते, मगर चुनाव से फुरसत मिलती तब ना? पाइप से हमारी सूरत ही देख लोगे। हमारी आत्मा की चुभन और परिवार से बिछुड़ने की टीसन कैसे देख पाओगे?
अरे….. तुम्हें क्या पड़ी है, चुनाव में जो अड़ी है, उसे निपटा लो? अभी तो मुख्यमंत्री चुनना है? सरकार बनानी है? सत्ता के लिए खरीद-फरोख्त करनी है? फिर क्या? जान? बच गई। बाद में मुआवजा पुरस्कार बन गए। मुंह पर फेंक कर मारना नहीं पड़ा, हाथ पर रख दिया।