सुधांशु गुप्त |
काफ्का का कहना था-किस्सागो किस्सा कहने की कला नहीं जानता। वह या तो किस्सा कह रहा होता है या चुप रहता है। वरिष्ठ रचनाकार सुभाष पंत का स्वयं यह मानना है कि वह कहानीकार कम किस्सागो ज्यादा हैं। छह दशक से अधिक के अपने लेखन काल में सुभाष पंत ने बहुत-सी कहानियाँ लिखीं, जिन्हें आप किस्सा भी कह सकते हैं। उनका हाल ही में प्रकाशित कहानी संग्रह ‘इक्सवीं सदी की एक दिलचस्प दौड़’ (काव्यांश प्रकाशन) पढ़ने के बाद यह बात साफ दिखाई दी कि उनकी नजर किस्सों पर-किरदारों पर ही रहती है। वह बाजार की जरूरत के मुताबिक ग्लैमर्स किरदार नहीं चुनते बल्कि मामूली आदमियों के संसार से इन्हें चुनते हैं। यही वजह है कि उनकी कहानियों में सादगी, सरलता, सहजता दिखाई देती है। सुभाष पंत इन्हीं मामलू कहे जाने वाले किस्सों में आदमियों की जिजीविषा, संघर्ष, सपने, आकांक्षाएं कहानियों मंर दर्ज करते हैं। कुछ कहानियों में वह अपनी बात किरदारों के जरिये कहते हैं और कुछ में उन्हें कहानी के विचार को स्थापित करने के लिए सेमी फैंटेसी का सहारा भी लेना पड़ता है। ‘रुक्मा की कहानी’ में लवर्स कॉर्नर की मेज पर फूलकुंवर सरार्फेवाली और उसका प्रेमी बनवारी लाल पथिक बैठे हैं। लेकिन यह जोड़ा निर्मल वर्मा की कहानियों की तरह लवर्स प्वाइंट पर नहीं बैठा है। कहानी बड़ी सहजता से खुलती है। पता चलता है कि बनवारी का विवाह रुक्मा नाम की एक स्त्री से हो गया है। कहानी रुक्मा की ही है जो अपना पति, जमीन जायदाद पाने के लिए बहुत कुछ करती है। यहां तक कि अपने पति को आक्रमणकारियों से भी बचा लेती है। जाहिर से इस घटना के बाद बनवारी का हृद्य रुकमा के प्रति प्रेम से भर गया होगा। बेशक गांवों में इस तरह के स्त्री किरदार अकसर पाये जाते हैं। लगभग इसी तरह की एक अन्य कहानी है ‘मक्का के पौधे’। लालता का बेटा एक रात विवाह करके किसी लड़की को घर ले आता है। पिता उसे अपना नहीं पाता, माँ भी पिता का ही साथ देती है। एक दिन वही औरत मक्का के पौधों को सांड से बचाती है और पिता की आँखों में उसे पुत्रवधू के रूप में स्वीकार की चमक दिखाई देती है।
सुभाष पंत की अनेक कहानियां किरदारों के आसपास बुनी गई हैं। ‘सीमान्त’ एस.एन.जोशी उर्फ सत्यनारायण जोशी की कहानी है। जोशी अपने संघर्ष और जिजीविषा से निरंतर मृत्यु को टालता रहता है। धीरे-धीरे स्थितियाँ बेहतर हो जाती हैं। लेकिन जिस दिन जोशी की बेटी किट्टी नाई के लड़के बैजू के साथ शादी का फैसला करती है, उसी दिन जोशी बिस्तरे पर लेट जाता है और उसकी मृत्यु हो जाती है। सुभाष पंत कहानी के विस्तार में नहीं जाते और न ही उसे राजनीतिक रंग देते हैं। जिस सहजता से और जहाँ तक उन्हें कहानी लिखनी होती है, वह वहीं तक लिखते हैं। अन्यथा यह एक बड़ी राजनीतिक कहानी हो सकती थी।
गांव का गरीब और आम आदमी, उसकी जरूरतें पंत की प्राथमिकता में रहे हैं। वे अपनी कहानियों के जरिये उनके प्रति प्रतिबद्ध भी दिखाई पड़ते हैं। ‘रुल्दूराम के जीवन का अंतिम दिन’ एक ऐसी कहानी है जिसमें लेखक कल्पनाशीलता या फैंटेसी का प्रयोग करते दिखाई देते हैं। रुल्दूराम ग्यारह बजकर तीस मिनट पर सड़क पर चलते हुए गिर जाता है। यह खबर प्रचार माध्यमों तक पहुँच जाती है। आम आदमी किस तरह प्रजातंत्र के लिए एक खिलौना बन जाता है, यह पूरी कहानी बड़ी संजीदगी से चित्रित करती है। गरीब आदमी पंत की कहानी के मूल में है। ‘बूढ़े रिक्शा चालक का चित्र’ फार्सीकल अंदाज में लिखी इस कहानी में नायक एक बूढ़े रिक्शा चालक का चित्र बनाता है और किस तरह पूरी व्यस्था नायक को दोषी साबित कर देती है। यह एक मार्मिक कहानी से जो आज के भारत की भी तस्वीर दिखाती है। गरीब और बूढ़े किस तरह अपने ही देश और सड़कों पर अजनबी बन गए हैं, यह पता चलता है ‘सड़क पार खड़ा बूढ़ा’ कहानी से। एक बूढ़ा सड़क पार करना चाहता है, लेकिन व्यस्तताएँ उसे सड़क पार नहीं करने देतीं। सड़क पार करने की प्रक्रिया में पूरा समाज चलचित्र की तरह दिखाई देता है। यह एक बेहद खूबसूरत और इंटेंस कहानी है।
ऐसा नहीं है कि सुभाष पंत समाज की राजनीतिक और समाजिक हलचलों से वाकिफ नहीं हैं। वे बेरोजगारों की बढ़ती फौज को भी निरंतर देख रहे हैं और सिकुड़ते अवसरों को भी। वह यह भी जानते हैं कि आज निम्न और मध्यवर्ग किस तरह नौकरियाँ पाने के लिए बेचैन है। ‘इक्कीसवीं सदी की एक दिलचस्प दौड़’ वास्तव में एक क्रूर दौड़ है, जिसमें जीतने के अवसर बहुत सीमित हैं, और जीतने की इच्छा लिए करोड़ों लोग हैं। सेमी फेंटेसी शैली में लिखी यह कहानी साक्षात्कार ले रहे चेयरमैन टोपी छीनने से शुरू होती है। यह टोपी साक्षात्कारकतार्ओं की गरिमा, शक्ति और अधिकार का प्रतीक थी। पंत ने बेरोजगारों की पीड़ा का सशक्त चित्रण किया है।
सुभाष पंत की निगाहें हमेशा गरीब और कमजोर लोगों पर रहती है। यही वजह है कि उनकी कहानियों में उन्हीं के दुख, पीड़ा और संघर्ष दिखाई देते है। वह जानते हैं कि गरीबी के चक्र से बाहर आना मुमकिन नहीं है। अपनी कहानी ‘चक्र’ में वह यही दिखाते हैं कि कुंदन खलासी को उसके संस्थान ने वफादार सेवाओं के बदले में दमे की बीमारी दी। वह अपने बेटे की नौकरी के लिए लगातार प्रयास करता रहता है। वह अपने संस्थान में भी बेटे की नौकरी की कोशिश करता है। लेकिन यहां उसकी नौकरी तभी लग सकती है, जब नौकरी में रहते ही कुंदन की मृत्यु हो जाती है। अंत में यही होता है। कुंदन की मृत्यु हो जाती है और उसका बेटा पिता की जगह नौकरी पा जाता। यही गरीब की जिन्दगी की विडम्बना है। उनकी एक अन्य कहानी है ‘जिन्न’। इसमें उन्होंने दिखाया है कि किस तरह आज का मनुष्य अपनी इच्छाओं और लालसाओं के पीछे भाग रहा है, दौड़ रहा है, बिना कुछ सोचे, बिना कुछ समझे। इसका परिणाम क्या हो रहा है यह कहानी बताती है।
पंत अपनी कहानियों में घटनाओं और यथार्थ के साथ कोई छेड़छाड़ नहीं करते। वह घटनाओं को जिस रूप में देखते हैं लगभग उसी रूप में लिखते हैं। लेकिन निश्चित रूप से उनकी कहानियाँ सवाल उठाती हैं, भूख का सवाल, बेरोजगारी का सवाल आम आदमी की अस्मित का सवाल, गरीब का पूरी व्यवस्था में हास्यास्पद हो जाने का सवाल। सुभाष पंत को पढ़ना अपने समय को जानना भी है।