
इस समय देश की सबसे महत्वपूर्ण राजनीतिक और सामाजिक घटना किसान आंदोलन है। यह किसान आंदोलन अनायास ही नहीं है। जो लोग राजनीतिक विश्लेषण करने की थोड़ी भी क्षमता रखते हैं, उन्हें यह पूवार्भास हो गया था कि अब देश में कोई बड़ा आंदोलन होना निश्चित ही है। इसके पीछे कारण बहुत सीधा सा ही है कि वर्तमान सरकार द्वारा किए जा रहे कार्यों का विपक्ष मजबूत जवाब नहीं दे पा रहा है। लोकतंत्र में विपक्ष आम आदमी के लिए सरकार से भी अधिक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। लेकिन वर्तमान विपक्ष पूरी तरह दिग्भ्रमित और बिखरा हुआ दिखाई देता है। ऐसे में आंदोलन का होना स्वाभाविक ही है। फिलहाल भी पूरे देश में एकतरफा मिल रही जीत से वर्तमान सरकार के साथ भी यही संकट खड़ा हो गया है कि वह इस बात का अंदाजा नहीं लगा पाए कि उन्होंने खुद ही एक बड़े किसान आंदोलन को न्यौता दे दिया है।
हालांकि हमारी सरकारों का यह पहले से ही बड़ा संकट रहा है कि जिस वर्ग के लिए कानूनों का निर्माण किया जाता है, उस वर्ग का नीति निर्धारकों में कोई प्रतिनिधित्व नहीं होता है। वर्तमान सरकार अब रोज यह बोल रही है कि तीनों कानून किसानों के हित में हैं और किसान लंबे समय से इनकी मांग कर रहे थे। जबकि भाजपा से जुड़े एक मात्र किसान संगठन के अलावा कोई भी किसान संगठन यह मानने के लिए तैयार नहीं है कि ये कानून किसी भी तरीके किसानों के हित में हैं। आवश्यक वस्तु अधिनियम समाप्त करके होने वाली जमाखोरी किस तरह महंगाई की मार पहले से झेल रहे आम आदमी के पक्ष में है, इसका कोई जवाब किसानों को नहीं दिया जा सका है। हालांकि ये सारे प्रश्न जो इन सर्द रातों में सड़कों पर आकर किसानों ने उठाए हैं, यह उठाने की जिम्मेदारी विपक्ष की थी।
किसी भी लोकतान्त्रिक व्यवस्था में विपक्ष ही आम जनता का हथियार होता है। लेकिन यह कहने में कोई गुरेज नहीं होना चाहिए कि वर्तमान विपक्ष अपनी जिम्मेदारियों का निर्वहन करने में पूरी तरह अक्षम साबित हुआ है। इसलिए ही किसानों को खुद सड़कों पर आने के लिए मजबूर होना पड़ा है। इस आंदोलन की महत्वपूर्ण बात यह है कि जैसे-जैसे सरकार इस आंदोलन को लटकाकर किसानों को थका देना चाहती है, वैसे ही वैसे यह आंदोलन जोर पकड़ता जा रहा है। लाखों की संख्या में दिल्ली के अलग-अलग बॉर्डर पर कड़ाके की सर्दी झेल रहे यह किसान लंबी लड़ाई के लिए तैयार दिखाई देते हैं। सरकार के तमाम प्रयासों के बाद भी किसान नेता अपनी बात पर अडिग हैं।
किसी भी राजनीतिशास्त्री को यह पता है कि आंदोलन लोकतंत्र के लिए बहुत आवश्यक होते हैं। हमें यह बिलकुल नहीं भूलना चाहिए कि इन आंदोलनों की वजह से ही इस देश का हर व्यक्ति आज आजाद है। जिस आजादी की हवा में आज प्रत्येक भारतवासी सांस ले रहा है, इस आजादी के लिए स्वतंत्रता के योद्धाओं को अनगिनत आंदोलन और संघर्ष करना पड़ा था। इसलिए जो लोग आंदोलनों को गलत समझते हैं, इसका सीधा अर्थ यह माना जाना चाहिए कि उन्हें लोकतंत्र की परिभाषा भी ठीक तरीके से मालूम नहीं है। अगर किसी भी देश में आप लोकतंत्र की मौजूदगी को देखना चाहते हैं, तो वहां स्वाभाविक रूप से ही विरोध, आंदोलन और असहमति के अधिकार की उपस्थिति को ही देखना होगा।
कोई भी लोकतंत्र लोगों का, लोगों के लिए, लोगों के द्वारा शासन होता है। ऐसे भी लोकतान्त्रिक व्यवस्था में किसी भी सिस्टम को सुचारू रूप से चलाने के लिए फीडबैक व्यवस्था अति आवश्यक होती है। और लोकतंत्र में आंदोलन उसी फीडबैक का काम करते हैं। आंदोलन के इस दौर में एक तरफ किसान हैं और दूसरी तरफ सरकार है। लेकिन इस आंदोलन का एक महत्वपूर्ण पहलू किसी भी राजनीतिशास्त्री के लिए महत्वपूर्ण है। और वह है, इस समय विपक्ष की भूमिका। किसान आंदोलन के इस दौर में एक बार फिर इस देश के विपक्ष ने खुद के लचर और दिग्भ्रमित होने का सबूत दिया है। हालांकि भाजपा के लगातार बढ़ रहे प्रभाव में विपक्ष का बिखराब और कमजोरी पहले से ही महत्वपूर्ण रोल अदा करता रहा है।
देश की सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी इस महत्वपूर्ण समय में संघर्ष की हमराही बनने की बजाय अपने राष्ट्रीय अध्यक्ष को बनाने की लड़ाई में उलझी हुई दिखाई देती है, तो ज्यादातर क्षेत्रीय दलों के नेता अभी आपसी प्रतिद्वंदिता में फंसे हुए दिखाई देते हैं। उत्तर प्रदेश की राजनीति पर नजर डालें तो प्रदेश के तीन महत्वपूर्ण राजनीतिक दलों में अभी तक भी किसी के बड़े नेता ने गिरफ्तारी नहीं दी है और न ही इनमे से कोई सड़क पर संघर्ष के लिए तैयार दिखाई देता है। निश्चित ही सरकार के सामने विपक्ष बौना सिद्ध हुआ है। हालांकि उसके पास ऐसे किसी बड़े आंदोलन को मजबूती से समर्थन देने के अलावा कोई रास्ता नहीं बचा है।
विपक्ष को ठीक से ध्यान रखना चाहिए कि भाजपा को यहां तक पहुंचाने में भ्रष्टाचार के विरुद्ध चलाए गए अन्ना आंदोलन की सबसे महत्वपूर्ण भूमिका रही थी। उस आंदोलन में भारतीय जनता पार्टी और संघ ने यह समझ लिया था की तत्कालीन सत्ताधारी दल कांग्रेस से वह अपने दम पर नहीं लड़ पा रहे हैं। इसलिए उन्होंने अन्ना आंदोलन में पीछे रहकर बहुत महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। अन्ना आंदोलन में संघ और भाजपा के नेताओं ने अपनी कोई पहचान जाहिर किए बिना उस आंदोलन को सहयोग किया था। हालांकि हम सब यह भी जानते हैं कि जिन महत्वपूर्ण भ्रष्टाचार के मामलों को अन्ना आंदोलन का आधार बनाया गया था, उनमे से कुछ खास नहीं निकल पाया। सरकार बदलने के लगभग सात वर्षों बाद भी भाजपा की सरकार किसी एक भी आदमी को भ्रष्टाचार के आरोप में जेल नहीं भेज पाई न ही किसी को ऐसे किसी मामले में सजा ही हो पाई। अत: अब इस बात को पूर्णत: सही माना जा सकता है कि अन्ना आंदोलन केवल मात्र राजनीति का ही एक अंग था, लेकिन उसे उस समय के विपक्ष ने सूझबूझ से काम लेते हुए अपना हथियार बना लिया।
इसलिए आज पूरे विपक्ष को यह समझने की जरूरत है कि उन्हें अपने अंतर्विरोधों और बिखराव को समाप्त करके एकजुटता कायम करके इस आंदोलन की सफलता के लिए ताकत झोंक देनी चाहिए। अगर वह ऐसा नहीं कर पाता है तो विपक्षी पार्टियों को अभी अपनी और अधिक फजीहत और बिखराव के लिए तैयार रहना चाहिए।