एक बार एक नगर सेठ को व्यापार में गहरा घाटा हो गया। नगर सेठ बहुत परेशान रहने लगे। सोचने लगे दिन-रात व्यापार में ही मन लगाए रखता हूं फिर भी घाटा हो गया। उनके मन में ईश्वर के निर्णय के प्रति अविश्वास का भाव जागने लगा। वे सोचने लगे कि ईश्वर नाम की कोई चीज नहीं है। यही सोच कर परेशान रहने लगे। इसी बीच एक दिन उनके घर एक संत पधारे। सेठ जी और उनकी पत्नी ने उन्हें प्रणाम किया। पास ही सेठ जी का बच्चा अपने खिलौनों से खेल रहा था। पिता ने कहा, बेटा स्वामी जी को प्रणाम करो, पर बच्चा अपने खेल में व्यस्त रहा। उसने पिता की बात पर ध्यान नहीं दिया। पिता ने दोबारा बच्चे को थोड़े सख्त लहजे में अपनी दोहराई। लेकिन बच्चा फिर भी खिलौनों से खेलता रहा। पिता ने क्रोधित होकर उसके खिलौने छीन लिए और कहा, पहले स्वामी जी को प्रणाम करो।
बच्चे ने स्वामी जी को प्रणाम किया। पिता ने बच्चे के खिलौने लौटा दिए। संत ने कहा कि आपका मन कुछ उद्दिग्न लग रहा है। इस पर सेठ जी अपने मन की शंका संत से कहने लगे। संत ने कहा, अभी आपने देखा, अपने खिलौनों में रमे आपके बच्चे ने आपकी अर्थात अपने पिता की बात पर ध्यान नहीं दिया। तब आपने उसके खिलौने छीन लिए। जबकि आप उससे बहुत प्यार करते हैं। ठीक ऐसे ही जब आप सुख सुविधाओं से घिरे थे तो आप भी अपने परमपिता ईश्वर की बात पर ध्यान नहीं दे रहे थे, परिणामतय: उसने आपसे यह धन छीन लिया। उसके बताए अनुसार धर्म और लोक कल्याण में भी कुछ मन लगाएं। परमपिता फिर से आपका धन लौटा देगा।
-डॉ प्रशांत अग्निहोत्री