संसद के शीतकालीन सत्र के दौरान इस बार जिस तरह की तस्वीरें सामने आईं, संभवत: उन तस्वीरों ने करोड़ों देशवासियों के मन में एक सवाल जरूर पैदा कर दिया होगा कि हम सांसद क्यों चुनते हैं? क्या इसलिए कि संसद में जाकर उनके चुने हुए प्रतिनिधि हंगामा करें, धक्का-मुक्की करें? बीती 19 दिसंबर को संसद परिसर में विरोध प्रदर्शन के दौरान जाने-अनजाने ऐसा हंगामा हुआ कि धक्का-मुक्की की बातें सामने आईं। दो सांसदों को अस्पताल में भर्ती कराना पड़ा। जो सांसद कानून बनाते हैं, वही एक-दूसरे के खिलाफ रपट लिखवाने थाने पहुंच गए। लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी के खिलाफ एफआईआर भी दर्ज कराई गई।
संसद के इतिहास में 19 दिसंबर 2024 को काला दिन बताया जा रहा है, लेकिन बड़ा सवाल यह है कि क्या ऐसे ही दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र की संसद चलेगी? क्या हमारे सांसदों की सहनशक्ति या सुनने की क्षमता दिनों-दिन कम होती जा रही है? क्या हमारे माननीय सिर्फ आरोप-प्रत्यारोप करते हुए एक-दूसरे को घेरने में सारी ऊर्जा खर्च कर रहे हैं? क्या सत्ता पक्ष-विपक्ष का मकसद सिर्फ हंगामा खड़ा करना रह गया है? आखिर संसद चलाने की जिम्मेदारी किसकी है-सत्ता पक्ष की या विपक्ष की? संसद में गंभीर मुद्दों पर सार्थक चर्चा कम क्यों होती जा रही है? आज ऐसे ही सवालों के जवाब तलाशने की कोशिश करते हैं? संसद के शीतकालीन सत्र की 20 संसद में संविधान की 75 वर्षों की गौरवशाली यात्रा पर बहस हुई, लेकिन उस बहस का लब्बोलुआब क्या निकला? लोकसभा में 15 घंटे 43 मिनट और राज्यसभा में 17 घंटा 41 मिनट तक सांसदों ने अपनी राय रखी। संसद में बहुत सार्थक बहस का मौका पक्ष-विपक्ष दोनों के पास मौका था, लेकिन दोनों पक्षों के ज्यादातर सदस्य अटैक इज बेस्ट डिफेंस वाली रणनीति के साथ चर्चा को आगे बढ़ाते रहे। बहस के दौरान कई बार ऐसा लग रहा था कि चर्चा संविधान के 75 साल पर नहीं इमरजेंसी के 49 साल पर हो रही हो। हम संसदीय कार्यवाही को अब एक ‘तमाशा’ मानते हैं, क्योंकि कुछ भी सकारात्मक नहीं होता। संसद में सत्ता और विपक्ष दोनों ही अनिवार्य और पूरक पक्ष हैं। बेशक संसद चलाने की जिम्मेदारी सत्ता पक्ष की है, क्योंकि वह ही विधेयक और अन्य प्रस्ताव तैयार करता है। कैबिनेट को जनादेश हासिल है, लिहाजा वह ही बुनियादी और शुरूआती तौर पर बिलों और प्रस्तावों को स्वीकृति देती है। विपक्ष की भूमिका ‘दुश्मन’ और ‘नफरती पक्ष’ की ही नहीं होनी चाहिए, क्योंकि संविधान में उसे ‘प्रतिपक्ष’ माना गया है। संसद जिद अथवा दुश्मनी-भाव से नहीं चल सकती, क्योंकि जो भी बिल और प्रस्ताव संसद में पारित किए जाते हैं, वे पूरकता में ही होने चाहिए। दोनों पक्षों की सहमति और असहमति स्पष्ट होनी चाहिए। अंतत: मतविभाजन अथवा ध्वनि-मत से बिल और प्रस्ताव पारित किए जाएं, लेकिन मोदी सरकार के 11वें साल तक राजनीति और संसदीय कार्यवाही ‘दुश्मनी-भाव’ की ही रही है।
हालांकि पहले 10 साल में विपक्ष बेहद कमजोर रहा, लेकिन 18वीं लोकसभा में कांग्रेस और विपक्ष के आंकड़े कुछ ताकतवर हैं, नतीजतन संसद सही अर्थों में ‘अखाड़ा’ या ‘सब्जी मंडी’ बनकर रह गई है। यदि लोकसभा की कार्यवाही एक दिन न चले, तो 9 करोड़ रुपए और राज्यसभा की कार्यवाही लगातार स्थगित होती रहे, तो एक दिन में 5.5 करोड़ रुपए का नुकसान हो जाता है। क्या यह पैसा खैरात का है अथवा जॉर्ज सोरोस ही यह फंडिंग करता है? हमें बार-बार सोचने और क्षुब्ध होने को बाध्य होना पड़ रहा है कि क्या संसद के मायने हंगामे, नारेबाजी और विप्लवी स्थितियां ही हैं? क्या देश के गणतंत्र और संवैधानिक कार्यों के लिए ऐसी ही संसद की जरूरत है? नफरत और दुश्मनी की सियासत के लिए क्या संसद चाहिए अथवा उसकी कोई सार्थक भूमिका और जरूरत नहीं है? आम जनता में यहां तक टिप्पणियां की जाने लगी हैं कि हमें संसद की जरूरत ही क्या है, जब संसद में कार्यवाही तो बाधित ही रहती है? सवाल है कि सांसद हर बार माहौल क्यों नहीं बनाते? क्या सांसद केवल हंगामा करने के लिए ही पहुंचते हैं? सांसदों ने लोकसभा को पंगु बना कर रख दिया है। बार-बार हंगामा करने वाले सांसदों को चिन्हित किया जाए और उनकी सूची प्रचारित कराई जाए। ऐसे नियम बनाए जाएं कि वेल में आने या पर्चा लहराने या दूसरा किसी भी किस्म का हंगामा करने वाले सांसद के खिलाफ खुद-ब-खुद कोई तय कार्यवाही हो जाए।
संसद चलाने की जिम्मेदारी जितनी सत्ता पक्ष की है, उतनी ही विपक्ष की भी है। सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों को शक्तियां संसद से मिलती हैं। सोशल मीडिया की वजह से भी राजनीतिक दलों पर दबाव कई गुना बढ़ा है। सोशल मीडिया पर अपने प्रशंसकों को खुश करने के चक्कर में या लोगों की वाहवाही के लिए कई बार शब्दों की लक्ष्मण रेखा पार होती दिखती है। आज की राजनीति की सबसे बड़ी समस्या यह है कि सत्ता पक्ष और विपक्ष में संवाद की कड़ियां जोड़ने वाले नेताओं का अकाल पड़ गया है। दोनों ओर ऐसे नेताओं की भारी कमी है, जो बातचीत के सिलसिले को आगे बढ़ाने में एक असरदार कड़ी की भूमिका निभा सकें। भारत जैसे विशाल लोकतांत्रिक देश में विपक्ष की भूमिका भी बहुत जिम्मेदारी का काम है। संसदीय लोकतंत्र में विपक्ष का काम है, सरकार के फैसले में कमियां निकालना और लोगों से जुड़े मुद्दों को उठाना तो सत्ता पक्ष का काम है विपक्ष को साधते हुए संसद चलाना, आगे बढ़ना। यहां मसला केवल आमजन के कल्याण का ही नहीं, स्वस्थ लोकतांत्रिक प्रणाली और व्यवस्था की गरिमा को बचाने का भी है।