Monday, April 28, 2025
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नजरिया: महिलाओं के प्रति समानता लाने की जरूरत


योगेश सोनी
योगेश सोनी
 हर वर्ष 26 अगस्त को अंतराष्ट्रीय महिला दिवस मनाया जाता है। वर्ष 1893 में इसकी शुरुआत न्यूजीलैंड में हुई थी। यदि भारत के परिवेश में इसकी चर्चा करें तो देश आजादी के बाद महिलाओं को मतदान करने का अधिकार मिल गया था, लेकिन पंचायतों और नगर निकायों में लड़ने का अधिकार 73वें संशोधन के माध्यम से मिला था। आज इस वजह से हमारे देश की पंचायतों में महिलाओं की पचास प्रतिशत से अधिक हिस्सेदारी बन गई। केंद्र व राज्य सरकारें हमेशा महिलाओं के उत्थान  के लिए काम करती आ रही हैं। स्थिति यह है राजनीति के साथ अन्य सभी क्षेत्रों में महिलाओं का योगदान बड़े स्तर पर देखा जा रहा है , लेकिन वहीं दूसरी ओर महिलाओं पर बढ़ रहे अपराधों की वजह से सभी तरक्की शून्य सी लगती है। हर रोज महिलाओं के विरुद्ध हिंसा की घटनाएं हो रही हैं। बलात्कार, छेड़छाड़,  अपहरण, एसिड अटैक, हत्या, दहेज हत्या, हॉनर किलिंग,  भ्रूण हत्या  के अलावा कई तरह के घिनौने अपराध के आंकड़े बढ़ रहे हैं।
आज भी हमारे देश में कुछ लोग लड़कियों का तरक्की करना व्यर्थ समझते हैं, जिस वजह से हम हर रोज टैलेंट को मार रहे हैं। जो लोग लड़कियां पैदा होने पर अपना दुर्भाग्य समझते हैं, वो गीता व बबीता फोगाट, साइना नेहवाल, मिताली राज के अलावा तमाम इन जैसी लड़कियों की जिंदगी को समझ लें। गांव के परिवेश में आज भी लड़कियों को इस इतना भी हक नही हैं कि वो अपनी मर्जी से अपनी जिंदगी जी सकें। विरोध करने पर जान से तक मार दिया जाता है। हमारे देश में तेजी से कामयाबी की ओर अग्रसर होने वाली तस्वीर को कुछ लोगों की वजह से ग्रहण लग रहा है। महिलाओं को सामाजिक तौर पर स्थान तो दे दिया, लेकिन उनके प्रति सोच को साफ करने का काम अभी बाकी है। सरकार की ओर से शिक्षा के लिए प्रेरित व जागरूक करने के लिए कैंप लगाए जाने व योजनाओं को भी अंजाम देना जारी है, लेकिन  साक्षरता दर में महिलाएं आज भी पुरुषों से पीछे हैं। हालांकि वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार महिलाओं की साक्षरता दर में करीब 13 प्रतिशत की वृद्धि जरूर हुई है, लेकिन बिहार व अन्य कुछ राज्यों में महिला साक्षरता दर अभी भी साठ प्रतिशत से नीचे है। हम इस बात को भलिभांति जानते हैं कि शिक्षा ही ऐसा माध्यम है, जिससे हम सभ्य व सश्क्त समाज का निर्माण कर सकते हैं। फिर न जाने क्यों अंजान बनकर आने वाली पीढ़ियों को संकट में डाल रहे हैं। यह बात भी स्पष्ट लड़कों की अपेक्षा लड़कियों की पढ़ाई-लिखाई में रुचि अधिक होती है व शिक्षा के प्रति ज्यादा गंभीर होती है। लेकिन इसके बावजूद लड़कियों का ज्यादा पढ़ना व्यर्थ माना जाता है। पिछले तीन दशकों से बड़े व अहम पदों पर महिलाओं को आने से महिला सशक्तिकरण बढ़ा है। समाज में बराबर का हक मनावाने वाली महिलाओं ने देश व दुनिया में नाम रोशन किया है। लेकिन कुछ लोग ऐसी महिलओं से प्रेरणा लेने की बजाए उनको गलत नजरिये से देखते हैं। ऐसों लोगों को घटिया मानसिकता की वजह से हम आगे बढ़ने की स्पीड धीमी पड़ जाती है। लेकिन भारत की मिसाइल महिला कहे जाने टेसी थॉमस, हमारे देश की सबसे बड़ी महिला व्यापारी किरन मजमूदार, देश की पहली महिला आईपीएस किरण बेदी, पूर्व महिला विदेश सेवा की अधिकारी निरुपमा रॉव के अलावा तमाम ऐसी दमदार महिलाएं देश व दुनिया के आइडियल बनी हैं। यह सभी परिवर्तन युग की प्रमाण हैं जिन्होंने महिलाओं को उनका हक व कीमत समझाई है।
दरअसल, मामला यह है कि भारत जैसे अधिक जनसंख्या वाले देश में में न जाने कितने देश हैं। हमारे यहां हर किसी भी चीज को एप्लाई करना बेहद कठिन है। यदि शासन व प्रशासन द्वारा दिए गए नियम व पालन या सरकार द्वारा बनाई गई योजना का फायदा लेना चाहता है तो उसे आसपास के वो लोग इतना नेगेटिव कर देते हैं, जैसे उससे उनको कोई भारी नुकसान हो जाएगा। और जब बात लड़कियों व महिलाओं के उत्थान की आए तो वो ऐसा महसूस करते हैं कि यदि लड़की पढ़-लिख कर कुछ बन गई तो उससे हमारा वजूद खत्म हो जाएगा। ऐसे चंद लोगों की बीमार या यू कहें कि घटिया सोच न जाने कितनी बच्चियों व महिलाओं के सपने कुचले जाते हैं। जबकि आज हमें पूरी दुनिया में एक अलग नाम व पहचान मिल रही है। हर किसी के जीवन में चुनौतियां होती हैं, लेकिन इस बात को भी कहां भूला देते हैं कि जो धरातल पर मेहनत करके लड़ा नहीं, वह महान योद्धा नही माना जाता। फिल्म में काम करने वालों को हीरो कहा जाता है, लेकिन हीरो शब्द की सच्चाई यह है जो हर तरह की चुनौतियां से लड़कर आगे बढ़ता है उसे असली हीरो कहा जाता है।
जितना सहयोग हम लड़कों का करते हैं, यदि इससे आधे से भी कम हम लड़कियों का कर दें तो लड़कियां बहुत बेहतर कर सकती हैं और जिनको मौका मिलता है, वो करके दिखा भी रही हैं। इसलिए सोच को स्वच्छ रखें और बाहरी मन से नहीं, आंतरिक रूप से भी समानता का अर्थ समझें।
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