- प्रदेश के सबसे पुराने छह मेडिकल कॉलेजों को बनाया जाना है मिनी एम्स
- बर्न वार्ड तक शुरू नहीं, फायर डिपार्टमेंट नहीं
- बायो मेडिकल इंजीनियर नहीं और इलेक्ट्रिक हेड तक नहीं है मेडिकल में
जनवाणी संवाददाता |
मेरठ: मेडिकल कॉलेज प्रदेश के उन छह कॉलेजों में शामिल है, जिन्हें सरकार ने मिनी एम्स का दर्जा देने की घोषणा की है, लेकिन यहां पर सुविधाओं का भारी आभाव है, ऐसे में कैसे मिनी एम्स का दर्जा मिलेगा यह सोचने वाली बात है। वहीं, मेडिकल प्रशासन द्वारा उपलब्ध संसाधनों से ही मरीजों को अच्छी स्वास्थ्य सेवाएं देने का पुरजोर दावा किया जा रहा है।
इंजीनियर और इलेक्ट्रीशियन हेड नहीं
मेडिकल कॉलेज में न तो इंजीनियर हेड है न ही इलेक्ट्रीशियन हेड, ऐसे में कॉलेज में टेक्निकल का काम करने वाले कर्मचारियों से काम लेने की जिम्मेदारी सभी 22 विभागों के एचओडी की है। बिजली व दूसरी समस्याएं आने पर विभाग से जुड़े कर्मचारी किसके निर्देशों में काम करे यह बड़ी समस्या है।
कर्मचारी जिस समय काम करते है उस समय विभाग के एचओडी उनका मार्ग दर्शन करते है। बिना हेड के कर्मचारी अपनी मर्जी से कार्य करते है और उनकी जवाबदेही भी निर्धारित करने वाला कोई नहीं है। अब विभागों के हेड अपने विभाग में भर्ती मरीजों को मिलने वाली स्वास्थ्य सेवाओं पर ध्यान केन्द्रित करें या कर्मचारियों से काम ले यह बड़ी समस्या है।
फायर डिपार्टमेंट नहीं
मेडिकल कॉलेज में 500 से ज्यादा बेड है। जिन पर हर समय मरीजों का इलाज किया जाता है। हर विभाग में आग से बचाव के लिए अग्निशमन यंत्र तो है, लेकिन इन्हें आॅपरेट करने के लिए कोई कर्मचारी नहीं है। ऐसे में किसी भी हादसे के समय विभाग के स्टाफ को ही इन अग्निशमन यंत्रों को प्रयोग करना होता है,
लेकिन जिन कर्मचारियों को मरीजों का इलाज करने का अनुभव है। वह आग से कैसे लड़े यह बड़ा सवाल है। साथ ही कर्मचारियों को आग से लड़ने का अनुभव भी नहीं है, यह एक बड़ी चूक है। हादसा होने पर मेडिकल में शहर से आग से लड़ने वाले फयरब्रिगेड के अधिकारी व कर्मचारियों पर ही निर्भर रहना होगा।
बजट का अभाव
एएमसी व पीएमसी के लिए बजट नहीं है, ऐसी का कार्य चल रहा है, लेकिन बजट नहीं है। जिस कंट्रेक्टर से मेटेंनेंस का काम लिया जाता है। वह अपनी जेब से खर्च करते हुए मेटेंनेंस कार्य कराते है। कार्य पूरा होने पर शासन को बिल भेजा जाता है जिसका भुगतान बाद में आॅडिट होने पर होता है,
लेकिन किसी कारणवश यदि पेमेंट रुक जाता है तो कांट्रेक्टर का पैसा डूबने का खतरा रहता है। ऐसे में मेडिकल कॉलेज में मेटेंनेंस के लिए बजट पहले से ही होना चाहिए। जिससे कॉलेज में इस कार्य को पूरा कराया जा सके।
बर्न यूनिट की बिल्डिंग बनी हुई है शोपीस
मेडिकल कॉलेज में जले हुए मरीजों को अलग से इलाज देने के लिए बर्न यूनिट बिल्डिंग तैयार है, लेकिन लंबे समय से इसके लिए स्टाफ नहीं मिल पा रहा है। ऐसे में बिल्डिंग केवल शोपीस बनकर रह गई है। मेरठ या कहीं भी बड़ा हादसा होने पर झुलसे हुए मरीजों का कैसे और कहां इलाज होगा यह बड़ा सवाल है?
स्टाफ की कमी
मेडिकल कॉलेज के लिए विभिन्न विभागों में दो हजार पोस्ट खाली है। जिनको पांच सालों में भरना है, लेकिन एक साल में कितना स्टाफ रखा जाएगा यह शासन को निर्णय लेना है। कॉलेज प्रशासन ने कई बार लिखित में शासन से स्टाफ की मांग पूरी करने को कहा है,
लेकिन शासन से लंबे समय से अनुमोदन नहीं आया है। अब इमरजेंसी जैसी महत्वपूर्ण जगह पर भी स्टाफ की भारी कमी है, बेहद कम स्टाफ से किसी तरह काम कराया जा रहा है।
मेडिकल कॉलेज के प्रधानाचार्य प्रो. आरसी गुप्ता का कहना है कि उनके पास जितने संसाधन है। वह उन्ही के द्वारा मरीजों को स्वास्थ्य सेवाएं उपलब्ध करा रहे हैं। कुछ जगह पर स्टाफ को लेकर समस्या है। नया स्टाफ नहीं मिलने से परेशानी हो रही है।