Wednesday, June 25, 2025
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10 मई 1857 की पहली क्रांति में अविस्मरणीय रहा मेरठ का योगदान

  • भारतीय सिपाहियों ने विद्रोह का बिगुल बजाते हुए मेरठ कैंट में 50 अंग्रेज सिपाहियों को मार डाला था

जनवाणी संवाददाता |

मेरठ: 10 मई 1857 की मेरठ से उठी क्रांति ने अंग्रेजी हुकूमत की नींव हिलाकर रख दी थी। इसी दिन अंग्रेज सेना में काम करने वाले भारतीय सिपाहियों ने विद्रोह का बिगुल बजाते हुए मेरठ कैंट में 50 अंग्रेज सिपाहियों को मार डाला था। हालांकि इस विद्रोह की भूमिका काफी दिन पहले से बन रही थी। भारतीय सैनिकों की नाराजगी की बड़ी वजह वह आदेश था जिसकी वजह से उन कारतूसों को चलाने के लिए कहा गया जो चर्बी से बने थे। जिसके चलते अंग्रेज सेना में काम करने वाले भारत के सभी सिपाही बेहद नाराज थे।

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सैनिकों को लग रहा था कि ब्रिटिश सरकार जान-बूझकर उन्हें परेशान कर रही है। यही असंतोष क्रांति का कारण बना और चिंगारी से ज्वाला का रूप धारण कर गया। जिसमें मेरठ के असंख्य क्रांतिकारियों ने स्वतंत्रता संग्राम में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेते हुए अपने प्राणों तक की आहूति दी। इनमें से कई गुमनाम रहे, लेकिन जो आज भी याद किए जाते हैं। इन क्रांतिकारियों के बारे में जो जानकारी विभिन्न स्रोतों से मिलती है, उसे जानने का प्रयास करते हैं।

  1. कोतवाल धनसिंह: 1857 की क्रांति में कोतवाल धनसिंह का अहम योगदान था। क्रांति के समय अंग्रेज अफसरों के आदेश के बावजूद धनसिंह ने क्रांतिकारियों के खिलाफ कार्रवाई नहीं की। इस दौरान धन सिंह कोतवाल ने अपनी जान पर खेलकर क्रांतिकारियों को अहम सूचनाएं भी पहुंचाई। इसीलिए अंग्रेज सरकार ने उन्हें फांसी की सजा सुनाई।
  2. बाबू कुंवर सिंह: 1857 की 10 मई को मेरठ के भारतीय सैनिकों की स्वतंत्रता का उद्घोष के दौरान बाबू कुंवर सिंह मेरठ में थे। क्रांति का समाचार मिलते ही इन्होंने मेरठ से पूरे देश में जासूसों का जाल बिछा दिया। छावनी के भारतीय सैनिक तो तैयार ही बैठे थे। तीन पलटनों ने स्वराज की घोषणा करते हुए अंग्रेजों के खिलाफ शस्त्र उठा लिये। छावनी के अंग्रेजों मारकर क्रांतिकारी भारतीय सैनिक दिल्ली की ओर चल पड़े। सैनिक जानते थे कि अंग्रेजों से लड़ने के लिए कोई योग्य नेता होना जरूरी है। जिसके लिए बाबू कुंवर सिंह ने भारतीय सैनिकों को दिशा-निर्देश देने का काम बखूबी अंजाम दिया।
  3. नाहर सिंह: 1857 क्रांति के समय बागपत (तत्कालीन मेरठ) के पास जाटों की रियासत के नवयुवक राजा नाहर सिंह बहुत वीर, पराक्रमी और चतुर थे। दिल्ली के मुगल दरबार में उनका बहुत सम्मान था और उनके लिए सम्राट के सिंहासन के नीचे ही सोने की कुर्सी रखी जाती थी। मेरठ के क्रांतिकारियों ने जब दिल्ली पहुंचकर उन्हें ब्रितानियों के चंगुल से मुक्त कर दिया और मुगल सम्राट बहादुरशाह जफर को फिर सिंहासन पर बैठा दिया तो सवाल आया कि दिल्ली की सुरक्षा का दायित्व किसे दिया जाए। इस समय तक शाही सहायता के लिए मोहम्मद बख्त खां 15 हजार की फौज लेकर दिल्ली पहुंच चुके थे। उन्होंने भी यही उचित समझा कि दिल्ली के पूर्वी मोर्चे की कमान राजा नाहर सिंह के पास ही रहने दी जाए।
  4. हवलदार मातादीन: क्रांति की अलख जगाने वाले 85 सैनिकों की सूची में हवलदार मातादीन का नाम पहले नंबर है। इसकी पुष्टि सरजी डब्लू फॉरेस्ट के लिखे स्टेट पेपर्स और जेबी पामर की 1857 के विद्रोह का आरंभ किताब में होती है। इसके साथ ही शहीद स्मारक पर लगे शिलापट पर भी हवलदार मातादीन का नाम पहले नंबर पर अंकित है। हालांकि नाम के आगे कुछ नहीं लिखा है। चर्बी वाले कारतूस के प्रयोग के इंकार के बाद इन 85 सैनिकों जिनको विक्टोरिया पार्क स्थित जेल मेरठ में कैद किया गया था। 10 मई की शाम इनके सैनिक साथियों ने हवलदार मातादीन के साहसिक पराक्रम के माध्यम से शाम को जेल से मुक्त करा लिया था। इसके उपरांत सभी दिल्ली के लिए कूच कर गए। इसके बाद अंग्रेजी हुकुमत के विरुद्ध विद्रोह पैदा हो गया था। क्रांति की अलख जगाने वाले इन 85 सैनिकों में हवलदार मातादीन अग्रणी थे।
  5. राव रोशन सिंह: राव रोशन सिंह एक ऐसा क्रांतिकारी जो मेरठवासियों के लिए एक गुमनाम चेहरा है। कस्बा दोघट के राव रोशन सिंह क्रांतिकारियों को छुपाने का काम करते थे। इसके साथ ही वे क्रांतिकारियों की गुप्त बातें इधर से उधर पहुंचाने का काम करते थे। दोघट में राव रोशन सिंह की बड़ी हवेली थी। जिसके नीचे एक बड़ा तहखाना था। इतिहासकारों के अनुसार इसी तहखाने में क्रांतिकारियों की गुप्त बैठकें होती थीं। 1857 की क्रांति के बाद राव रोशन सिंह की यह हवेली कई सालों तक क्रांतिकारियों की गतिविधियों का केंद्र बनी रही थी।

अंग्रेज अफसर रिचर्ड विलियम्स ने दिया क्रांतिकारियों का साथ

प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में जहां भारत की जनता ने पग-पग पर क्रांतिकारियों का साथ दिया। वहीं कुछ अंग्रेजों ने भी इसमें भारत की स्वतंत्रता के लिए शस्त्र उठाकर स्वतंत्रता सेनानियों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर लड़ाई लड़ी। इनमें से एक थे रिचर्ड विलियम्स। ब्रिटेन में पैदा हुए रिचर्ड विलियम्स ब्रिटिश सिपाही के रूप में भारत आए। सन 1857 के गदर के समय इनकी नियुक्ति मेरठ के रिसाले (घुड़सवार टुकड़ी) में थी।

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मेरठ छावनी में क्रांति की ज्वाला धधक उठी। रिसाले के सैनिकों को क्रांतिकारियों पर गोली चलाने का हुक्म दिया गया, लेकिन रिचर्ड विलियम्स ने इस आदेश की अवहेलना करते हुए ब्रिटिश अधिकारी एडजुटेंट टकर को गोली मार दी और स्वतंत्रता सेनानियों से जा मिले। विलियम्स ब्रिटेन की साम्राज्यवादी नीति के घोर विरोधी थे। क्रांतिकारियों के साथ विलियम्स दिल्ली जा पहुंचे और उन्होंने तोपखाने का संचालन करते हुए दिल्ली को स्वतंत्र कराने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। रिचर्ड इसके बाद मरते दम तक मेरठ में ही रहे।

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