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प्रकृति की अपनी एक व्यवस्था है, जिसमें भरपूर उत्पादन होता है, वह भी बिना रासायनिक खाद और कीटनाशक का इस्तेमाल किए। इस उत्पादन को वही व्यक्ति प्राप्त कर सकता है, महसूस कर सकता है जिसके पास प्रकृति के नियम-कायदों, कानूनों को समझने का नजरिया है। लालच और अंहकार में डूबे व्यक्तियों को यह उत्पादन दिखेगा ही नहीं, क्योंकि ये लोग प्रकृति के सहायक हैं ही नहीं। वर्तमान में जलवायु परिवर्तन सुविधाभोगी आधुनिक इंसान के लिए बहुत बड़ी चुनौती बनकर सामने आ रहा है। दिन-ब-दिन यह समस्या बढ़ती ही जा रही है, पर मजाल है कि किसी व्यक्ति के कान पर जूं भी रेंग जाए। व्यक्ति तो छोड़िए, सरकारों के कानों पर भी जूं नहीं रेंग रही है, सिर्फ बड़ी-बड़ी घोषणाएँ हो रही हैं, पर जमीनी स्तर पर सब ‘निल-बटे-सन्नाटा’ ही पसरा हुआ है।
प्रकृति हमको मुफ्त में बेशकीमती सौर ऊर्जा दे रही है, असंख्य जड़ी-बूटियाँ दे रही है, असंख्य वनस्पतियाँ दे रही है। बहुमूल्य खनिज तत्व भी इसी प्रकृति की देन हैं। पानी और हवा तो बहुत ही महत्वपूर्ण हैं, जिनके बिना जीना संभव ही नहीं है। इसे दुर्भाग्य ही कहेंगे कि पृथ्वी पर 70 प्रतिशत पानी होने के बावजूद और हर वर्ष इतनी वर्षा होने के बाद भी हमको जल-संकट का सामना करना पड़ता है।
इतने आधुनिक और तकनीक से युक्त होने के बावजूद हम यह समझने को तैयार नहीं है कि ये प्राकृतिक साधन सीमित हैं, इसलिए इनका इस्तेमाल हमें संयम के साथ करना है। हम तो अंधाधुंध इन सीमित संसाधनों का दोहन अपने लालच के लिए कर रहे हैं और इसीलिए साल-दर-साल कोई-न-कोई प्राकृतिक आपदा दुनिया में आती ही रहती है।
आधुनिक मानव उस आपदा के सामने घुटने टेक देता है, फिर भी इन आपदाओं से कुछ सीख नहीं पा रहा है। इंसान की याद्दाश्त बहुत कमजोर हो गई मालूम होती है, इसीलिए हर आपदा को वह तुरंत भूल जाता है और पूर्ववत लालच भरी भागमभाग में लग जाता है।
तो हमें क्या करना चाहिए? यहां हम इस पर बात नहीं करेंगे कि दुनिया भर की सरकारों को क्या करना चाहिए, क्योंकि वह हमारे हाथ में नहीं है। हम तो इस पर बात करेंगे कि किसान होने के नाते, भू-स्वामी होने के नाते और एक धरतीवासी होने के नाते हम क्या कर सकते हैं। हमको करना यह होगा कि भूलने की आदत को सुधारना होगा।
बारम्बार आ रहीं आपदाओं को खतरे की घंटी मानना होगा और भविष्य में इन आपदाओं की तीव्रता और न बढ़े, इसके लिए अपने लालच पर लगाम लगाना सीखना होगा। प्राकृतिक संसाधनों का अंधाधुंध दोहन बंद करना होगा। हमें आवश्यक और अनावश्यक में अंतर करना सीखना होगा। हमें अपने उपभोग की गति का प्रकृति के पुनर्चक्रण की गति से सामंजस्य बैठाना होगा।
दूसरा काम, हमें प्रकृति के पुनर्चक्रण में सहयोग करना होगा। मतलब, हम प्रकृति से जितना ले रहे हैं, उतना ही वापस लौटाने का संकल्प करना पड़ेगा। पूरी दुनिया लेन-देन पर टिकी है, हमारा हर व्यवहार लेन-देन पर ही आधारित है, तो फिर प्रकृति के मामले में हम इस बात को कैसे भूल जाते हैं? पहले यदि कोई रिश्तेदार या पड़ोसी कोई वस्तु आपको देने घर आता था तो लोग उसको खाली हाथ नहीं जाने देते थे, बल्कि उसी के बर्तन में कुछ-न-कुछ भरकर वापस देते थे।
मतलब, उसने जितना दिया उसके बदले उसे हमने भी कुछ लौटाया। हमें प्रकृति के साथ भी यही करना है। यदि हम प्रकृति से 100 प्रतिशत तत्व ले रहे हैं तो कम-से-कम 70 प्रतिशत तो उसे लौटाएं, तब जाकर संतुलन बनेगा और तब हम भी खुश रहेंगे और प्रकृति भी खुश रहेगी।
हमें पुनर्चक्रण में प्रकृति का सहयोग करना ही होगा, क्योंकि यदि प्रकृति स्वयं को पुनर्चक्रित नहीं कर पाई तो हम सबका मरना तय है। तो पुनर्चक्रण में सहयोग के लिए किसान भाइयों को क्या करना चाहिए? कृषि उत्पादन के लिए आप प्रकृति से जो दो चीजें सबसे अधिक ले रहे हैं उन्हें प्रकृति को वापस लौटाइए।
कौन सी दो चीजें? पानी और पेड़। पानी की सबसे ज्यादा खपत खेती में होती है और खेती के लिए साल-दर-साल अधिकाधिक जंगल साफ किए जा रहे हैं। इसीलिए इन दो चीजों की भरपाई की हमारी जिम्मेदारी बनती है। कैसे करेंगे?
इसके लिए हमें अपने-अपने खेतों में छोटे-छोटे तालाब एवं कुएं बनवाने होंगे और खूब सारे पेड़ लगाने होंगे। किसानों को कुल जमीन के 10 प्रतिशत हिस्से में बागवानी और 10 प्रतिशत हिस्से में तालाब या कुँए की व्यवस्था करनी चाहिए। तालाब और कुँए बनाने से जहाँ एक ओर सिंचाई के लिए भरपूर पानी उपलब्ध होगा, वहीं खेत की मिट्टी और हवा में नमी बढ?े से उत्पादन में वृद्धि होगी।
साथ ही भू-जल स्तर भी बढ़ेगा। बागवानी से पेड़ों की संख्या में इजाफा होगा, जिससे तापमान कम होगा, वातावरण में कार्बन का स्तर घटेगा और बारिश बढ़ेगी। मिट्टी का क्षरण रुकेगा, जमीन अधिक उपजाऊ बनेगी।
हमें अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के वैकल्पिक स्त्रोत तलाशने होंगे, ताकि प्रकृति को नुक्सान पहुंचाने वाले काम बंद हो सकें। उदाहरण के तौर पर, आज बिजली हमारे लिए उतनी ही महत्वपूर्ण हो गई है जितनी कि हवा।
बिजली के बिना कोई भी काम होता नहीं, लेकिन अधिकांश बिजली कोयला जलाकर पैदा की जाती है और कोयले का दहन जलवायु परिवर्तन की समस्या का सबसे बड़ा कारण है। इसका दूसरा बड़ा कारण है, जीवाश्म ईंधनों (पेट्रोल, डीजल और रसोई गैस) का दहन। यदि हम अपनी बिजली और अपना ईंधन किन्हीं और स्त्रोतों से प्राप्त कर सकें तो हम प्रकृति को प्रदूषित होने से बचा सकते हैं।
हम किसान भाइयों को अधिक-से-अधिक सोलर-ऊर्जा का उपयोग करना चाहिए, घरों में भी और खेतों में भी। यदि हर खेत में सोलर पंप लगा दिए जाएँ तो बिजली की बचत होगी। ईंधन के लिए गोबर-गैस या बॉयो-गैस का उपयोग बहुत अच्छा विकल्प है। तीसरी चीज है, प्राकृतिक खाद का उपयोग।
रासायनिक खाद एवं कीटनाशकों के उत्पादन एवं परिवहन में बड़ी मात्रा में ऊर्जा खर्च होती है तथा जीवाश्म ईंधनों का उपयोग होता है, साथ ही ये रासायनिक उर्वरक व कीटनाशक मिट्टी, पानी और हवा को भी बुरी तरह प्रदूषित करते हैं।
इनके स्थान पर प्राकृतिक उर्वरकों का उपयोग करें। एकल फसल खेती से मिट्टी में पोषक तत्वों की कमी हो जाती है और जैव-विविधता खतरे में पड़ जाती है, इसलिए हमें चाहिए कि हम बहुफसलीय खेती करें, इससे खेती में हमारा जोखिम भी कम होगा और प्रकृति का संतुलन भी बना रहेगा।
इस बात का ध्यान हमेशा रखें कि हमें प्रकृति को नुकसान पहुंचाने वाला कोई कार्य नहीं करना है, फिर चाहे आप किसी भी व्यवसाय में क्यों न हों। यह दृढ़ निश्चय हर व्यक्ति को करना होगा कि ‘लालच से नाता तोड़ो, प्रकृति से नाता जोड़ो।’
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