Thursday, January 16, 2025
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नई दिल्ली पुस्तक मेले को विश्व स्तर का बनना होगा

Ravivani 28


पंकज चतुर्वेदी |

पुस्तक मेला के दौरान बगैर किसी गंभीर योजना के सेमिनारों, पुस्तक लोकार्पण आयोजनों का भी अंबार होता है। कई बार तो ऐसे कार्यक्रमों में वक्ता कम और श्रोता अधिक होते हैं। यह बात भी अब किसी से छिपी नहीं है कि अब एक ही तरह की विचारधारा के लोगों को आयोजक द्वारा निर्धारित ‘लेखक मंच’ में समय दिया जाता है। असल में यह स्थान भागीदार प्रकाशकों के लिए बना था कि वे अपने स्टाल पर लोकार्पण आदि न करें और इससे वहां भीड़ न जमा हो। लेकिन लेखक मंच राजनीतिक मंच बन गया और प्रकाशक यथावत अपने स्टाल पर आयोजन करते हैं।

52 साल पहले 18 मार्च से 04 अप्रैल 1972 तक नई दिल्ली के विंडसर पैलेस के मैदान में कोई 200 भागीदारों के साथ शुरू हुआ नई दिल्ली विश्व पुस्तक मेला अब दुनिया के बड़े पुस्तक मेलों में शामिल है। सन 2013 तक यह हर दो साल में लगता था, फिर यह सालाना जलसा हो गया। लेखकों, प्रकाशकों, पाठकों को बड़ी बेसब्री से इंतजार होता है नई दिल्ली विश्व पुस्तक मेला का। इस बार यह 10 से 18 फरवरी 2024 तक है। हालांकि फेडरेशन आफ इंडियन पब्लिषर्स(एफआईपी) भी हर साल अगस्त में दिल्ली के प्रगति मैदान में ही पुस्तक मेला लगा रहा है और इसमें लगभग सभी ख्यातिलब्ध प्रकाशक आते हैं, बावजूद इसके नेशनल बुक ट्रस्ट के पुस्तक मेले की मान्यता अधिक है। वैश्वीकरण के दौर कें हर चीज बाजार बन गई है, लेकिन पुस्तकें, खासकर हिन्दी की, अभी इस श्रेणी से दूर हैं। पिछले कुछ सालों से नई दिल्ली पुस्तक मेला पर बाजार का असर देखने को मिल रहा है। किताबों के स्वत्वाधिकार के आदान-प्रदान के लिए दो दिन ‘राइट्स टेबल’ का विशेष आयोजन होता है। यह बड़ी बात है कि केवल किताब खरीदने के लिए तो दर्जनों वेबसाईट उपलब्ध हैं जिस पर घर बैठे आदेश दो और घर बैठे डिलेवरी लो, इसके बावजूद इसके बावजूद यहां 1200 से 1400 प्रतिभागी होते हैं और कई चाह कर भी हिस्सेदारी नहीं कर पाते, क्योंकि जगह नहीं होती।

असल में पुस्तक भी इंसानी प्यार की तरह होती है जिससे जब तक बात ना करो, रूबरू ना हो, हाथ से स्पर्श ना करो, अपनत्व का अहसास देती नहीं है। फिर तुलनातमकता के लिए एक ही स्थान पर एक साथ इनते सजीव उत्पाद मिलना एक बेहतर विपणन विकल्प व मनोवृति भी है। हालांकि यह पुस्तक मेल एक उत्सव की तरह होता है, जहां किताब का व्यापार मात्र नहीं, कई तरह के समागम होते हैं। लेकिन यह नई दिल्ली पुस्तक मेले का 31वां आयोजन है और इसे अब बदलना होगा। पिछले साल से यह मेल प्रगति मैदान के नए बने हॉल में हो रहा है और इतने विशाल परिसर में कोई स्टाल तलाशना बहुत जटिल है। पेइचिंग पुस्तक मेले में बड़े-बड़े हॉल्स को चौराहों की तरह विभाजित किया जाता है और बीच के रास्ते पर बड़े-बड़े प्लेट लटकते हैं, जो पंक्ति और स्तम्भ में शामिल विक्रेताओं के नंबर स्पष्ट दिखाते हैं। असल में अधिक लोगों की संख्या बढ़ाने के लिए नई दिल्ली पुस्तक मेले में कतार ठीक से बन नहीं पाती हैं। एक बात और यहां दरियागंज के अधिकांश वितरक और विक्रेता स्टाल लगाते हैं, परिणामत: कई-कई स्टालों पर एक ही तरह की पुस्तकें दिखती हैं। अंग्रेजी के हिस्से में कई लोग विदेश से आए रद्दी में से किताबों को बेहद कम दाम पर बेचते हैं, उनके यहां भीड़ भी होती है लेकिन ऐसे दृश्य किसी मेले के ‘विश्व’ होने पर सवाल उठाते हैं।

यह बात भी तेजी से चर्चा में है कि इस पुस्तक मेले में विदेशी भागीदारी लगभग ना के बराबर होती जा रही है। यदि श्रीलंका और नेपाल को छोड़ दें तो विश्व बैंक, संयुक्त राष्ट्र श्रम संगठन, स्वास्थ्य, यूनीसेफ आदि के स्टाल विदेशी मंडप में अपनी प्रचार सामग्री प्रदर्षित करते दिखते हैं। फै्रंकफर्ट और अबुधाबी पुस्तक मेला के स्टाल भागीदारों को आकर्षित करने के लिए होते हैं। इक्का-दुक्का स्टालों पर विदेशी पुस्तकों के नाम पर केवल ‘रिमेंडर्स’ यानी अन्य देशों की फालतू या पुरानी पुस्तकें होती हैं। ऐसी पुस्तकों को प्रत्येक रविवार को दरियागंज में लगने वाले पटरी-बाजार से आसानी से खरीदा जा सकता है। पहले पाकिस्तान से दस प्रकाशक आते थे, लेकिन बीते एक दशक से पाकिस्तान के साथ बाकी तिजारत तो जारी है, लेकिन एक दूसरे के पुस्तक मेलों में भागीदारी बंद हो गई। हर बार किसी देश को ‘विशेष अतिथि देश’ का समान दिया जाता है, वहां से लेखक, कलाकार भी आते हैं, लेकिन उनके आयोजनों में बीस लोग भी नहीं होते। एक तो उनका प्रचार काम होता है, फिर प्रगति मैदान में घूमना और किसी सेमीनार में भी बैठना किसी के लिए शायद ही संभव हो। हालांकि विदेशी तो बहुत दूर है, हमारे मेले में संविधान में अधिसूचित सभी 22 भारतीय भाषाओं के स्टाल्स भी नहीं होते। पहले राज्यों के प्रकाशक संघों को निशुल्क स्टाल और आवास की व्यवस्था की जाती थी तो ढेर सारे भाषाई प्रकाशक यहां आते थे।

नई दिल्ली पुस्तक मेला की छवि पर एक दाग वहां हर हाल में बजने वाले प्रवचन और हल्ला-गुल है। बाबा-बैरागियों और कई तरह के धार्मिक संस्थाओं के स्टालों में हो रही अप्रत्याशित बढ़ोतरी भी गंभीर पुस्तक प्रेमियों के लिए चिंता का विषय है। इन स्टालों पर कथित संतों के प्रवचनों की पुस्तकें, आडियों कैसेट व सीडी बिकती हैं। कुरान शरीफ और बाईबिल से जुड़ी संस्थाएं भी अपने प्रचार-प्रसार के लिए विश्व पुस्तक मेला का सहारा लेने लगी हैं। बीते कुछ सालों से हर बार वहां कुछ संगठन उधम करते हैं और सारा साहित्यिक जगत सांप्रदायिक विवाद में धूमिल हो जाता है। समझना होगा कि किताबें लोकतंत्र की तरह हैं-आपको अपनी पसंद का विषय, लेखक, भाषा चुनने का हक देती हैं। यह मेल ही है तो है जहां गांधी- और सावरकर, चे-गोवएरा और भागवत गीता साथ साथ रहते हैं और पाठक निर्णय लेता है कि वह किसे पसंद करे। या तो इस तरह के धार्मिक स्टॉल्स को लगाने ही नहीं देना चाहिए या फिर उन्हें किसी एक जगह एक साथ कर देना चाहिए।

पुस्तक मेला के दौरान बगैर किसी गंभीर योजना के सेमिनारों, पुस्तक लोकार्पण आयोजनों का भी अंबार होता है। कई बार तो ऐसे कार्यक्रमों में वक्ता कम और श्रोता अधिक होते हैं। यह बात भी अब किसी से छिपी नहीं है कि अब एक ही तरह की विचारधारा के लोगों को आयोजक द्वारा निर्धारित ‘लेखक मंच’ में समय दिया जाता है। असल में यह स्थान भागीदार प्रकाशकों के लिए बना था कि वे अपने स्टाल पर लोकार्पण आदि न करें और इससे वहां भीड़ न जमा हो। लेकिन लेखक मंच राजनीतिक मंच बन गया और प्रकाशक यथावत अपने स्टाल पर आयोजन करते हैं। बाल मंडप में भी बच्चे स्कूल्स से बुलाए जाते हैं, जबकि यह स्थान इस तरह का होना चाहिए कि मेले में आए बच्चे स्वत: यहां कि गतिविधियों में शामिल हों।
पुस्तक मेला के दौरान प्रकाशकों, धार्मिक संतों, विभिन्न एजेंंसियों द्वारा वितरित की जाने वाली निशुल्क सामग्री भी एक आफत है। पूरा प्रगति मैदान रद्दी से पटा दिखता है। कुछ सौ लोग तो हर रोज ऐसा ‘कचरा’ एकत्र कर बेचने के लिए ही पुस्तक मेला को याद करते हैं। छुट्टी के दिन मध्यवर्गीय परिवारों का समय काटने का स्थान, मुहल्ले व समाज में अपनी बौद्धिक ताबेदारी सिद्ध करने का अवसर और बच्चों को छुट्टी काटने का नया डेस्टीनेशन भी होता है- पुस्तक मेला। यह बात दीगर है कि इस दौरान प्रगति मैदान के खाने-पीने के स्टालों पर पुस्तक की दुकानों से अधिक बिक्री होती है। पार्किंग, मैदान के भीतर खाने-पीने की चीजों के बेतहाशा दाम, हाल के भीतर मोबाइल का नेटवर्क कमजोर होने, भीड़ के आने और जाने के रास्ते एक ही होने जैसी कई ऐसी दुविधाएं हैं, जिनसे यदि निजात पा लें तो सही मायने में नई दिल्ली विश्व पुस्तक मेल ‘विश्व’ स्तर का होगा।


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