भारतीय न्याय संहिता, भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता और भारतीय साक्ष्य संहिता एक जुलाई से लागू हो गए हैं। इसमें जीरो एफआईआर, ईएफआईआर का भी प्रावधान है। इससे आपराधिक मामलों में कमी आएगी।। शीघ्र फैसला होने से आपराधिक प्रवृत्ति में कमी आएगी। नये तीन कानूनों ने भारतीय दंड संहिता 1860, दंड प्रक्रिया संहिता 1973 और भारतीय साक्ष्य अधिनियम 1872 का स्थान लिया है। कानून की मौजूदगी समाज में आपराधिक प्रवृत्ति को कम करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। अपराधियों को दंड और सजा का डर भी होता है, जिससे वे कानूनी कार्यवाही से बचने का प्रयास करते हैं। इससे समाज में सुरक्षा और अनुशासन का माहौल बनता है। केंद्र सरकार की ओर से कहा जा रहा है कि जहां ब्रिटिश काल में बने कानूनों का मकसद दंड देना था, वहीं नये कानूनों का मकसद नागरिकों को न्याय देना है। भारतीय न्याय संहिता में विवाह का प्रलोभन देकर छल के मामले में दस साल की सजा, किसी भी आधार पर मॉब लिंचिंग के मामले में आजीवन कारावास की सजा, लूटपाट व गिरोहबंदी के मामले में तीन साल की सजा का प्रावधान है। नए कानून में आतंकवाद पर नियंत्रण के लिये भी प्रावधान हैं। वहीं किसी अपराध के मामले में तीन दिन में प्राथमिकी दर्ज की जाएगी तथा सुनवाई के बाद 45 दिन में फैसला देने की समय सीमा निर्धारित की गई है। वहीं एफआईआर अपराध व अपराधी ट्रैकिंग नेटवर्क सिस्टम के जरिये दर्ज की जाएगी। व्यवस्था की गई है कि लोग थाने जाए बिना भी आॅनलाइन प्राथमिकी दर्ज कर सकें। साथ ही जीरो एफआईआर किसी भी थाने में दर्ज की जा सकेगी। आपराधिक कानूनों के डिजिटलीकरण और सरलीकरण से न्यायिक फैसलों में तेजी आएगी। पीड़ित व्यक्ति संचार माध्यमों के द्वारा किसी भी पुलिस थाने में आपराधिक मामला दर्ज करा सकता हैं,जिससे पुलिस अविलंब कार्रवाई कर सकती हैं। इससे पीड़ित व्यक्ति को न्याय मिलने में देरी नहीं होगी।
कानून का राज स्थापित करने के मद्देनजर बलपूर्वक भी व्यवस्था कार्रवाई करती थी। अर्थात कानूनों का दुरुपयोग होता था। खासकर हमारे आपराधिक न्याय को लेकर कई सवाल और ढेरों आपत्तियां की जाती रही हैं। कानून और दृष्टि अप्रासंगिक हो चुके थे। जेलों में विचाराधीन कैदियों की संख्या असीमित हो गई है। पीडित पक्ष को इंसाफ के लिए जिंदगी भर जूतियां घिसनी पड़ती हैं, तब भी इंसाफ की उम्मीद अधूरी है। अदालतों में करोड़ों मामलों की भरमार है। यह बोझ बढ़ता जा रहा है। सब कुछ अनिश्चित और अपरिमित है, लिहाजा इन व्यवस्थाओं में सुधार की गुंजाइश लंबे अंतराल से महसूस की जा रही थी। इन तीनों नए कानूनों पर संसद की स्थायी समितियों में विमर्श किया गया होगा! केंद्रीय गृह मंत्रालय ने जुलाई, 2020 में विशेषज्ञों की एक समिति गठित की थी। उसने देश के नागरिकों के लिए एक विस्तृत प्रश्नावली तैयार की थी और उसे जारी भी किया गया। उस सूची में आपराधिक वैवाहिक बलात्कार, यौन अपराधों को लैंगिक तौर पर निरपेक्ष बनाना, इच्छा-मृत्यु और राजद्रोह सरीखे अपराधों पर नागरिकों के अभिमत लिए जाने थे। अभिमत कितनी संख्या में आए, कितने राज्यों के किन-किन वर्गों के लोगों ने अपने अभिमत दिए, भारत सरकार ने उनका कोई खुलासा नहीं किया है। दरअसल संसद में ये विधेयक तब पारित किए गए, जब 146 सांसद निलंबित थे और सदनों में एकतरफा बहुमत था, लिहाजा ध्वनि-मत से विधेयक पारित किए गए। बाद में राष्ट्रपति के हस्ताक्षर से वे कानून बन गए, लेकिन इस संदर्भ में अब भी बहुत कुछ किया जाना शेष है। इन तीनों संहिताओं और अधिनियम पर देश का जनमत सामने आना भी शेष है, क्योंकि एक जुलाई से ही ये ऐतिहासिक परिवर्तन लागू किए गए हैं। अब ह्यप्राथमिकीह्ण का नामकरण तक बदल दिया गया है। सजा के वैकल्पिक स्वरूप के तौर पर सामुदायिक सेवा का प्रावधान भी किया गया है। छोटे अपराधों के लिए ‘समरी ट्रायल’ को अनिवार्य किया गया है। वीडियो कॉन्फ्रेंस के जरिए ट्रायल अब सुनिश्चित होगा।
भीड़-हत्या और हिंसा, बाल विवाह बलात्कार ऐसे अपराध हैं, जिनका समयबद्ध और गतिमय ट्रायल अनिवार्य होगा। अधिकतर सलाह-मशविरा, विमर्श कोरोना महामारी के दौरान किए गए, लिहाजा संहिताओं में कुछ बड़े परिवर्तन नहीं जोड़ पाए होंगे। कुछ राज्यों ने भी आपत्तियां की हैं और मांगें भी की हैं। मसलन कानूनों के नाम अंग्रेजी में नहीं होने चाहिए। क्षेत्रीय भाषाओं में अनुवाद करने में काफी वक्त लगता है।
इन कानूनों की अभी समीक्षा की जानी चाहिए। नये कानून के अनुसार मौत की सजा पाये अपराधी को खुद ही दया याचिका दायर करनी होगी, कोई संगठन या व्यक्ति ऐसा न कर सकेगा। दूसरी ओर कुछ कानून के जानकार नए आपराधिक कानूनों के लागू होने से उत्पन्न कई न्यायिक परेशानियों के सामने आने की बात कह रहे हैं। वे नये प्रावधानों पर गंभीर विचार-विमर्श की जरूरत बताते हैं। तो कुछ लोग अभिव्यक्ति के अतिक्रमण की बात कर रहे हैं। सवाल उठाये जा रहे हैं कि इन कानूनों के लागू होने से पहले हुए अपराधों की न्याय प्रक्रिया में विसंगति पैदा हो सकती है। सरकार को राज्यों की आपत्तियों और जमीनी दिक्कतों को समझते हुए आवश्यक संशोधनों की दिशा में भी काम करना चाहिए।
नए आपराधिक कानून लागू होने से समाज में अपराधों में निस्संदेह कमी आएगी बशर्ते कानून की पालना करवाई जाए। प्राय: अपराधियों और पुलिस कर्मियों की मिलीभगत होती है, यह मिलीभगत टूटनी चाहिए। ऐसे में कानून नया हो चाहे पुराना कानून कागजी बनकर रह जाते हैं।