Friday, July 5, 2024
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आरक्षण बनाम योग्यता पर नया विजन

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Nazariya 1


Laljee Jaswalआरक्षण पर बहस करते लोगों में यह कहते अक्सर सुना जाता है कि आरक्षण बिल्कुल ही समाप्त कर देना चाहिए क्योंकि आरक्षण देश के लिए अभिशाप है। बहरहाल, आरक्षण देश में एक ऐसा ज्वलंत मुद्दा है, जो शायद ही कभी चर्चा में न रहता हो। मालूम हो कि पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट में आरक्षण के खिलाफ कई याचिकाएं दायर की गई थीं। सर्वोच्च अदालत ने आरक्षण बनाम योग्यता (मेरिट) की बहस में स्पष्ट करते हुए कहा कि ‘आरक्षण योग्यता के खिलाफ नहीं बल्कि यह सामाजिक न्याय है’। शीर्ष अदालत ने मेडिकल पाठयक्रमों की परीक्षा नीट के आॅल इंडिया कोटे में अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) को सत्ताइस फीसद और आर्थिक रूप से कमजोर को दस फीसद आरक्षण दिए जाने को हरी झंड़ी देने वाले गत आदेश का कारण जारी करते हुए अपने फैसले में यह बात कही। साथ ही यहां यह भी बताना जरूरी है कि जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ और जस्टिस एएस बोपन्ना की बेंच ने पिछले दिन नीट पीजी में आरक्षण दिए जाने के खिलाफ दाखिल सभी याचिकाएं खारिज कर दीं।

आरक्षण सामाजिक और शैक्षणिक तौर पर पिछड़े कुछ जातिगत समुदायों को दिया जाता है। ऐसा हो सकता है कि जिन समुदायों को आरक्षण दिया जा रहा है, उसके कुछ सदस्य पिछड़े न भी हों। इसका उल्टा यह भी संभव है कि जिन समुदायों को आरक्षण नहीं दिया जा रहा है, उसके कुछ सदस्य पिछड़े हों। लेकिन कुछ सदस्यों के आधार पर समुदायों के भीतर मौजूद सुधार के लिए दी जाने वाली आरक्षण की व्यवस्था को खारिज नहीं किया जा सकता है। बहरहाल, अब उच्चतम न्यायालय के फैसले ने साफ कर दिया कि आरक्षण क्यों जरूरी है। दु:ख की बात है कि जो आरक्षण कई वजहों से अवसरों और अधिकार से वंचित रह गए तबकों को सामाजिक न्याय मुहैया कराने की एक व्यवस्था है, वह कई वजहों से राजनीति बहसों में उलझता रहा है। हमारे संविधान के नीति निदेशक तत्वों में भी सामाजिक न्याय के लिए सरकार क्या कदम उठाएगी, इसका भी उल्लेख मिलता है। देश की राजनीतिक पार्टियां सदैव सामाजिक न्याय को लेकर तमाम वादे करती रही हैं, उसी में से आरक्षण उनका सबसे महत्वपूर्ण चुनावी मुद्दा रहता है। उल्लेखनीय है कि आरक्षण को लेकर दो वर्गों अर्थात उच्च वर्ग और निम्न वर्ग में खींचतान सदैव बना रहता है। यह लाजमी भी है कि राजनीतिक दल आरक्षण को लेकर बड़े-बड़े वादे करते देखें जाते हैं, यहां तक कि सभी सीमाओं को पार करते हुए पचास फीसद से अधिक का आरक्षण देने वाले वादे भी सामने आते रहते है, जोकि सर्वोच्च न्यायालय के आदेश का कदापि पक्षधर नहीं होता।

यह कहना बिल्कुल भी गलत नहीं होगा कि आरक्षण समाज में बराबरी लाने का एक औजार है। उच्च शिक्षा और नौकरियों में आरक्षण के संदर्भ में एक आम प्रचलित दलील रही है कि इससे योग्यता के सिद्धांत का हनन होता है। सच तो यह है कि देश में नौकरियों या उच्च शिक्षण संस्थानों में आरक्षण एक ऐसी विशेष व्यवस्था रूप में लागू की गई है, जिसके जरिए समाज में कई वजहों से पिछड़ गए तबकों को उनके वाजिब अधिकार दिलाने के लिए सशक्तिकरण की एक अहम प्रक्रिया को आगे बढ़ाया जाता है। वैसे भी एक लोकतांत्रिक और सभ्य समाज में उसका सक्षम हिस्सा अपने बीच के वंचित वर्गों को उनके अधिकार दिलाने के लिए अपनी ओर से पहल करता है। इस मसले पर हमारे देश में जमीनी स्तर पर समाज की हकीकत और सार्वजनिक जीवन में वस्तुस्थिति को नजरअंदाज करके आरक्षण पर सवाल उठाए जाते रहे हैं, जो कदापि उचित नहीं। बता दें कि आरक्षण का उद्देश्य संविधान निर्माण के समय समाज में दबे व कुचलों को समाज की मुख्य धारा में लाना था। लेकिन यह तो राजनीति है जो सदैव सीमा का उल्लंघन करती है।

उल्लेखनीय है कि आरक्षण की पचास फीसद सीमा किसी भी कानून द्वारा निर्धारित नहीं की गई है, लेकिन इसे सर्वोच्च अदालत द्वारा निर्धारित किया गया है। इसलिए यह सभी के लिए बाध्यकारी है। दिलचस्प बात यह है कि सर्वोच्च न्यायालय के वर्ष 1992 के निर्णय के बावजूद कई राज्यों जैसे महाराष्ट्र, तेलंगाना, राजस्थान एवं मध्य प्रदेश ने पचास फीसद आरक्षण की सीमा का उल्लंघन करते हुए कई कानून पारित किए हैं। यहां तक कि तमिलनाडु, हरियाणा एवं छत्तीसगढ़ ने भी आरक्षण की पचास फीसद सीमा का उल्लंघन करने वाले कानून लागू कर रखें है। इसलिए जरूरी है कि विभिन्न समुदायों को आरक्षण देते समय प्रशासन की दक्षता को भी ध्यान में रखा जाए। सीमा से अधिक आरक्षण के कारण वास्तव में योग्यता की अनदेखी होती है, जिससे संपूर्ण प्रशासन की दक्षता प्रभावित हो सकती है।

उच्चतम न्यायालय ने हाल के एक मामले में कहा था कि सरकार को समय-समय पर आरक्षण नीति और इसकी प्रक्रिया की समीक्षा करनी चाहिए, ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि इसके लाभ उन लोगों तक पहुंच रहे हैं, जिन्हें इसकी सबसे ज्यादा आवश्यकता है। पिछले साल जस्टिस अरुण मिश्रा, जस्टिस इंदिरा बनर्जी, जस्टिस विनीत शरण, जस्टिस एमआर शाह और जस्टिस अनिरुद्ध बोस की बेंच ने आंध्र प्रदेश सरकार के फैसले को खारिज करते हुए कहा था कि आरक्षण पचास फीसदी से ज्यादा नहीं हो सकता और अनुसूचित जनजाति बाहुल्य क्षेत्रों के विद्यालयों में सौ प्रतिशत लोग इन्ही समुदायों के नहीं रखे जा सकते हैं। इतना ही नहीं, कोर्ट ने यह भी कहा था कि एससी/एसटी वर्ग के संपन्न लोग अपने समुदाय के बाकी लोगों को आरक्षण का लाभ नहीं मिलने दे रहे हैं, इसलिए आरक्षण प्राप्त करने वाली जातियों की समीक्षा व संशोधन करना चाहिए।


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