हत्या न करना, न सताना, दुख न देना अहिंसा का एक रूप है। यह अहिंसा की पूर्णता नहीं। उसका आचारात्मक पक्ष है। विचारात्मक अहिंसा इससे अधिक महत्वपूर्ण है। विचारों में उतर कर ही अहिंसा या हिंसा को सक्रिय होने का अवसर मिलता है। वैचारिक हिंसा अधिक भयावह है। उसके परिणाम अधिक घातक हैं। विचारों की शक्ति का थाह पाना बहुत मुश्किल है। जिन लोगों ने इसमें थोड़ा भी अवगाहन किया है, वे विचार चिकित्सा नाम से नई चिकित्सा विधि का प्रयोग कर रहे हैं।
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इस विधि में हिंसा, भय और निराशा जैसे नकारात्मक विचारों की कोई मूल्यवत्ता नहीं है। अहिंसा एकमात्र पॉजिटिव थिंकिंग पर खड़ी है। पॉजिटिव थिंकिंग एक अनेकांत की उर्वरा में ही पैदा हो सकती है। अनेकांत दृष्टि के बिना विश्व-शांति की कल्पना ही नहीं हो सकती। शांति का दूसरा बड़ा कारण है-त्याग की चेतना के विकास का प्रशिक्षण। भोगवादी वृत्ति से हिंसा को प्रोत्साहन मिलता है। यदि व्यक्ति को शांति से जीना है तो उसे त्याग की महिमा को स्वीकार करना होगा, त्याग की चेतना का विकास करना होगा।
हमारे पूज्य गुरुदेव आचार्य भिक्षु ने सब प्रकार के उपचारों से ऊपर उठकर साफ शब्दों में कहा-त्याग धर्म है; भोग धर्म नहीं है। संयम धर्म है; असंयम धर्म नहीं है। यह वैचारिक आस्था व्यक्ति में अहिंसा की लौ प्रज्जवलित कर सकती है। बात विश्व-शांति की हो और विचारों में घोर अशांति व्याप्त हो तो शांति किस दरवाजे से भीतर प्रवेश करेगी? एक ओर शांति पर चर्चा, दूसरी ओर घोर प्रलयंकारी अणु अस्त्रों का निर्माण, क्या यह विसंगति नहीं है? ऐसी विसंगतियां तभी टूट सकेंगी, जब अणु अस्त्रों के प्रयोग पर नियंत्रण हो जाएगा। जिस प्रकार पानी मथने से घी नहीं मिलता, वैसे ही हिंसा से शांति नहीं होती। शांति के सारे रहस्य अहिंसा के पास हैं। अहिंसा से बढ़कर कोई शास्त्र नहीं है, शस्त्र भी नहीं है।