सोशल इंजीनियरिंग का फार्मूला लेकर पहुंचे बसपा महासचिव
ब्राह्मण सम्मेलन में सतीश ने देखी हाथी के महावतों की फिटनेस
अवनीन्द्र कमल |
सहारनपुर: सूबे में सन् 2022 में होने वाले विधान सभा चुनाव को लेकर लगभग सभी दलों ने तैयारियों का आगाज कर दिया है। पिछले दिनों धर्मनगरी अयोध्या से शुरू किए गए बसपा के ब्राह्मण सम्मेलन का बुधवार को सहारनपुर भी साक्षी बना।
पार्टी के महासचिव और राज्यसभा सांसद सतीश मिश्र ने एक ट्रेनर की तरह हाथी के महावतों की फिटनेस देखी। उनके राजनीतिक कौशल को परखा और जाति समूहों को बसपा की विचारधारा में ढालने का मंत्र दिया। खासकर दलितों और ब्राह्मणों की एका पर उनका फोकस ज्यादा रहा।
भाजापा की पोस्ट में गोल दागने की उम्मीदों से कथित तौर पर लवरेज सतीश मिश्र ने जातीय अंकगणित का प्रस्ताव पेश कर सियासी मैदान का अक्स खींचा। लेकिन, बसपा के लिए सन 2007 का इतिहास दोहराना आसान नहीं है।
यह बताने की जरूरत नहीं कि उप्र की राजनीति जातीय समीकरणों में उलझती रही है। जनता दल के पतन के बाद समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी ने रह-रह कर सूबे के सत्ता प्रतिष्ठान पर कब्जा किया। कांग्रेस की बात करें तो उप्र में नारायण दत्त तिवारी इस पार्टी के आखिरी मुख्यमंत्री थे।
इस राष्ट्रीय पार्टी का जनाधार यूपी में सिर के बल है। बहरहाल, बसपा हो या सपा अथवा अन्य कोई राजनीतिक दल, उसके लिए भाजपा ही मुख्य मुकाबिल है। दरअसल संघ परिवार और भाजपा ने पिछले सात सालों मेें राष्ट्रवाद और लोकलुभावनवाद का जो हिंदूवादी संस्करण पेश किया है, उसकी जद में अगड़ी-पिछड़ी जातियों के अलावा दलित भी हैं।
भाजपा ने गैर जाटव और गैर यादव बिरादरी को लुभाने का कोई कोना नहीं छोड़ा है। बहरहाल, पश्चिम में इस बार बसपा को आजाद समाज पार्टी से बड़ी चुनौतियां हैं। यही नहीं, अंतर्कलह से पार्टी में टूट-फूट जारी है। हाल के जिला पंचायत चुनावों में बसपा का अंतरविरोध खुलकर सामने आया।
पार्टी के वरिष्ठ नेता नवीन खटाना को बाहर का रास्ता दिखाया गया तो जिलाध्यक्ष रहे योगेश कुमार की टोपी के पंख उतार लिए गए। उन्हें पद से ही हटा दिया गया। खटाना चूंकि गुर्जर बिरादरी से हैं और उन्होंने खुद पार्टी के जिम्मेदार लोगों पर गंभीर आरोप लगाए। पार्टी में अपने को अपमानित किए जाने की दलील देकर उन्होंने गुर्जर समाज की सहानुभूति भी बटोरी है।
आज हाल ये है कि सूबे के अंबेडकर नगर जिले के पूर्व मंत्री राम अचल राजभर और लालजी वर्मा जैसे दिग्गज नेताओं के निष्कासन के बाद पार्टी के पास केवल सात विधायक हैं। 9 पहले ही निलंबित हो चुके हैं। ऐसे में माया की सोशल इंजीनियरिंग का क्या होगा?
सियासी टीकाकारों का कहना है कि कांशीराम के समय से बसपा की ए टीम में शामिल दीनानाथ भास्कर, जंगबहादुर पटेल, मसूद अहमद, नसीमुद्दीन सिद्दीकी, दद्दू प्रसाद जैसे जनाधार वाले नेता बसपा में नहीं हैं। बसपा की बी टीम में शामिल रहे स्वामी प्रसाद मौर्या, ब्रजेश पाठक, डाक्टर धर्म सिंह सैनी जैसे नेता भी सन 2017 के चुनाव से पहले ही भाजपा में आ गए थे और ये लोग चुनाव जीते। भाजपा ने इन्हें मंत्री पद से नवाजा है।
पश्चिम में हाथरस के कद्दावर नेता और पूर्व मंत्री रामवीर उपाध्याय भी बसपा से बाहर हैं। बुलंदशहर में पूर्व मुख्यमंत्री कल्याण सिंह के एकाधिकार वाली डिबाई सीट को दो-दो बार फतह करने वाले श्रीभगवान शर्मा उर्फ गुड्डू पंडित भी बसपा से बाहर हैं।
इसी तरह सहारनपुर की रामपुर सीट से दो बार विधायक रहे रवींद्र कुमार मोल्हू, मेरठ की दलित राजनीति में रसूख रखने वाले पूर्व विधायक योगेश वर्मा, मुजफ्फरनगर के पूर्व विधायक अनिल जाटव भी हाथी की सवारी छोड़ चुके हैं।
रही बात ब्राह्मणों की तो राज्य सभा सांसद सतीश मिश्र और पूर्व एमएलसी ओमप्रकाश त्रिपाठी के अलावा बसपा के पास कोई और कद्दावर ब्राह्मण चेहरा नहीं है। ऐसे में ब्राह्मण सम्मेलनों से बसपा को कितनी संजीवनी मिलेगी, यह तो वक्त बताएगा।