हमें यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि हिन्दुस्तान मेल्टिंग पॉट नहीं, सैलेड बाउल है। हम अमेरिका नहीं, जहां दुनिया भर से आ कर लोग एक कल्चर वाले मेल्टिंग पॉट में पिघल कर एक हो जाते हैं। हम सदियों से एक प्लेट में खीरा, टमाटर, प्याज, चुकंदर की तरह अपनी खुद की खासियत को बरकरार रखते हुए एकाकार होते है। एक राष्ट्र के तौर पर ऐसी खूबी, ऐसी विशेषता दुनिया में कहीं और नहीं। इसी तरह हिन्दुस्तान के एक-एक वोट के अपने अलग-अलग विचार होते हैं। वह केंद्र के लिए कोई और फैसला, राज्य के लिए कोई और फैसला और अपने नगर निगम या पंचायत के लिए कोई और फैसला करता रहा है। उसका यह फैसला किसी राजनैतिक दांवपेंच से इतर, उसके मतदाता होने की महत्ता और ताकत का संकेत है। और ही भारतीय लोकतंत्र में एक वोट की ताकत है।
इस ताकत को किसी कानून, किसी तकनीक से प्रभावित करने की कोशिश की जाएगी तो तय मानिए कि हमारा लोकतंत्र खोखला हो जाएगा। याद कीजिये, अटल की 13 महीने वाली सरकार। अटली की सरकार एक वोट से गिरी थी। किसी उद्योगपति का एक वोट और आपका एक वोट, दोनों का महत्व बराबर है। यह एक वोट लोकतंत्र का वह अंकुश हैं, जो सत्ता के मदमस्त हाथी बनने पर उसे नियंत्रित करने के काम आता है। एक और बात, जितने दिन कांग्रेस देश की सत्ता पर काबिज थी, उतने दिन गुजरात में भाजपा की सत्ता रही।
तो क्या आप कहेंगे, सिंगल इंजन सरकार के रहते गुजरात का विकास नहीं हुआ था? या कि वन नेशन-वन इलेक्शन होता तो गुजरात 2014 तक अमेरिका को पछाड़ चुका होता? नहीं, यह भारत के संघीय ढांचे की असीम ताकत ही है जो बहुदलीय व्यवस्था के बाद भी भारत की एकता अखंडता को बनाए रखती है।
केंद्रीय चुनाव के मुद्दे और राज्यों के चुनाव के मुद्दे अलग होते है। एजेंडा अलग होता है। वादे अलग होते है। जरूरतें अलग होती है। क्या योगी यूपी का चुनाव पीओके के मुद्दे पर लड़ेंगे? क्या ममता बनर्जी बंगाल का चुनाव चीन के मुद्दे पर लड़ेंगी? लोकतंत्र में एक सन आॅफ मल्लाह मुकेश सहनी भी चुनाव लड़ना चाहते हैं और उनका कोर पोलिटिकल डिमांड निषाद आरक्षण है। लेकिन लोकसभा-विधानसभा का चुनाव जब साथ होंगे तो वे क्या बोल के राज्य के लिए और क्या बोल के लोकसभा के लिए अपने लोगों से वोट मांगेंगे?
या फिर पीके बिहार के मुद्दों पर चुनाव लड़ना चाहते होंगे तो क्या वे काशी-मथुरा मुक्त कराने का वादा कर बिहारियों से वोट मांगेंगे? एक रिसर्च बताता है कि दोनों चुनाव साथ हुए तो करीब 80 फीसदी से अधिक का फायदा केंद्रीय पार्टियों (खास कर सत्तारूढ़) को हो सकता है। क्या बस इतने से लालच के लिए भाजपा ऐसा गैर-संघीय कानून लाना चाहती है? पंजाब में अभी आम आदमी पार्टी सत्ता में आई है। उसने कुछ वादे किए। उन्हें उस पर काम करना होगा।
तो क्या उन्हें अपने एजेंडे पर काम करने का मौका नहीं मिलना चाहिए? तेजस्वी यादव ने 10 लाख सरकारी नौकरी का वादा किया था। लाखों शिक्षकों की इस वक्त बहाली प्रक्रिया चल रही है। क्या यह प्रक्रिया थम जानी चाहिए? या कि आप कहेंगे, चुनाव हो जाने दीजिये। अगर जनता ने उन्हें दुबारा चुना तो वे फिर अपना एजेंडा पूरा कर लेंगे?
लेकिन, सवाल ये है कि जो तर्क इस खतरनाक विचार के लिए दिए जा रहे हैं वे कितने सही है?
मसलन, पैसा बचेगा, आचार संहिता बार-बार लगता है इससे विकास कार्य बाधित होता है। अब ये कौन सा तर्क है? मणिपुर में चुनाव हो तो बिहार के प्रशासनिक कार्यों को क्या समस्या आ सकती है? जो कार्य आलरेडी घोषित हो चुके हैं, उन्हें होने में क्या दिक्कत आती है? कुछ नहीं। अब एक महीना आप केंद्र के स्तर से उस चुनावी राज्य के लिए कोई नई घोषणा नहीं करेंगे तो कौन सी आफत आ जाएगी।
अगले 4 साल 11 महीना ईमानदारी से काम कर दीजिये। रहा सवाल पैसे का तो इसकी चिंता आप मत कीजिये। एक स्वस्थ लोकतंत्र के लिए 2-4 हजार करोड़ रुपए सरकारी तौर पर खर्च हो भी गए तो पहाड़ नहीं टूट जाएगा और न ही पिछले 75 सालों में ऐसा कोई पहाड़ टूटा है।
यह खर्च हजारों करोड़ के कारपोरेट टैक्स माफी के आगे कुछ भी नहीं है। फिर राजनीतिक दलों के खर्चे की बात है तो दलों द्वारा खर्च किया गया पैसा मार्केट चेन में ही आता है। हजारों लोगों को अस्थायी-स्थायी रोजगार देने का माध्यम आज चुनाव बन गया है।
तो क्या इस विचार के लिए संविधान में संशोधन किया जाएगा? पीपुल्स रीप्रेजेंटेशन एक्ट को बदल देंगे? लोकसभा/विधानसभा के कार्यकाल को बदलने के लिए संशोधन कर देंगे? अव्वल तो यह सबा इतना आसान नहीं होगा। और अगर ऐसा करने की कोशिश भी किए तो इन सवालों का क्या होगा? मान लीजिये, एक साथ केंद्र और सभी राज्यों के चुनाव हो भी गए और 2 साल बाद दो राज्य की सरकार अल्पमत में आ गयी तो क्या करेंगे? अल्पमत की सरकार चलाते रहेंगे 5 साल पूरा होने तक?
या फिर चुनाव कराएंगे? या चुनाव कराएंगे ही नहीं। अल्पमत-बहुमत का सिद्धांत ही खारिज कर देंगे, जो एक बार सरकार बना लिया, कैसे भी, वो 5 साल तक बना रहेगा?
निश्चित ही यह विचार एक मत, एक महत्व को खारिज करता है। लोकतंत्र के मूल भावना को कमजोर करता है। क्योंकि सरकार चुनना न सिर्फ एक नागरिक का कर्तव्य है बल्कि एक किस्म का मूल अधिकार भी है। यह अधिकार किसी भी तरीके से प्रभावित नहीं किया जाना चाहिए।
यानी राजनीतिक दांवपेंच में फंसा कर, तकनीक का इस्तेमाल कर मतदाताओं के निर्णय को प्रभावित करना एक तरीके से लोकतंत्र की बुनियाद को कमजोर करने जैसा होगा। जैसाकि अक्सर खबरें आती रहती है कि सोशल मीडिया के जरिये मतदाताओं के रूझान को प्रभावित करने की कोशिश हर दल करते हैं। इसमें पीआर कंपनियों द्वारा प्रोपेगेंडा फैलाने से ले कर फेक न्यूज तक का इस्तेमाल होता है।
कुल मिला कर, प्रधानमंत्री-संसदीय प्रणाली में यह विचार कभी काम नहीं करेगा। फिर भी, अगर ऐसा ही करना है तो पहले ‘पाटीर्लेस गवर्नमेंट’ का मॉडल क्यों नहीं अपना लिया जाना चाहिए? भाजपा क्यों नहीं सर्वदलीय सरकार बनाने की पहल करती है? जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी सरकार में हिस्सेदारी। आखिरकार, कौन सा दल है जो कहता है कि हम इंडिया नहीं चीन के लोगों की भलाई के लिए काम करेंगे? फिर कराते रहिये एक साथ चुनाव या कर दीजिये 5 साल की जगह 10 साल सरकार का कार्यकाल।