आगामी बुधवार को दिल्ली में विधानसभा चुनाव के लिए मतदान होना है। इस बीच उच्चतम न्यायालय ने दिल्ली दंगों के आरोपित एवं विधानसभा प्रत्याशी ताहिर हुसैन को कुछ शर्तों के साथ चुनाव प्रचार के लिए छह दिन की कस्टडी पैरोल दी है। आरोपित अब प्रत्याशी के रूप में चुनाव प्रचार करेगा और स्वाभाविक है कि जनता के बीच स्वयं को वह निर्दोष बताएगा। लिहाजा ऐसी व्यवस्था होनी चाहिए ताकि जनता को केवल साफ-सुथरी छवि वाले लोगों को ही चुनने का विकल्प मिल सके। गौरतलब है कि राजनीति से अपराध को समाप्त करने के विमर्श पर देश में निरंतर चर्चा होती रहती है। ऐसे में सुप्रीम कोर्ट द्वारा दंगों के आरोपित एक व्यक्ति को चुनाव प्रचार के लिए बाहर आने की अनुमति देना दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है। फिलहाल यह स्थिति इसलिए बन रही है, क्योंकि मौजूदा जन प्रतिनिधित्व कानून विचाराधीन कैदियों को चुनाव लड़ने की अनुमति देता है।
यह विडंबना ही है कि कोई विचाराधीन कैदी वोट तो नहीं डाल सकता, लेकिन चुनाव लड़ सकता है। कानून की इस खामी का लाभ वे भी उठाते रहे हैं, जो गंभीर आरोपों में जेल में बंद हैं। बता दें कि फरवरी, 2020 को उत्तर-पूर्वी दिल्ली में भड़की हिंसा में करीब 50 लोग मारे गए थे। सैकड़ों की संख्या में इस दौरान लोग घायल भी हुए थे। इस मामले में ताहिर हुसैन के खिलाफ आरोप न केवल दंगों से जुड़े हैं, बल्कि गृह मंत्रालय के अधिकारी की हत्या से भी जुड़े हैं। चिंता की बात है कि भीषण दंगों के आरोपित ताहिर हुसैन को चुनाव लड़ने से रोका जा सकता था, यदि राजनीतिक दल निर्वाचन आयोग के इस प्रस्ताव को मान लेते कि संगीन धाराओं में आरोपित ऐसे लोगों को चुनाव लड़ने की छूट न मिले, जिनके खिलाफ चार्जशीट दायर हो गई हो। राजनीतिक दलों ने इस उचित प्रस्ताव को इस आधार पर स्वीकार नहीं किया कि दोष सिद्ध न होने तक हर किसी को निर्दोष माना जाना चाहिए।
लिहाजा इस दलील ने राजनीति के अपराधीकरण का दरवाजा खोलने का काम किया। कई ऐसे लोग निर्वाचित हो रहे हैं, जो गंभीर आरोपों का सामना कर रहे हैं। इस सबके बाद भी आरोपित को चुनाव प्रचार की सुविधा मिल जाना घोर निराशा की बात है। निराशाजनक यह भी है कि दंगों के पांच साल बाद भी ताहिर हुसैन को सजा नहीं हो सकी। उचित होता कि सुप्रीम कोर्ट उसे जमानत देने के पहले यह सब देखता और इसकी परवाह करता कि इतने गंभीर आरोपों का सामना कर रहे अभियुक्त को चुनाव प्रचार करने की छूट देने से समाज में क्या संदेश जाएगा? खैर, देश में चुनाव सुधार तभी संभव माना जाएगा, जब अपराधियों को चुनाव लड़ने से प्रतिबंधित किया जाए। इस पर सभी राजनीतिक दलों के सहमति से लोकतंत्र के हित में यह कठोर कदम उठाना ही होगा।
वास्तविकता यह है कि चुनाव सुधार की मांग समय-समय पर उठती रही है और खासकर उस समय जब चुनाव नजदीक आए अथवा चुनावी प्रक्रियाओं के समय ज्यादा ही चुनाव में सुधारात्मक कदम उठाने की बात की जाती रही है। मालूम हो कि कुछ दिन बाद फरवरी में दिल्ली विधानसभा चुनाव होना निर्धारित है। अब प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि इन मसलों का हल चुनाव से पहले ही क्यों नहीं निकाल लिया जाता? इसका उत्तर यह कदापि नहीं है कि चुनाव आयोग शक्तिहीन हो चुका है, आज भी चुनाव आयोग में संपूर्ण शक्तियां विद्यमान हैं और वह निष्पक्षता से काम भी कर रहा है। लेकिन कुछ दशक से यह देखा जा रहा कि सुप्रीम कोर्ट द्वारा तो सदैव चुनाव सुधार की बात की जाती है, लेकिन हमारी राजनीतिक पार्टियां सदैव इसमें असहयोग और विरोध ही प्रकट करती रही है। शायद यह कयास लगाना बिल्कुल भी गलत नहीं होगा कि चुनाव सुधार से राजनीतिक दलों को यह भय सता रहा होगा कि उनके मनमानी और आपराधिक संलिप्तता तथा धन का अथाह उपयोग पर रोक लग जाएगा। वैसे भी भारत में होने वाले चुनावों में बड़ी मात्रा में धन की आवश्यकता एक कड़वी सच्चाई है। इसके लिए निर्धारित खर्च की सीमा निरर्थक साबित होती रही है और जिसका शायद ही कभी पालन किया जाता है।
चुनावी प्रक्रिया में एक गंभीर मुद्दा भड़काऊ भाषणों का भी है जिस पर नियंत्रण लगाने के लिए चुनाव आयोग को कठोर होना होगा। आज के नेता युवाओं को भड़काने के लिए उग्र नारे देते हैं जिससे वे चर्चा में बने रहें। वास्तव में यह हाल की राजनीतिक अपरिपक्वता को दिखाता है। सवाल उठता है कि क्या नेताओं की जुबान अनजाने में फिसलती है या फिर जानबूझ कर जुबान फिसलाई जाती है। बहरहाल, मालूम हो कि नेताओं की जुबान का फिसलना जिसे हम लोग विवादित बयान भी कहते हैं, वह जुबान जानबूझ कर चर्चा में रहने और लोगों का ध्यान आकर्षित करने के लिए होता है। लिहाजा, अब ध्यान रखना होगा कि जब हम स्वयं को दुनिया का श्रेष्ठ लोकतंत्र कहते हैं, तब ऐसे राजनीतिक अपरिपक्वता को भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में स्थान देना कितना सही होगा?
अपराधी करार दिए जा चुके जनप्रतिनिधियों पर आजीवन प्रतिबंध लगाना राजनीति के निरपराधीकरण में सहायक सिद्ध हो सकता है। अत: निरंतर राजनीति में अपराधीकरण बढ़ रहा है। ऐसी स्थिति में यह कदम उचित ही कहा जा सकता है। यह भविष्य में चुनाव लड़ने की इच्छा रखने वाले उम्मीदवारों के लिए एक निवारक कारक की तरह कार्य करेगा और वे किसी भी आपराधिक गतिविधि में शामिल होने से बचेंगे। राजनीति में स्वच्छ पृष्ठभूमि वाले उम्मीदवारों का प्रवेश होगा। इससे आम जनता का राजनीतिक व्यवस्था में विश्वास मजबूत होगा और लोकतंत्र की जड़ें मजबूत होंगी।