Tuesday, May 6, 2025
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विपक्षी एकता: अभी नहीं तो कभी नहीं

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TANVIR ZAFARI 1देश में एक बार फिर चुनावी महासमर का माहौल बन रहा है। दक्षिण भारत के राज्य कर्नाटक में चुनाव की तारीख दस मई घोषित की जा चुकी है। इसके अतिरिक्त 2024 में होने वाले लोकसभा चुनाव से पूर्व 2023 में ही मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान, तेलंगाना में चुनाव होने हैं। जम्मू-कश्मीर में भी लोकसभा चुनाव से पूर्व विधानसभा चुनाव हो सकते हैं। वैसे तो 13 मई को आने वाले कर्नाटक के चुनाव नतीजों को ही 2024 के लोकसभा चुनाव के लिए महत्वपूर्ण रुझान के तौर पर देखा जा रहा है, परंतु कर्नाटक के बाद होने वाले मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान व तेलंगाना जैसे अपेक्षाकृत बड़े राज्यों के चुनाव नतीजे भी 2024 के लोकसभा चुनाव की इबारत लिखने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभायेंगे।

हालांकि अतिउत्साही भारतीय जनता पार्टी ने तो गत वर्ष गुजरात विधानसभा चुनाव में मिली अपनी शानदार जीत को ही लोकसभा 2024 का चुनावी रुझान बताना शुरू कर दिया था।

परंतु निश्चित रूप से 2024 लोकसभा चुनाव से राज्यों में होने वाला चुनावी संग्राम यह जरूर तय करेगा कि देश की राजनीति की दिशा व दशा आखिर क्या होने वाली है? जहां तक सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी का प्रश्न है तो पार्टी ने अभी से लोकसभा चुनाव 2024 के मद्देनजर अपने तैय्यारियां युद्धस्तर पर शुरू कर दी हैं।

भाजपा में स्वयं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, गृहमंत्री अमित शाह, भाजपा राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा से लेकर अनेक राज्यपाल, केंद्रीय मंत्री, मुख्यमंत्री, पार्टी के राज्य स्तरीय अनेकानेक नेता अपने अपने कार्यों को छोड़ मैदान में कूद चुके हैं और अपनी सरकार व पार्टी की कारगुजारियों का बखान करना शुरू कर चुके हैं।

जहां-जहां ‘रेवड़ी’ बांटने की जरूरत है वहां रेवड़ियां बांटी जा रही हैं। जहां सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की जरूरत है, वहां इस ‘शस्त्र’ की आजमाइश भी की जा रही है। जहां विपक्ष को कमजोर करना है, वहां भय अथवा लालच के बल पर यह काम भी किया जा रहा है।

अनेक विपक्षी दल ईडी, इंकम टैक्स व सीबीआई जैसी संस्थाओं पर सत्ता के इशारे पर विपक्षी दलों को पक्षपात पूर्ण तरीके से परेशान करने का आरोप पहले ही लगा रहे हैं। देश के सबसे प्रमुख विपक्षी दल कांग्रेस के लिए तो भाजपा नेता पहले ही ‘कांग्रेस मुक्त भारत’ का नारा देकर विपक्षहीन लोकतंत्र बनाने की अपनी मंशा साफ कर चुकी है।

सत्ता की इन्हीं कोशिशों के विरुद्ध तथा इनकी कमियों को उजागर करते हुए राहुल गांधी ने जब अपने विदेशी दौरे के दौरान सवाल खड़ा किया तो बहुमत की सत्ता ने राहुल गांधी से मुआफी मांगने की मांग को लेकर संसद नहीं चलने दी। और

आखिरकार एक दूसरे मामले में सूरत से आए एक अदालती फैसले के बाद आनन फानन में राहुल की लोकसभा सदस्य्ता भी बड़ी ही तत्परता से समाप्त कर दी गई। राहुल की लोकसभा सदस्यता समाप्त होने के बाद देश के अधिकांश विपक्षी दलों के नेताओं की शायद ‘कुंभकर्णी नींद’ खुल चुकी है।

वे यह सोचने को मजबूर हुए हैं कि जब देश के सबसे प्राचीन और सबसे लंबे समय तक देश पर राज करने वाले राजनैतिक दल के नेता राहुल गांधी का यह हश्र हो सकता है तो क्षेत्रीय दलों के नेताओं की गिनती ही क्या है।

सवाल यह है कि इन विकटतम व अभूतपूर्व राजनैतिक परिस्थितियों में विपक्षी दल न केवल 2024 के लोकसभा चुनाव में बल्कि इसके पूर्व होने वाले सभी राज्यों के विधानसभा चुनाव में भी ठीक उसी तरह एक हो सकता है, जैसा कि 1977 में कांग्रेस के विरुद्ध एक हुआ था?

जो क्षेत्रीय नेता जिन्हें कांग्रेस के साथ जाने से सिर्फ इसलिए भय लगता है कि यदि कांग्रेस से हाथ मिलाया तो उनकी मुख्यमंत्री की कुर्सी खतरे में पड़ जाएगी, क्या वे अभी भी इस गलतफहमी का शिकार हैं कि विभाजित विपक्ष भाजपा जैसे मजबूत, सत्तारूढ़ व साम दाम दंड भेद का इस्तेमाल करने वाले दल को पराजित कर सकता है?

कुछ राजनैतिक समीक्षक तो अभी से लिखने लगे हैं कि यदि यथा शीघ्र ही देश के सभी विपक्षी दलों ने देश की जनता को संयुक्त विपक्ष होने का संदेश नहीं दिया तो इस बात की काफी संभावना है कि 2024 का लोकसभा चुनाव अखिलेश यादव, मायावती, ममता बनर्जी, नितीश कुमार और अरविन्द केजरीवाल जैसे नेताओं की पार्टी के लिए लगभग अंतिम लोकसभा चुनाव साबित हों।

विपक्षी राजनीति व विपक्षी दलों की भूमिका के संदर्भ में एक और हकीकत पूरा देश यह भी देख रहा है कि एक ओर जहां सत्ता, विपक्षी दलों को कमजोर करने, उसे डराने धमकाने, विभाजित करने के साथ-साथ स्वयं को हर तरह से मजबूत करने में अपना पूरा ध्यान केंद्रित किए हुए है।

ले दे कर कांग्रेस पार्टी ही और विशेषकर राहुल गांधी ही हैं जो बेखौफ होकर संसद के भीतर से लेकर सड़कों तक पर सत्ता से तीखे सवाल पूछ रहे हैं। राहुल के इस साहस व जुझारूपन को भी जहां देश देख रहा है, वहीं प्रधानमंत्री व मुख्यमंत्री के पद की उम्मीद लगाए बैठे अनेक क्षेत्रीय क्षत्रपों की सत्ता की मनमानियों के प्रति उदासीनता को भी जनता गौर से देख व समझ रही है।

इन हालात में कांग्रेस ने विपक्षी एकता हेतु गंभीर प्रयास शुरू कर दिए हैं। 2024 का चुनाव यदि विपक्ष संयुक्त रूप से नहीं लड़ता तो 2024 के बाद की राजनीति की दिशा और दशा का कोई अंदाजा नहीं।

अनेक राजनैतिक विश्लेषक तो यहां तक कहने लगे हैं कि यदि विभाजित विपक्ष ने 2019 की ही तरह 2024 में भी भाजपा को थाली में सत्ता परोस कर दे दी तो न केवल लोकतंत्र बल्कि भारतीय संविधान, देश का धर्मनिरपेक्ष स्वरूप आदि सब कुछ दांव पर लग सकता है। लिहाजा देश के सभी विपक्षी दलों के लिए संदेश साफ है कि विपक्षी एकता, यदि अभी नहीं तो कभी नहीं।


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