मुख्यमंत्री अर्जुनसिंह और वैज्ञानिक श्रीनिवास वरदराजन ने बची गैस से कीडे-मार दवा एक बनाकर भोपाल को फिलहाल किसी तरह बचा लिया है। एक बडी आबादी को सोते से उठाकर यहां-से-वहां भगाकर मृत्यु की गोद में सुलाने के ठीक 13वें दिन, 16 से 19 दिसम्बर तक भोपाल में पूरे तामझाम के साथ जो कुछ भी हुआ वह एक अकल्पनीय तेरहवीं थी। विज्ञान, विकास और ऊंची तकनीक के नए ब्राम्हनों ने और उसका प्रबंध कर रहे नउओं ने मृतक शहर भोपाल के बचे हुए सदस्यों को संस्कृत में जो कुछ सुनाया और घड़ी और मुहूर्त देखकर जो कुछ किया उसका सार कुछ इस प्रकार है –
नाईट्रोजन से एमआईसी में दबाव बढ़ाया: दबाव 0.35 किलोग्राम प्रति वर्ग सेंटीमीटर हुआ : 10 बजकर 42 मिनट पर आवश्यक दबाब 1.8 किलोग्राम प्रति सेंटीमीटर हुआ : 10 बजकर 58 मिनट पर एक मीट्रिक टन मिथाईल आइसोसाइनेट द्रव का चार्ज पाट एक माप इकाई स्थानातरित किया गया और प्रथम स्थानांतरण की प्रक्रिया 11 बजकर 10 मिनट पर सम्पन्न हुई। ऐसे मंत्र और कर्मकांड तारक की तरह प्रस्तुत किए जा रहे थे, पर यही सब कर्मकांड 13 पहले मारक साबित हो चुके थे।
जिस दिन यह तेरहवीं शुरू हुई ठीक उसी दिन बिलकुल आर्यसमाजी पद्धति में एक नागरिक ने मध्यप्रदेश उच्च न्यायालय में एक याचिका प्रस्तुत करते हुए इस ‘आस्था अभियान’ के माध्यम से यूनियन कार्बाइड कारखाने में शेष बची समूची एमआईसी गैस को नष्ट करने की प्रार्थना की थी। अवकाशकालीन जज न्यायमूर्ति लाल ने कहा कि अगर याचिकाकर्ता इतना आतुर था तो उसे पहले न्यायालय में आना चाहिए था, लेकिन लगता है कि अपने अधिकारों के मामले में वह तब सोया हुआ था और उचित समय रहते हुए वह न्यायालय के सामने नहीं आया। अब तक तो सरकार भारी खर्च कर सारी तैयारियां पूरी कर चुकी है और यदि ‘आस्था अभियान’ को स्थगित करने का आदेश दिया जाएगा तो यह सारा खर्च बेकार हो जाएगा। फिर भी न्यायालय ने वायरलेस से भोपाल सरकार को आदेश भेजकर पूरी गैस बेअसर न करने के निर्देश दे दिए।
बहरहाल तेरहवीं पूरी हुई और भोपाल फिर से शुद्ध और पवित्र हो गया। जीवन फिर से शुरू हो जाएगा। जनजीवन के सामान्य होने के अलावा कोई रास्ता भी नहीं होता है, लेकिन बचे भोपाल से कुछ बचे सवाल उठते हैं। कितने और भोपाल बचे हैं हमारे देश में? क्या राजनैतिक नेतृत्व उन्हें बचाने के बारे में सोचते, कुछ करने की इच्छाशक्ति समय से पहले दिखा, जुटा पाएगा? इन अमिट, जहरों पर टिके औद्योगिक और कृषि उत्पादन के ढांचे को हम अब भी आधुनिक, वैज्ञानिक व पूरी तरह से सुरक्षित मानकर अपनाते और फैलाते जाएंगे।
जिन जिन्नों के बारे में बड़े-बड़े वैज्ञानिक भी क ख ग तक नहीं जानते उन जिन्नों को प्रगति का हाथ मजबूत करने के लिए कांच की ऐसी नाजुक बोतलों में भर-भरकर क्यों रखा जा रहा है? 2500 लोगों को मारने, कोई एक लाख से ऊपर लोगों को तड़पाने और इतने ही लोगों को शहर से बाहर भगाने वाली गैस ‘फासजीन’ है कि ‘मिथाइल आइसो-साइनाइड’ या ‘मिथाइल आइसो-साइनेट’ है – इसी को तय करने में चोटी के वैज्ञानिकों और डॉक्टरों को 2 सप्ताह लग गए। वरदराजन ने जिस दिन अंतिम तौर पर इसे ‘मिथाइल आइसो-साइनेट’ बताया, उसके तीन दिन बाद भूतपूर्व प्रधानमंत्री के भूतपूर्व वरिष्ठ सलाहकार हक्सर ने इस पर फिर से प्रश्नचिन्ह लगा दिया। कुल मिलाकर बड़े वरिष्ठ लोग टकरा रहे हैं, छोटे से रसायन को तय करने में।
गैस से हुए नुकसान का निदान अललटप्पू है, किसी को पता नहीं की क्या दवा है इसकी। न ‘यहां’ के, न ‘वहां’ के डॉक्टर बता पाए कि गैस की मार में आकर बचे लोग कब तक बचेंगे? वहां की साग-सब्जी, हवा-पानी का क्या होगा? सरकारी विभाग ‘सब ठीक है’ बता रहे हैं, लेकिन 2 दिसम्बर से पहले उठी चिंताओं के हर जवाब में भी तो यही टेक हुआ करती थी। इसमें कोई शक नहीं है कि अमिट जहरों का धंधा करने वाली बहुराष्ट्रीय कंपनियां तीसरी दुनिया में दादागिरी के साथ धंधा करती हैं। अपने कचरे को यहां ठिकाने लगाती हैं। हमारे जैसे देशों को कचराघर बनाकर पैसा बटोरती हैं, पर उन्हें यह छूट कैसे मिलती है?
पूरे देश के पर्यावरण हवा, पानी, जमीन, पेड़-पौधे, पंछी, जानवरों की सुरक्षा की निगरानी की जिम्मेदारी निभाने वाले केन्द्र और राज्य के पर्यावरण विभागों और बोर्डों की भूमिका भी लोगों के जीवन के साथ खेलने वाली ऐसी योजनाओं में राजनीतिक नेतृत्व की चपरासीगिरी रही है। ऐसे कठिन मौके पर आगे बढकर कुछ नया करने की सिफारिश करने की हिम्मत भी विभागों ने अभी तक नहीं दिखाई है। देश के पर्यावरण की साज-संभाल में ये उन पुलिस थानों से बेहतर नहीं हो पाए हैं जिनके रोज खुलते जाने से भी ‘कानून और व्यवस्था’ की हालत पहले से कमजोर होती जाती है। केंद्र सरकार ने इनका दर्जा फैसला देने का न बनाकर सलाह देने जैसा ही रखा है और ये विभाग और राज्यों के पर्यावरण मंडल वैसे ही सलाह देते हैं जैसी उनसे उम्मीद की जाती है। एक तो पूरे अधिकार नहीं, जिस पर ठीक काम करने के लिए पैसा न देकर विभागों को इनके जन्म से ही अपंग बनाए रखा गया है। इसलिए यह विचित्र संयोग नहीं है कि देश में मध्यप्रदेश पहला राज्य है जिसने ‘पर्यावरण नीति’ की विधिवत घोषणा की है और इसी राज्य के कोई सुदूर कोने में नहीं, राजधानी में, ठीक सरकार की नाक के नीचे दुनिया की सबसे भयानक औद्योगिक प्रदूषण की घटना घटी है। जिस ‘ग्यारह सूत्री नीति’ से राज्य के पर्यावरण के काम को मजबूत किया जाना था और इस साल विधानसभा में राज्य के पर्यावरण सरंक्षण संबंधी कार्यों का लेखा-जोखा पेश किया जाना था, भोपाल गैस कांड ने उनकी धज्जियां उड़ा दी हैं।
सरकार जितना समय लेगी, इसके बदले अब तो यह तय करना होगा कि लोग इस बारे में सरकार को कितना समय देंगे? दशमलव प्रणाली से प्यार करने वाली सरकार को इस मामले में सौ ज्यादा दिन की छूट किसी भी हालत में नहीं दी जानी चाहिए। इस दौरान ऐसे सभी नागरिक संगठनों, संस्थाओं को पूछना चाहिए कि देश के औद्योगिक और कृषि उत्पादन में इस अमिट जहर की जरूरत है भी या नहीं? यदि है तो कितनी और किस कीमत पर? कारखाना आबादी के पास नहीं लगे का क्या मतलब है? शहर में नहीं तो गांव में लगे? अनबूझ रहस्यों और खतरों के कारखाने राजधानी भोपाल में नहीं तो अबूझमाड़ में लगेंगे? देश में निर्जन इलाके कहां हैं? विकास का लाभ कौन ले और बलि किसकी चढ़े? जैसे सवालों पर खुलकर बात करें। ‘निर्भरता और आत्मनिर्भरता के स्वाद’ को अपनी दाढ़ में जीभ लगाकर टटोलें, सोचें कि जिस पश्चिमी ढांचे पर निर्भरता टिकी थी, उसी को यहां ज्यों-का-त्यों लाकर आत्मनिर्भर होने में क्या उतना ही फर्क तो नहीं है जितना ‘यूनियन कार्बाइड अमेरिका’ और ‘यूनियन कार्बाइड इंडिया’ में है। बची गैस से बचा भोपाल ऐसे कई सवाल उठाता है। इनका जवाब राजनैतिक नेतृत्व नहीं दे पाएगा। नागरिक नेतृत्व को ही इसमें पहल करनी होगी। नहीं तो अभी बहुत से और भी भोपाल बचे हैं जिनकी तेरहवीं में प्रगति के बम्हन जाते रहेंगे और हमसे लोटा, गमछा लेकर लौटते समय धीरज रखने, सहने और ईश्वर पर भरोसा रखने को कहते रहेंगे।