- नाहिद हसन और अब्दुल राव वारिस ही बढ़ा पाए विरासत, वीरेंद्र वर्मा, हुकुम सिंह, वीरेंद्र गुर्जर के लाड़लों के हिस्से इंतजार
जनवाणी संवाददाता |
शामली: जाट-मुस्लिम और गुर्जर राजनीति का केंद्र शामली में वीरेंद्र वर्मा, हुकुम सिंह, वीरेंद्र सिंह गुर्जर और गय्यूर अली खान ने भले ही राजनीति में नए मुकाम हासिल किए हों लेकिन उनके लाड़ले आज भी राजनीति की पगडंड़ियां चढ़ने में सफल नहीं हो पाए हैं। हालांकि कैराना के हसन परिवार और कैड़ी के राव राफे खां के युवराज राजनीति में जरूर आगे बढ़ रहे हैं।
शामली जनपद की राजनीति में वीरेंद्र वर्मा को हमेशा बड़ा नाम माना जाता रहा है। वीरेंद्र वर्मा 1952 से 1974 तक 5 बार विधायक बने। उसके बाद 1998 में कैराना से सांसद निर्वाचित हुए। कांग्रेस ने उनको न केवल राज्यसभा में भेजा बल्कि हिमाचल प्रदेश और पंजाब का राज्यपाल भी बनाया।
प्रदेश सरकार में कई बार वर्माजी मंत्री भी बने। राज्यपाल के पद तक पहुंचने वाले वीरेंद्र वर्मा जनपद के इकलौते नेता रहे। चौ. चरणसिंह के काल में भी उनकी राजनीति सफल रही, लेकिन उनके पुत्र डा. सतेंद्र वर्मा अपने पिता की राजनीति विरासत को आगे नहीं बढ़ा पाए।
डा. वर्मा 2012 में शामली सीट से भाजपा के टिकट पर चुनाव लड़े लेकिन हार गए। इसके बाद उन्होंने फिर कभी राजनीति में हाथ पैर नहीं मारे।
वीरेंद्र वर्मा को जहां जाट राजनीति का धुर्रधर मना जाता रहा, वहीं गुर्जर राजनीति का प्रमुख केंद्र बाबू हुकुम सिंह बने। पीसीएस जे क्लीयर करने के बाद वे सेना में भर्ती हुए। सेना में कैप्टन के पद तक पहुंचें हुकुम सिंह पहली बार 1974 में कैराना से विधायक निर्वाचित हुए। उन्होंने वकालत भी की।
फिर, 2012 तक 6 बार विधायक रहे। साथ ही, विधानसभा में भाजपा विधायक दल के उप नेता भी रहे। प्रदेश सरकार में बाबूजी मंत्री भी रहे। 2014 में हुकुम सिंह कैराना लोकसभा से निर्वाचित हुए। लोकसभा डिप्टी स्पीकर भी बने। 2016 में कैराना पलायन का मुद्दा उठाकर वें देशभर में चर्चित हुए। साथ ही, उप्र में कैराना पलायन से 2017 के चुनाव में संजीवनी मिली। हुकुम सिंह का 3 फरवरी 2018 को बीमारी के चलते निधन हो गया।
हुकुम सिंह के पुत्र नहीं था इसलिए भाजपा ने उनकी पुत्री मृगांका सिंह को 2017 का विधानसभा तथा 2018 का कैराना लोकसभा उप चुनाव लड़ाया लेकिन उनको सफलता हाथ नहीं लग। इस बार फिर से मृगांका सिंह कैराना विधानसभा से भाजपा प्रत्याशी हैं।
जाट राजनीति में चंदन सिंह खेड़ीकरमू, पहली बार 1962 में कैराना से विधायक और 1977 में आपातकाल के बाद हुए चुनाव में कैराना लोकसभा सीट से सांसद निर्वाचित हुए। लेकिन उनके पुत्र विजय मलिक जिला पंचायत सदस्य तक ही समिति रहे। विजय मलिक दो बार तथा उनकीं पत्नी राकेश मलिक एक बार जिला पंचायत सदस्य पद का चुनाव जीतीं।
2007 के विधानसभा चुनाव में सपा के टिकट पर विजय मलिक ने कैराना से ताल ठोंकी लेकिन सफलता नहीं मिली। दूसरी ओर, बलबीर सिंह मलिक किवाना 2007 में शामली से विधायक बने लेकिन उनके पुत्र दिनेश मलिक ने राजनीति से तौबा की। हालांकि पुत्रवधु अनामिका जरूर 2010 में कांधला ब्लॉक की प्रमुख बनीं जबकि भतीजा बिजेंद्र मलिक 2017 में शामली से चुनाव लड़ा लेकिन हार गया।
गुर्जर राजनीति के दूसरे क्षत्रप वीरेंद्र सिंह पहली बार 1980 में कांधला सीट से विधायक बने। 2002 तक वे 6 बार विधायक बनने में सफल हुए। सपा-रालोद गठबंधन की 2002 की मुलायम सिंह यादव की नेतृत्व वाली सरकार में वीरेंद्र सिंह कैबिनेट मंत्री बने। 2007 व 20012 के चुनाव में उनको हार का सामना करना पड़ा। तो, अखिलेश यादव ने उनको 2014 में राज्यमंत्री का दर्जा देने के साथ-साथ विधान परिषद में भी भेजा।
सपा से पाला बदलने के बाद 2021 में भाजपा ने वीरेंद्र सिंह को विधानसभा में भेजा। इससे पूर्व 2014 में वीरेंद्र सिंह के पुत्र मनीष चौहान जिला पंचायत के अध्यक्ष बने लेकिन 2017 के विधानसभा चुनाव में सपा से टिकट न मिलने मनीष चौहान ने निर्दलीय ताल ठोंकी लेकिन मतदाताओं ने उन्हें नकार दिया। इस बार भी वे भाजपा से टिकट की लाइन में थे लेकिन बाजी सीटिंग विधायक तेजेंद्र निर्वाल के हाथ लगी।
राजनीति के फलक पर सफल हसन परिवार
शामली जनपद में मुस्लिम राजनीति का सबसे बड़ा केंद्र कैराना का हसन परिवार है। मोहल्ला आलदरम्यान के चबूतरा से 84 मुस्लिम गुर्जर खाप की राजनीति विरासत 1984 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या के बाद हुए लोकसभा चुनाव में हसन परिवार के मुखिया चौधरी अख्तर हसन ने शुरू की।
कांग्रेस ने उनको कैराना लोकसभा सीट से प्रत्याशी बनाया और सहानुभूति के बल पर अख्तर हसन संसद में पहुंचें। उसके बाद उनके पुत्र चौ. मुनव्वर हसन ने अपने पिता की राजनीतिक विरासत को बाखूबी आगे बढ़ाया। मुनव्वर 1991 में पहली बार जनता दल के टिकट पर कैराना सीट से विधायक बने। उसके बाद 1993 में फिर से बाबू हुकुम सिंह को पराजित कर विधानसभा में पहुंचें।
1996 में कैराना लोकसभा तथा 2004 में मुजफ्फरनगर लोकसभा सीट से सपा के सांसद बने। सपा सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव ने उनको 2003 में राज्यसभा तथा एक बार विधान परिषद में भी भेजा। सपा पूर्व मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव के विश्वास पात्र नेताओं में से एक थे। 10 दिसंबर 2008 को हरियाणा के पलवल में मुनव्वर हसन का इंतकाल हो गया।
उसके बाद 2009 में कैराना लोकसभा तथा 2018 के कैराना लोकसभा उप चुनाव में मुनव्वर हसन की पत्नी तबस्सुम हसन सांसद चुनीं गई तो 2014 में के विधानसभा चुनाव में उनके पुत्र नाहिद हसन पहली बार सपा के टिकट पर विधायक बनकर विधानसभा में पहुंचें। उसके बाद 2017 के चुनाव उन्होंने बाबू हुकुम सिंह की पुत्र मृगांका सिंह को करीब 20 हजार मतों से हराया।
अब एक बार फिर नाहिद हसन और मृगांका सिंह कैराना सीट से चुनाव में आमने सामने हैं। नाहिद हसन के गैंगस्टर एक्ट में जेल में निरुद्ध होने के कारण चुनाव की कमाल उनकी बहन इकरा हसन ने संभाल रखी है। इस तरह से हसन परिवार में अख्तर हसन की राजनीति विरासत उनके पुत्र मुनव्वर हसन से होते हुए पुत्रवधू तबस्सुम हसन तथा पौत्र नाहिद हसन तक पहुंच गई हैं।
दूसरी ओर, मुस्लिम राजनीति को आगे बढ़ाने में थानाभवन सीट से 1969 में बीकेडी के टिकट पर विधायक रहे राव राफे खां का नाम भी प्रमुख है। स्व. राव राफे खां के पुत्र अब्दुल राव वारिस 2007 में थानाभवन से रालोद के टिकट पर चुनाव जीते लेकिन उसके बाद 2012 व 2017 में वे चुनाव हार गए। इसी तरह गढ़ीपुख्ता के मूलनिवासी अमीर आलम खां विधायक और सांसद भी बने। उनके पुत्र बुढ़ाना से 2012 में विधायक बने तो उनकी राजनीति का केंद्र भी मुजफ्फरनगर माना जाने लगा।
यतेंद्र चौधरी और हरेंद्र वर्मा को इंतजार
कैराना लोसकभा से मंडल कमीशन की लहर के बाद जनता दल के टिकट पर 1989 व 1991 में हरपाल पंवार चुनाव जीतकर संसद में पहुंचें। उनके पुत्र और सुप्रीम कोर्ट में वरिष्ठ अधिवक्ता यतेंद्र चौधरी 2017 और 2022 में शामली सीट से भाजपा के टिकट के दावेदार माने जा रहे थे लेकिन उनके हिस्से में अभी इंतजार ही है।
दूसरी ओर, 1977 में बघरा सीट से निर्दलीय विधायक बने बाबूसिंह वर्मा के पुत्र डा. हरेंद्र वर्मा तथा कैराना सीट से निर्दलीय विधायक रहे राजेश्वर बंसल के पुत्र अखिल बंसल अबकी बार से राष्ट्रीय लोकदल के टिकट के लिए लाइन में थे, लेकिन इनको भी अभी इंतजार करना पड़ेगा। हालांकि राजेश्वर बंसल तथा अखिल बंसल ने टिकट न मिलने से खफा होकर रालोद का साथ भी छोड़ दिया है।