Tuesday, July 9, 2024
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दो खेमों में बंटी राजनीति

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Samvad


Rajesh Maheshwariदेश में आम चुनाव को लगभग छह महीने का समय बाकी है। लेकिन अभी से देश में आम चुनाव का माहौल बनता दिख रहा है। साल 2024 में होने वाले लोकसभा चुनावों को लेकर सभी राजनीतिक पार्टियां मंथन में जुट गई है। एक तरफ जहां भारतीय जनता पार्टी नौ साल सत्ता में रहने के बाद चुनावों के मद्देनजर जोड़ तोड़ में लगी है, तो वहीं दूसरी तरफ सत्ता से बाहर रही कांग्रेस भी अपनी राजनीतिक बिसात बिछा रही है। कुल मिलाकर वास्तव में देश में इन दिनों गठबंधन की राजनीति पूरे उफान पर है। बड़े छोटे दल अपने-अपने राजनीतिक नफे नुकसान के हिसाब से गठबंधन का हिस्सा बन रहे हैं।

विपक्ष ने दो दिन बेंगलुरू में और एनडीए ने दिल्ली में बैठक कर अपने घर को मजबूत करने का काम किया। विपक्षी बेंगलुरू से पूर्व पटना में भी बैठक कर चुका है। विपक्षी खेमे में तमाम अन्य मसलों के अलावा अहम मुद्दा प्रधानमंत्री पद के चेहरे को लेकर है। एनडीए की ओर से नरेंद्र मोदी ही प्रधानमंत्री के उम्मीदवार होंगे।

यह पहले से ही तय है। कुल मिलाकर इस प्रकार 2024 के लोकसभा चुनाव के लिए दोनों पक्ष अपने खेमे को ताकतवर बनाने में जुटे हुए हैं। लेकिन इसमें सैद्धांतिक या वैचारिक पक्ष के लिए कोई स्थान नहीं है। अवसरवाद और उपयोगितावाद के मुताबिक नेताओं का इस या उस गठबंधन से जुडने का सिलसिला जारी है।

देश की जनता इस सारी कसरत को बड़े इत्मीनान से देख और समझ रही है। पिछले दो लोकसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी ने कांग्रेस को बुरी तरह हराकर बहुमत हासिल किया था।

कांग्रेस को हराने के बाद बीजेपी ने कई राज्यों में अपनी ताकत को बढ़ाने के लिए क्षेत्रीय पार्टियों पर भी अलग अलग तरह के पैंतरे आजमाए. नतीजतन पिछले कुछ सालों में कई सहयोगी दलों ने बीजेपी का साथ छोड़ दिया। वहीं दूसरी तरफ धीरे-धीरे कई विपक्षी दल एकजुट होने लगे।

विपक्षी एकजुटता का सबसे बड़ा उदाहरण नए संसद भवन के उद्घाटन समारोह के दौरान देखने को भी मिला। जब पीएम मोदी से उद्घाटन के विरोध में 19 पार्टियां समारोह से गायब रहीं। इसके अलावा दिल्ली में उपराज्यपाल को अधिकार देने वाले केंद्र सरकार के अध्यादेश के विरोध में भी एक दर्जन पार्टियां आम आदमी पार्टी के साथ आ गई।

शिवसेना, जेडीयू, गोरखा जनमुक्ति मोर्चा और जनसेना जैसे दलों ने एनडीए का आरोप है कि एनडीए के साथ रहते हुए उसे कमजोर करने की कोशिश की जा रही थी। इन दलों का आरोप था कि बीजेपी राज्य में अपना जनाधार बढ़ाने के लिए पीछे से खेल करती है।

इसके अलावा गोरखा जनमुक्ति मोर्चा ने बीजेपी पर लोगों के साथ विश्वासघात करने का आरोप भी लगाया है। लेकिन बदलते हालात में विपक्षी एकता की मुहिम के जवाब में भाजपा ने भी एनडीए का कुनबा बढ़ाते हुए जीतनराम मांझी और ओमप्रकाश राजभर के अलावा आंध्र की एक क्षेत्रीय पार्टी को भी अपने पाले में खींच लिया।

वहीं यूपी में पूर्वांचल के बड़े नेता दारा सिंह चैहान सपा छोड़कर भाजपा में शामिल हो गए हैं। यूपी में इस बात की भी चर्चा थी कि बीजेपी पश्चिम उत्तर प्रदेश के किले को फतह करने के लिए राष्ट्रीय लोक दल को अपने साथ लाना चाहती है। रालोद प्रमुख जयंत चौधरी से अंदरखाने बातचीत भी हो रही थी, लेकिन जयंत ने बेंगलुरू की बैठक में पहुंचकर बीजेपी को झटका दिया है।

बात अगर बिहार की कि जाए तो वहां इस बात की भी चर्चा है कि महाराष्ट्र जैसा धमाका बिहार में भी होने वाला है। चर्चाओं के अनुसार जनता दल (यू) के अनेक विधायक और नेता लालू की पार्टी आरजेडी को जरूरत से ज्यादा खुला हाथ दिए जाने से नाराज हैं।

तेजस्वी का नाम नौकरी घोटाले की चार्जशीट में आ जाने के बाद नीतीश की पार्टी में ये भय व्याप्त है कि लालू परिवार द्वारा किए गए भ्रष्टाचार से उसकी छवि भी खराब हो जाएगी। इसलिए उससे पिंड छुड़ा लिया जाए। भाजपा इस स्थिति का लाभ लेने तैयार बैठी है। ऐसे में नीतीश सरकार खतरे में पड़ी तब उसका सीधा असर विपक्ष के गठबंधन पर पड़ेगा।

दिल्ली और पंजाब में कांग्रेस की जड़ें खोदने वाले अरविंद केजरीवाल कांग्रेस की गोद में बैठने मात्र इसलिए राजी हो गए, क्योंकि उसने केंद्र सरकार द्वारा जारी अध्यादेश का विरोध करने की मांग मान ली। इसी तरह की सौदेबाजी यूपी में ओमप्रकाश राजभर के साथ भाजपा ने की जिसके बाद वे एनडीए का हिस्सा बनने राजी हो गए। ओम प्रकाश राजभर पहले भी भाजपा के साथ मिलकर सत्ता में रह चुके हैं।

लेकिन 2022 के विधानसभा चुनाव के पहले उन्होंने अखिलेश यादव के साथ मिलकर भाजपा को हराने में पूरी ताकत झोंकी किंतु असफलता हाथ लगी तो उनके विरुद्ध बयानबाजी करने लगे और अब मौका मिलते ही भाजपा के साथ आकर सत्ता की रेवड़ी खाने का इंतजाम कर लिया।

राजनीति में रहने वाले कहें कुछ भी किंतु उनके मन में ले-देकर सत्ता ही घूमती रहती है। इस बारे में अजीत पवार की स्पष्टवादिता अच्छी लगी जो बिना लाग लपेट के कहते हैं कि उनका लक्ष्य मुख्यमंत्री बनना है।

ओमप्रकाश राजभर भी अखिलेश के साथ इस उम्मीद से जुड़े थे कि उनकी सत्ता आने वाली थी किंतु जब वह उम्मीद पूरी नहीं हुई तो उन्होंने उसी भाजपा के साथ दोबारा याराना बिठा लिया जिसे कुछ दिन पहले तक जी भरकर गरियाया था। इसी तरह जीतनराम मांझी, अजीत पवार और ओमप्रकाश राजभर जैसे नेताओं को अपने साथ बिठाने से भाजपा की छवि प्रभावित होती है।

बीजेपी पर आजकल ये आरोप लगता है कि वह सत्ता की लालच में बेमेल समझौते कर रही है और अपने नेताओं और कार्यकर्ताओं की उपेक्षा करते हुए बाहर से आए मौकापरस्तों को उपकृत करने में तनिक भी संकोच नहीं करती। कांग्रेस भी इससे अछूती नहीं है।

राजनीतिक विश्लेषकों के अनुसार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के खिलाफ विपक्षी दलों का एकजुट होना आसान नहीं है, लेकिन किसी तरह समझौता हो भी जाता है तो सीट शेयरिंग फॉर्मूले पर जबरदस्त तरीके से पेच फंसेगा।

कांग्रेस भले ही राष्ट्रीय पार्टी हो और वो सबसे ज्यादा सीटों पर चुनावी किस्मत आजमाए, लेकिन देश के करीब 10 राज्यों में उसे अपने लिए क्षेत्रीय दलों से सम्मानजनक सीटें हासिल करना आसान नहीं होगा और उसे जूनियर पार्टनर के तौर पर ही रहना पड़ सकता है।

फिलवक्त देश की राजनीति दो खेमों में एकजुट होती दिख रही है। फिलवक्त नफे नुकसान को हिसाब लगाकर दोस्ती और गठबंधन हो रहा है। लोकसभा चुनाव से पहले देश की राजनीति कई रंग दिखाएगी। पर अवसरवादिता और उपयोगितवादी सिद्धांत तमाम दूसरे आदर्शों और सिद्धांतों पर भारी दिखाई देता है।


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