नए संसद भवन के उद्घाटन और विशेष सत्र के पहले दिन जब केंद्र की मोदी सरकार महिला आरक्षण बिल लेकर आई, तो विपक्ष और लोगों को लगा कि प्रधानमंत्री मोदी ने एक बार फिर सत्ता हासिल करने वाला पासा अपने पक्ष में कर लिया। लेकिन कुछ ही दिनों में पासा पलटता नजर आने लगा, क्योंकि यह बात आम हो गई कि महिला आरक्षण बिल तो पास हो गया, लेकिन इसे कानून बनने में लगने वाले वक्त के अलावा इसके लिए परिसीमन कराने में वक्त लगेगा और इसके बाद इसे लागू करने में भी समय लगेगा। कहा जा रहा है कि इस प्रकार से महिला आरक्षण साल 2029 में लागू हो सकेगा। कानून बनने के बाद भी महिला आरक्षण लागू होने के बाद भी इसे लागू करने में अभी कई साल और लग जाएंगे। इसके अलावा यह भी कहा जा रहा है कि केंद्र की मोदी सरकार द्वारा लाए गए महिला आरक्षण बिल में कई खामियां भी हैं, जिनमें सुधार होने चाहिए। हालांकि फिर भी इस महिला आरक्षण बिल को तत्काल कानूनी शक्ल देकर अगर केंद्र की मोदी सरकार आगामी पांच राज्यों की विधानसभाओं और 2024 के लोकसभा चुनावों से पहले ही लागू कर देती है, तो उसे इसका फायदा मिल सकता है। विपक्षी पार्टियों के पास भी मुद्दा नहीं रहेगा, साथ ही उन्हें इसका काफी नुकसान भी होगा।
दरअसल, महिला आरक्षण में जो जनगणना होगी, जाहिर है उसमें जातिगत जनगणना भी सामने आएगी, जिसके उपरांत एससी, एसटी और ओबीसी वर्गों की जनसंख्या के अनुपात में सभी सदनों लोकसभा, राज्यसभा, विधानसभाओं और विधान परिषदों में सीटें आरक्षित होनी चाहिए, लेकिन आरक्षण सिर्फ और सिर्फ महिलाओं को ही दिया जाएगा। इन आरक्षित सीटों पर महिलाओं को तो आरक्षण मिलेगा, लेकिन एससी, एसटी और ओबीसी की महिलाओं की उसमें कितनी भागीदारी होगी, इसकी कोई गारंटी नहीं है।
जानकारों का तो यहां तक मानना है कि महिलाओं के आरक्षण से बस इतना ही फर्क पड़ेगा कि जहां अभी जो पुरुष राजनीति में हैं, वहां आरक्षण लागू होने के बाद उनके घर की महिलाएं कुर्सी पर होंगी। इस आधार पर महिलाओं के लिए केंद्र और राज्य की राजनीति में भले ही 33 फीसदी आरक्षण मिल जाए, लेकिन इन 33 फीसदी सीटों पर निचले तबके की महिलाओं को मौका फिर भी नहीं मिलेगा। इस प्रकार से राजनीति में महिलाओं को आरक्षण मिलने से हिंदुस्तान की आम महिलाओं के हाथ कुछ भी नहीं लगने वाला। इन वंचिच वर्गों की महिलाओं के लिए रोटेशन से आरक्षित हों, तभी इन वर्गों को वास्तविक प्रतिनिधित्व और सामाजिक न्याय मिलेगा। कानूनी रूप से जब मिलेगा मिलता रहेगा, सियासी दल महिलाओ को 33 फीसदी टिकट देने की शुरुआत करके महिलाओं को एक संदेश दे सकते हैं।
दलित, ओबीसी शक्ति संघ के राष्ट्रीय अध्यक्ष धर्मवीर चौधरी का कहना है कि जो पार्टियां आज महिला आरक्षण बिल के पक्ष में हैं या उसमें सुधार चाहती हैं या जो लोग ओबीसी को भी आरक्षण देना चाहते हैं और जो पार्टियां भविष्य में जाति जनगणना के आधार पर आरक्षण देना चाहते हैं, उनसे अनुरोध है कि वे जब अपनी पार्टी के टिकट बांटें, तो 33 फीसदी टिकट महिलाओं को दें और 50 फीसदी टिकट ओबीसी को दें, और 50 फीसदी में से 33 फीसदी महिलाओं को टिकट दें। अल्पसंख्यक को 14 फीसदी टिकट दें और अल्पसंख्यक महिलाओं को इस 14 फीसदी में से 33 फीसदी टिकट दे दें। इस कार्य के लिए किसी अन्य आधार या परिसीमन की आवश्यकता नहीं है।
जब जाति जनगणना हो जाए और परिसीमन हो जाए, तब आंशिक बदलाव हो जाएगा। परंतु सबकी नीयत यदि ओबीसी के हक में है, अल्पसंख्यक के हक में है, तो यह पार्टी टिकट में ओबीसी और महिला आरक्षण से दिख जाएगा। मात्र कानून बनाने और विरोध की अपेक्षा 2024 में ही सभी पार्टियां ओबीसी को 50 फीसदी टिकट दे दें, अल्पसंख्यक को 14 फीसदी दे दें। परंतु यह तुरंत दिखना चाहिए। एक पार्टी जो 50 फीसदी महिला आरक्षण देना चाहती वह तत्काल 50 फीसदी टिकट महिलाओ को दे दें। और यह टिकट वितरण में आरक्षण नीति अपने घोषणा-पत्र में तत्काल शामिल करके दिखाएं।
बहरहाल, आम तौर पर कहा ये जा रहा है कि ये जो महिला आरक्षण बिल लाया गया है, इसमें एससी, एसटी और ओबीसी को अधिकार नहीं दिया जा रहा है। भाजपा की आरक्षण के पीछे ये सोच थी कि महिलाओं को राजनीति में आरक्षण देने से पूरे देश की महिलाएं एक साथ भाजपा से जुड़ेंगी और आगामी चुनावों, खास तौर पर साल 2024 के लोकसभा चुनावों में सभी महिलाएं भाजपा को वोट करेंगी, जिससे एक तरफ जो वोट बैंक का नुकसान भाजपा को दिख रहा है, उसकी भरपाई हो जाएगी और भाजपा फिर से 2024 में केंद्र की सत्ता में आ जाएगी। लेकिन एससी, एसटी और ओबीसी ही नहीं, बल्कि अल्पसंख्यक वर्गों की महिलाओं में भी ये संदेश विपक्ष तेजी से पहुंचा रहा है कि पहले तो महिलाओं को अभी इस आरक्षण का कोई फायदा नहीं होने वाला और अगर आरक्षण का जब फायदा मिलेगा, तो इन वर्गों को कुछ नहीं मिलने वाला।
आरएसएस इस बात को पहचान गया है और उसने हाल ही में एक प्रेस रिलीज जारी करके कहा है कि वह संघ में भी हर स्तर पर महिलाओं की भर्ती करेगा। इसके पीछे की वजह भी यही है कि महिला आरक्षण बिल लाते ही लोगों में ये मैसेज गया है कि संघ और भाजपा महिलाओं का सम्मान नहीं करते, क्योंकि उनकी सोच मनु स्मृति वाली है और संघ इस पर पूरी तरह नियम बनाए हुए हैं, जिसके चलते आज तक संघ में कोई महिला सदस्य तक नहीं हैं। ऐसे में भाजपा की जीत की मंशा को बल देने के लिए महिला आरक्षण फेल न हो इसलिए संघ में भी महिलाओं को शामिल किया जाएगा। संघ के लोगों का दावा है कि अब महत्वपूर्ण पदों पर महिलाओं को जिम्मेदारी दी जाएगी।
इस प्रकार से संघ की महिला विरोधी छवि को हटाया जाएगा और महिलाओं की एंट्री संघ में होगी। अभी कई जगह पर ग्राम पंचायत, ग्राम प्रधानी के चुनावों में महिलाओं के लिए निर्धारित सीटें हैं, जिन पर ज्यादातर महिलाएं वही हैं, जिनके घर से पंचायत या प्रधानी में कोई न कोई रहा हो। इसके अलावा गांवों में चुनी हुई इन महिलाओं में ज्यादातर के पति ही उनके काम देखते हैं। देखना है कि केंद्र या राज्य की राजनीति में महिलाओं के आने पर उनकी राजनीति क्या बिना किसी दबाव के चल सकेगी?
क्या महिलाओं को देश और राज्यों में बार-बार प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री बनने का ज्यादा से ज्यादा चांस मिल सकेगा? क्या देश और राज्यों की राजनीति में 33 फीसदी महिलाओं के आने से देश की उन महिलाओं का भविष्य सुधर सकेगा, जिनकी जिंदगी आज भी केवल घर की चारदीवारी में गुजर जाती है? क्या इससे महिलाओं पर अत्याचार घटेंगे? क्या इससे महिलाओं के खिलाफ होने वाले अपराधों में कमी आएगी? क्या इससे महिलाओं में शिक्षा का स्तर बढ़ेगा? क्या इससे उन्हें नौकरियों के और ज्यादा अवसर मिल सकेंगे? इस तरह के कई सवाल हैं, जिनके जवाब राजनीति में महिला आरक्षण लागू होने के बाद शायद मिल जाएं?