Tuesday, July 9, 2024
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गरीबी ने मलियाना दंगे की पैरवी को किया प्रभावित

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  • जो मजदूर मारे गए उनके घर वाले अदालत में जाने को तैयार नहीं हुए

जनवाणी संवाददाता |

मेरठ: 23 मई 1987 को मलियाना में हुए भीषण दंगे में 72 लोग मारे गए। सारे कागजी सबूत अदालत में पेश किये गए लेकिन जब लोगों की गवाही की बात आई तो गरीबी आड़े आ गई। 36 साल तक चली अदालती कार्यवाही में अभियोजन पक्ष आधा दर्जन गवाह भी पेश नहीं कर पाया। कारण साफ था कि जिन मजदूरों की हत्या हुई थी उनके घर वालों ने कोर्ट के नाम एक दिन कुर्बान करने के नाम पर बच्चों का पेट पालना जरुरी समझा। यही कारण है कि कागजी सबूत मजबूत होने के बाद भी पर्याप्त साक्ष्य एकत्र न होने का फायदा आरोपियों को मिला और उनके हक में फैसला हो गया।

क्रांतिधरा को हाशिमपुरा कांड और मलियाना कांड ने पूरी दुनिया में बदनाम कर दिया था। हर कोई मेरठ को दंगों का शहर कहने से बाज नहीं आता था। इसके पीछे वजहें भी साफ थी। 1992 में बाबरी मस्जिद के विध्वंस होने के बाद बवाल हुआ था। इन सबमें मलियाना कांड ने पूरे देश के अखबारों की सुर्खियां बटोरी थी। जब फैसले की बात आई तो हाशिमपुरा कांड के आरोपियों के खिलाफ अदालत ने फैसला सुनाया और लोगों को दंडित किया लेकिन मलियाना कांड के मामले में 39 आरोपियों को बरी कर दिया गया।

36 साल तक चंद लोगों को ही मालूम था कि मलियाना दंगों की सुनवाई किस कोर्ट में और किस स्टेज पर चल रही है। वक्त बड़े बड़े जख्मों को भर देता है। मलियाना में हुए दंगे में 72 लोग मारे गए थे, इसमें अधिकांश लोग मजदूरी करके परिवार का पेट पालते थे। इनकी मौत परिवार के लिये कष्टकारी थी क्योंकि परिवार का कमाने वाला मारा गया था। सरकार ने बीस हजार रुपये आर्थिक सहायता दी थी लेकिन वो नाकाफी थी।

इन मजदूरों के मरने के बाद परिवार के सामने आर्थिक संकट खड़ा हो गया। मलियाना निवासी याकूब की तरफ से टीपी नगर थाने में मुकदमा दर्ज कराया गया। पुलिस ने 36 लोगों के शवों का पोस्टमार्टम कराया था। इंजरी रिपोर्ट भी दंगे को सिद्ध कर रही थी लेकिन जब चार्जशीट दाखिल होने के बाद कोर्ट में सुनवाई शुरु हुई तब जाकर असली परीक्षा शुुरु हुई। पीड़ितों की तरफ से एडवोकेट अलाउद्दीन सिद्दीकी पैरवी कर रहे थे।

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बिना फीस लिये एडवोकेट अलाउद्दीन ने अपने स्तर पर जो बेहतरीन कर सकते थे किया लेकिन मलियाना के जिम्मेदार लोगों ने इसमें ज्यादा रुचि नहीं दिखाई। अदालत का फैसला आने के बाद गवाह वकील अहमद आदि कई लोगों ने खुलकर कहा कि समाज के जिम्मेदार लोगों को आर्थिक और मानवीय मदद करनी चाहिये लेकिन नहीं की गई। सरकार और पुलिस की तरफ से निराशा लग ही चुकी थी।

दंगे में मारे गए लोगों के परिजनों से गवाही देने के लिये कहा जाता था तब उनकी तरफ से यही कहा जाता था कि अगर पूरा दिन कोर्ट में गुजार देंगे परिवार के लिये कैसे कमा पाएंगे, एक दिन की दिहाड़ी खराब हो जाएगी। यही बात दंगा पीड़ितों की तरफ से मुकदमा दर्ज कराने वाले याकूब का भी कहना है कि जिस मदद की उम्मीद की जा रही थी उसके लिये न सामाजिक संस्थाएं और न ही लोग सामने आए और नतीजा सामने है।

दरअसल हाशिमपुरा कांड में पूरा समाज एकजुट था और बस भर कर गवाह तीस हजारी कोर्ट के लिये दिल्ली जाते थे और आर्थिक मदद भी करते थे। हाशिमपुरा के लोगों ने इस बाबत मलियाना के जिम्मेदार लोगों के सामने प्रस्ताव रखा था कि दोनों मिलकर अदालती लड़ाई लड़ें तो कुछ कथित जिम्मेदार लोगों ने मना कर दिया था। इस पर गवाह वकील अहमद की टिप्पणी काफी मौजूं है जिसमें उन्होंने कहा कि हाशिमपुरा के लोगों की बात मानने से कुछ लोगों की नाक नीचे हो रही थी। यही कारण रहा कि गरीब गवाहों ने अदालत में बयान के बजाय पेट को प्राथमिकता दी जिसका परिणाम सामने है।

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