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अभी देश की प्राथमिक शिक्षा बड़े परिवर्तन की साक्षी बनने जा रही है। यह नई शिक्षा नीति-2020 के अंतर्गत होने वाला है। नई शिक्षा नीति इंगित करती है कि हम अपने पूरे शिक्षणतंत्र को व्यावहारिक, लचीला और रचनात्मक बनाएं, जो शिक्षा की ऐसी दुनिया रचने में कामयाब हो, जिससे जुड़कर बच्चे संवेदनशील, कौशलयुक्त, सुयोग्य और विकासमान बनें। वह भविष्य में जाति, धर्म, असमानता जैसी गोलबंदियों से मुक्त एक सशक्त नागरिक संरचना में परिवर्तित हो सकें। हम जिस समाज में रह रहे हैं, वह विभक्तियों के मकड़जाल, जातीय तनाव और अंतर्द्वन्द्व से घिरा है। इस समाज के बच्चों को शिक्षा की दुनिया में धकेलकर हम रातों रात किसी सार्थक परिवर्तन की आशा नहीं कर सकते।
इसके लिए दीर्घकालिक योजनापर नए दृष्टिकोण से कार्य करने की आवश्यकता महसूस की गयी है। मौजूदा सरकार ने अपने पहले कार्यकाल में ही इस चुनौती को स्वीकार किया और सेवानिवृत्त कैबिनेट सचिव टीआरएस सुब्रमण्यम की अध्यक्षता में एक कमेटी गठित करके 2015 में ही इस संदर्भ में कार्य आरंभ करा दिया था।
‘सुब्रमण्यम समिति’ ने अपनी सिफारिशों की रिपोर्ट 2016 में सरकार को सौंप दी थी। सरकार ने इसे व्यापक और जमीनी स्तरों पर परखने के लिए इसरो के पूर्व प्रमुख डॉ. के. कस्तूरीरंगन की अध्यक्षता में एक अन्य कमेटी गठित कर उसे सौंप दिया। इस कमेटी ने बृहत्तर संदर्भों में छानबीन करके 31 मई 2019 को अपना प्रतिवेदन सरकार के समक्ष प्रस्तुत किया था।
तत्पश्चात इस रिपोर्ट का प्रकाशन हुआ, आम लोगों और शिक्षाविदों से इसके विषय में सुझाव और संशोधन मांगे गए। व्यापक स्तर पर लोगों ने इसमें प्रतिभाग किया। किसान, छात्र, शिक्षक, जनप्रतिनिधि, अभिभावक, लोकसेवक, शिक्षाविद, टेक्नोक्रेट, बुद्धिजीवियों से मिले 20 लाख सुझावों के मंथन के बाद यह शिक्षानीति तैयार की गई।
इसमें आम आदमी की बड़ी भूमिका है। इसीलिए नई शिक्षा नीति 2020 को लोकतान्त्रिक और समावेशी कहा गया है। दुनिया में जहां कहीं भी शिक्षा में संशोधन और परिवर्तन हुए हैं, वहां वाद-विवाद होते रहे हैं। किंतु वाद-विवाद तू-तू मैं-मैं नहीं, बल्कि संवाद की गरिमापूर्ण सीमा में होना चाहिए। नई शिक्षा नीति-2020 भी बहस-मुबाहिसे से परे नहीं हो सकती।
मगर इसकी संवेदनशीलता को सदैव ध्यान में रखना चाहिए। यह सिर्फ पढ़ाई-लिखाई यानी समाज को साक्षर बनाने पर नहीं फोकस करती है, बल्कि लोगों को शिक्षित करने का सपना बुनती है। साक्षरता का संबन्ध पढ़ने-लिखने और तकनीकी ज्ञान-कौशल से है, शिक्षित करने में उपर्युक्त योग्यताओं के साथ नैतिक मूल्यों का भी समावेश होता है।
शिक्षा का अर्थ सिर्फ इतना नहीं होता कि वह व्यक्ति को निर्मम संसार का सामना करने के योग्य बनाए , वास्तव में शिक्षा को ऐसे व्यक्तित्व गढ़ने का संकल्प लेना चाहिए जो दुनिया को बेहतरी की दिशा में ले जाएं। नई शिक्षा नीति कागजी रूप में इस संदर्भ में सचेष्ट है।
इसके अंतर्गत स्कूली शिक्षा के प्रारूप में परिवर्तन किया गया है। इसकी पहली स्टेज ‘पूर्व प्राथमिक शिक्षा’ की है। अब बच्चा 3 साल की आयु में विद्यालय में प्रवेश लेगा और नर्सरी से कक्षा 2 तक की शिक्षा ग्रहण करेगा। इसमें स्कूल प्रीपिरेशन मॉड्यूल का जो 3 से 6 वर्ष के बीच का कालखंड है, उसमें बच्चे के मस्तिष्क का 85 प्रतिशत विकास हो जाता है।
निश्चय ही इस अवस्था में बच्चे को विशेष देखभाल, सुरुचिपूर्ण खेलकूद आधारित शिक्षा, आनन्दमय और सृजनात्मक परिवेश में गतिविधियां करने का अवसर उपलब्ध होना आवश्यक है। शिक्षाशास्त्र में यह पूर्व प्राथमिक शिक्षा कहीगई है।नई शिक्षा नीति में इसको शामिल किया गया है, यह हर्ष का विषय है। मगर इसका क्रियान्वयन हवा में नहीं हो पाएगा।
इसके लिए विशेष मानवीय संसाधन यानी शिक्षक की आवश्यकता होगी। वह कहां से आएंगे? मोटी फीस वसूलने वाले किंडर गार्डन और प्लेवे मेथड स्कूल शहरों-कस्बों में खूब हैं। उच्च और मध्य वर्ग के बच्चे इन स्कूलों में जाते हैं। किंतु एक बहुत बड़े गरीबी की रेखा के नीचे जीने वाले विपन्न समुदाय के बच्चे हां जाएं? इनके लिए तो सरकारी शिक्षा व्यवस्था ही एकमात्र सहारा है।
नई शिक्षा नीति में पूर्व प्राथमिक को शिक्षा की मुख्य धारा में स्थान प्राप्त करना एक बड़ी बात है। इसे कैसे प्रभावी बनाया जा सकता है, इस पर खुले मन से बात होनी चाहिए। मगर किसी के लिए यह गौर तलब मुद्दा नहीं है। शिक्षा के नए ढांचे में 1 और 2 की कक्षाएं भी जोड़ी गई हैं। खेल, संगीत, कला, योग जैसे विषयों को भी आरम्भ से ही पढ़ने-पढ़ाने का प्रावधान है। यह ऐसे विषय हैं, जो व्यक्तित्व में निखार ले आते हैं। आरम्भिक शिक्षा मातृ भाषा में दी जाएगी।
किंतु देश के अंदर अंग्रेजी का ऐसा आकर्षण है कि जिसके पास भी कुछ पैसे होंगे, वह हिंदी माध्यम के स्कूल से दूर भागेगा। कमोबेश कामन एजुकेशन सिस्टम के बीच शिक्षा से जुड़ी नीतियां बेहतर प्रदर्शन करती हैं। इसलिए सरकार के स्तर पर मुहैया कराई जाने वाली शिक्षा में हर वर्ग के बच्चे होंगे, तभी यह प्रभावी हो पाएगी। सिर्फ नीति और नीयत से पूर्ण उपलब्धि नहीं प्राप्त हो सकती है।
देश में जो अंग्रेजी का अंधा आकर्षण है, इससे कैसे मुक्ति मिले, इस दिशा में भी गम्भीर मंथन की जरूरत है। हिंदी के उपयोग की बात हो, तो तत्काल यह हिंदी थोपने का मुद्दा बनकर माहौल में गर्माहट पैदा कर देता है। लेकिन अंग्रेजी से मुक्ति का आह्वान सदैव बेअसर रह जाता है।
जबकि दुनिया भर के राष्ट्रों के अनुभव से यह बात सीखी जा सकती है कि प्राथमिक स्तर पर बच्चों को शिक्षा अपनी मातृभाषा में ही दी जानी चाहिए। अपनी भाषा में सीखना आसान, रुचिकर, स्थायी और गुणवत्तापूर्ण होता है। मातृभाषा में जो हम पढ़ते हैं, वह हमारे चिंतन, तर्क और कल्पना के साथ सहज रूप से समायोजन करने में समर्थ होता है।
मूलत: शिक्षा के दो पहलू होते हैं, एक ज्ञान और दूसरा समझ! नई शिक्षा नीति ‘समझ’ पर अधिक केंद्रित है। समझ आधारित शिक्षा के लिए ज्ञान का विचार और व्यवहार से एकीकरण आवश्यक होता है। यह पूरी प्रक्रिया मातृभाषा में ही संभव हो सकती है।
इसलिए इस महत्वाकांक्षी शिक्षा नीति को सफलता की मंजिल तक ले जाना है, तो मातृभाषा संबंधी मुद्दे पर कोई समझौता नहीं होना चाहिए। अगर ऐसा न हुआ तो लाखों बच्चों की मेधा के उचित संरक्षण, संवर्द्धन और प्रबंधन से हम चूक जाएंगे।
नई शिक्षा नीति के जो अगले चरण हैं-राष्ट्रीय शिक्षा आयोग, राष्ट्रीय अनुसंधान फाउंडेशन, मिशन तक्षशिला, मिशन नालंदा और आगामी बीस वर्ष के अंदर देश के शिक्षा केंद्रों को वैश्विक स्तर के शैक्षिक कॅम्पस के समकक्ष स्थापित करना, इन सारे उपक्रमों की सफलता का रास्ता गुणवत्तापूर्ण प्राथमिक शिक्षा के बीच से ही निकलेगा। नई शिक्षा नीति में प्राइमरी शिक्षा को खास तवज्जो दी गई है, इससे संकेत मिलता है कि हमारी शिक्षा संबन्धी सोच उचित दिशा में अग्रसर है।
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