बीते दिनों बिहार में जहरीली शराब से हुई मौतों का आंकड़ा लगातार बढ़ता ही जा रहा है। सूत्रों की मानें तो अभी तक 44 लोग जहरीली शराब पीने से मौत के मुंह में जा चुके हैं। अकेले सारण जिले के तीन इलाकों में अभी तक 33 लोग मौत के मुंह में जा चुके हैं। 23 लोग तो एक ही इलाके मशरक के हैं। तकरीब 25 लोग अस्पतालों में जिंदगी और मौत के बीच झूल रहे हैं। बहतेरे लोगों की तो जहरीली शराब पीने से आंख की रोशनी तक कम होने की सूचना है। राज्य में कहने को तो 2016 से ही शराब बंदी है, लेकिन राज्य में जहरीली शराब पीने से मरने वालों का सिलसिला जारी है। वह थमता नजर नहीं आ रहा। अगस्त के महीने में भी सारण में जहरीली शराब का मंजर सामने आया था। वह बात दीगर है कि सरकार और प्र्रशासन शराब कांड के बाद शराब के धंधेबाजों के खिलाफ जांच, ताबड़तोड़ छापेमारी व उनकी गिरफ्तारी का दावा करे, लेकिन यह तो हर घटना के बाद सरकारी प्रक्रिया का हिस्सा भर है। विडम्बना यह कि यह सब उस हालत में हो रहा है, जबकि राज्य में नशाबंदी लागू है।
अब सवाल यह है कि राज्य में पूर्ण नशाबंदी लागू होने के बावजूद शराब की आपूर्ति कहां से होे रही है। गौरतलब है कि यह तथ्य किसी से छिपा नहीं है कि शराब की आपूर्ति राज्य में कहां से होती है और फिर उसे किस तरह राज्य के दूसरे जिलों के ग्रामीण अंचल में पहुंचाया जाता है। इसमें नेता, प्रशासन, पुलिस और ग्राम पंचायत स्तर तथा वहां के चौकीदार तक की मिलीभगत जगजाहिर है। कोई जिला इससे अछूता नहीं है। सरकार में बैठे राजनेताओं
तक से यह तथ्य छिपा नहीं है। मृतकों के परिजन भी इसकी पुष्टि करते हैं कि राज्य के शहरी इलाकों की बात दीगर है, ग्रामीण इलाकोें में भी आज मात्र फोन करने से ही घर-घर शराब माफिया के लोग शराब पहुंचा दिया करते हैं और यह सिलसिला बदस्तूर जारी है। जिला प्रशासन और पुलिस इससे भलीभांति वाकिफ है। इस सच्चाई को नकारा नहीं जा सकता। शराबबंदी तो मात्र दिखावा है।
विडम्बना तो यह है कि राज्य में जहरीली शराब से हुई मौतों के बाद सरकार और विरोधी दलोें के नेताओं के बीच आरोप-प्रत्यारोपों का सिलसिला बदस्तूर जारी है और दोनों ही एक दूसरे को गरियाने में लगे हैं। जबकि यह सच है कि राज्य के लोग गलत चीज ना पीयें, यह राज्य के मुखिया की जिम्मेदारी है कि वे राज्य के लोगों को पीने के लिए अच्छी चीज मुहैय्या कराए और जब राज्य में पूर्ण शराबबंदी है, उस हालत में राज्य में शराब कहां से आती है, इस पर अंकुश लगाए। यह साबित करता है कि राज्य में शराबबंदी केवल नाम की है। हकीकत में यहां पर व्यवस्था नाम की कोई चीज है ही नहीं। पुलिस, प्रशासन और अधिकारियों-कर्मचारियों पर सरकार का कोई अंकुश नहीं है।
राज्य के मुख्यमंत्री, उप मुख्यमंत्री और काबीना मंत्री तक के कथन भी समस्या से पल्ला झाड़ने जैसे ही हैं। उपमुख्यमंत्री का दूसरे राज्यों में शराब से हुर्इं मौतों की बिहार से तुलना हास्यास्पद नहीं तो क्या है। लेकिन यहां एक बात काबिले गौर है कि क्या शराबबंदी का ठेका नीतिश कुमार का ही है, इसके लिए विपक्ष को भी पहल करनी चाहिए और सामाजिक पहल की कामयाबी के लिए सरकार की कोशिशों का समर्थन करना चाहिए। चूंकि आज भाजपा विपक्ष में है, इसलिए वह शराबबंदी अभियान को नाकाम बताने में लगी है। ऐसा नहीं होना चाहिए। हां शराबबंदी के प्रति
मुख्यमंत्री की दृढ़ इच्छा शक्ति की जरूर प्रशंसा की जानी चाहिए। वह बात दीगर है कि उनके इस अभियान को कार्यपालिका, न्यायपालिका व विधायिका तक का पूरा सहयोग-समर्थ न मिले। यह सब उसी का परिणाम है। जहां तक राज्य में इस दौरान शराब की आपूर्ति का सवाल है, हरियाणा से सबसे अधिक शराब की आपूर्ति बिहार में होती है। सबसे पहले पश्चिमी बिहार को लें। यहां के आदि जिलों में अधिकतर 75 फीसदी हरियाणा से और 25 फीसदी उत्तर प्रदेश से शराब की आपूर्ति होती है। उत्तरी बिहार में उत्तर प्रदेश और नेपाल से और पूर्वी बिहार में पश्चिम बंगाल और ओडिसा से शराब की आपूर्ति होती है।
इन राज्यों से यहां सड़क और नदियों के रास्ते शराब की आपूर्ति की जाती है। इसकी जानकारी नेता, पुलिस और प्रशासन को बखूबी है। फिर भी इसकी रोकथाम की कोई व्यवस्था नहीं है। सबसे बड़ी बात तो राज्यों की सीमाओं पर चौकसी की है। भ्रष्ट मशीनरी के रहते इस पर अंकुश की बात बेमानी है। जहां तक शराब के जहरीली होने का सवाल है, भट्टी में कच्ची शराब बनाने वाले इसमें नशे के लिए जानवरों को लगाने वाले इंजैक्शन लगाते हैं, और तो और वे इसमें कुत्ते मारने वाले पाउडर और इंजैक्शनों तक का इस्तेमाल करते हैं।
उनके लिए शराब ज्यादा से ज्यादा नशीली हो, इसलिएवे इन चीजों का इस्तेमाल करते हैं। इसके लिए कौन जिम्मेदार है? यह जानते-समझते सरकार का मौन क्या दर्शाता है। गौर करने वाली बात यह भी है कि शराब पीने वालों को नशा चाहिए, वह भी सस्ता। इस चाहत की खातिर वह ऐसी शराब लेकर पीते हैं। ऐसी शराब पीकर नतीजन मौत को वह खुद दावत देते हैं। फिर सुशासन, बेरोजगारी के खात्मे और भ्रष्टाचार पर अंकुश के दावे कुछ भी किए जाएं, असलियत में इन दावों में कोई सत्यता नहीं है।
समाज विज्ञानी और शिक्षाविद डा. जगदीश चौधरी की मानें और यदि पश्चिमी बिहार की ही बात करें, तो यहां का आलम यह है कि यहां के जिलों में एक भी उद्योग नहीं है। नतीजन यहां के नौजवानों ने इसे अपना व्यवसाय बना लिया है। बीते सालों में भले वह महिलाओं की स्थिति का सवाल हो, उसमें सुधार हुआ है। घरेलू हिंसा का सवाल हो, उसमें कमी आई है। पारिवारिक समरसता का जहां तक सवाल है, उसमें भी सुधार हुआ है। अपराधों में भी कमी दिखाई दे रही है। लेकिन नशाबंदी के साथ नशा मुक्ति केंद्रों के खोलने का सवाल अनसुलझा ही रहा।
जो खोले जाने बेहद जरूरी थे। नशे के आदी लोगों की काउंसलिंग की जानी जरूरी थी, उनको नशे से होने वाली हानियों-दुष्प्रभावों के बारे में बताना जरूरी था। इस बारे में अभियान चलाया जाना चाहिए,जो नहीं हुआ। केवल किसी क्षेत्र या राज्य विशेष में नशाबंदी लागू करने से कुछ नहीं होने वाला। यह व्यावहारिक भी नहीं है। इसके लिए पूरे देश में कानून लागू करना होगा। जागरूकता अभियान चलाना होगा।
आजादी के बाद हमारे देश में राज्यों में नशाबंदी लागू करने का इतिहास काफी पुराना है और वहां नशाबंदी के बावजूद शराब की आपूर्ति और पीने वालों पर अंकुश की बात सपना ही रहा है। तमिलनाडु, गुजरात आदि का इतिहास प्रमाण है कि यह मात्र एक दिखावा और नारा बनकर रह गया है। शराबबंदी वाले राज्यों में नेता तक शराब पीते पाए गए हैं, जनता शराब पीकर मरती भी रही है, वह चाहे जहरीली हो या फिर सस्ती कच्ची शराब। यह अब इतिहास बन चुका है। नेतृत्व में दृढ़ इच्छा शक्ति का अभाव, भ्रष्ट मशीनरी के चलते और इस दिशा में जागरूकता के अभाव के बीच नशाबंदी कारगर हो पाएगी, इसमें संदेह है।